पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी द्वारा आयोजित मशहूर गीतकार, शायर और पटकथा लेखक जावेद अख्तर का कार्यक्रम अचानक स्थगित कर दिया गया। यह कार्यक्रम कोलकाता में होने वाला था, लेकिन कुछ इस्लामिक संगठनों के विरोध के बाद इसे टालने का निर्णय लिया गया।
दरअसल पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी ने 31 अगस्त से 3 सितंबर 2025 को मशहूर गीतकार और खुद को नास्तिक मानने वाले जावेद अख्तर के साथ होने वाला राष्ट्रीय मुशायरा रद्द कर दिया गया। इस फैसले के बाद बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। फिर क्या था इस मामले पर वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष सोच रखने वाले लोगों और कुछ मुस्लिम संगठनों के बीच बहस शुरू हो गई है। एक लेखक ने जावेद अख्तर पर आरोप लगाया कि वह “चुनिंदा नास्तिकता” दिखाते हैं, यानी हर बात पर एक जैसा रुख नहीं अपनाते। हालांकि, जावेद अख्तर ने इस आरोप को साफ तौर पर खारिज कर दिया। दूसरी ओर, कई लोग कहते हैं कि जावेद अख्तर की छवि हमेशा से ही मजबूत धर्मनिरपेक्ष रही है। उनका मानना है कि अफसोस की बात है कि इस तरह के फैसलों में धर्म और भाषा को मिलाकर देखा जाता है।
क्यों रद्द हुआ कार्यक्रम
उर्दू अकादमी ने कार्यक्रम टालने का कारण सिर्फ इतना ही बताया है कि ‘अनिवार्य कार्यों’ से संभव नहीं हो पाया, लेकिन मीडिया रेपोर्टों और सूत्रों के मुतबिक असल वजह कुछ इस्लामी संगठनों का विरोध था। इन संगठनों का कहना था कि जावेद अख़्तर ने पहले कई मौकों पर इस्लाम और अल्लाह को लेकर विवादित टिप्पणियां की थीं। इसी कारण उन्हें उर्दू अकादमी के मंच पर बुलाना ठीक नहीं होगा। विरोध बढ़ने के बाद अकादमी ने कार्यक्रम टालने का फैसला किया। अधिकारिक तौर पर नई तारीख की घोषणा अभी तक नहीं की गई है।
इस कार्यक्रम की अहमियत
उर्दू अकादमी का यह राष्ट्रीय मुशायरा हर साल आयोजित किया जाता है। इसमें देश-विदेश के समी शायर और कवि भी हिस्सा लेते हैं। इस बार जावेद अख्तर की मौजूदगी कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण था। उनके शामिल न होने से साहित्य प्रेमियों के बीच निराशा हुई।
ब्रिटेन की उर्दू संस्थाओं ने जताई नाराज़गी
बता दें इस फैसले का असर केवल कोलकाता या भारत तक नहीं रह गया है बल्कि ब्रिटेन तक असर देखने को मिल रहा है। ब्रिटेन की दो प्रमुख उर्दू संस्थाओं अंजुमन तरक्की उर्दू (यूके) और उर्दू कल्चर लंदन ने इसकी कड़ी निंदा की है। उन्होंने कहा है कि साहित्य और भाषा के मंचों को धार्मिक या राजनीतिक दबाव से प्रभावित नहीं होना चाहिए। इन संगठनों ने बयान जारी कर यह भी कहा है कि जावेद अख्तर ना सिर्फ एक नामी कवि और लेखक हैं, बल्कि उर्दू भाषा के बड़े समर्थक भी हैं। उनका कार्यक्रम रोकना उर्दू साहित्य की आज़ादी और खुलापन सीमित करने जैसा है। उन्होंने यह भी कहा कि “मतभेदों का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन किसी लोकतांत्रिक समाज में जबरदस्ती, धमकी और सेंसरशिप के लिए कोई जगह नहीं है।” आगे कहा ब्रिटेन स्थित उर्दू संगठनों ने कहा कि अख्तर, जो खुद को नास्तिक मानते हैं, ने ‘ऐसे तरीके से बात की है जिसे कुछ लोग धर्म या आस्था के प्रति असम्मानजनक मान सकते हैं, लेकिन इससे ‘किसी की आवाज को दबाने को कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। इससे भी बुरी बात यह है कि उर्दू को किसी विशेष धर्म के साथ जोड़ना खतरनाक है और इससे भारत में इसके विकास को काफी नुकसान पहुंचा है।”
अपर्णा सेन और कुछ बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया
वरिष्ठ फिल्मकार और अभिनेत्री अपर्णा सेन ने इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि यह शर्म की बात है कि एक साहित्यिक मंच पर राजनीति और धर्म का दबाव हावी हो गया। जावेद अख्तर को आमंत्रित करना गलत नहीं था। कला और साहित्य को राजनीति से अलग रहना चाहिए।
इसके अलावा कई बुद्धिजीवियों, लेखकों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने भी इस घटना को निराशाजनक बताया। उनका कहना है कि इस तरह के कदम से न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर पड़ता है, बल्कि कला और साहित्य की दुनिया भी सिमट जाती है।
दूसरी तरफ आलोचनाएं भी उठी हैं
कुछ लोगों ने इस विवाद पर अपनी प्रतिक्रिया जताई जो जावेद अख्तर को समर्थन करते दिखाई दिए। वहीं दूसरी तरफ विवाद का दूसरा पहलू भी सामने आया है। कुछ मुस्लिम कार्यकर्ताओं और लेखकों का कहना है कि जावेद अख्तर “चयनात्मक नास्तिकता” दिखाते हैं। यानी वे खुद को नास्तिक कहते हैं, लेकिन धार्मिक मुद्दों पर बयानबाज़ी करते हैं। इस कारण उनकी मौजूदगी उर्दू अकादमी जैसे मंच पर सही नहीं थी। जावेद अख्तर ने इन आरोपों का का खंडन भी किया है। उनका कहना है कि वे हमेशा समान रूप से सभी धर्मों की आलोचना करते आए हैं और यह उनका व्यक्तिगत नज़रिया है। वे मानते हैं कि साहित्य और कविता को धर्म और राजनीति से ऊपर होना चाहिए।
पश्चिम बंगाल सरकार पर सवाल
इस विवाद के बीच पश्चिम बंगाल सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठे हैं। आलोचकों का कहना है कि राज्य सरकार ने धार्मिक दबाव के आगे झुककर यह कार्यक्रम स्थगित कराया। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार को आशंका थी कि विरोध बढ़ने पर कानून-व्यवस्था की समस्या हो सकती है। इसलिए कार्यक्रम को रद्द करना ही उचित समझा गया। वहीं, सरकार समर्थक पक्ष का तर्क है कि प्रशासन को शांति और सुरक्षा बनाए रखना प्राथमिकता थी। अगर कार्यक्रम होता तो विवाद और बढ़ सकता था।
पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्य की उर्दू अकादमी के वार्षिक सांस्कृतिक कार्यक्रम को स्थगित कर दिया है। यह कदम दो इस्लामी समूहों द्वारा राज्य समर्थित अकादमी द्वारा प्रसिद्ध कवि और गीतकार जावेद अख्तर को आमंत्रित किए जाने पर आपत्ति जताए जाने के बाद उठाया गया है। यह कार्यक्रम 31 अगस्त से 3 सितंबर तक कोलकाता के नज़रुल मंच में आयोजित होने वाला था। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के नेता और राज्य मंत्री सिद्दीकुल्लाह चौधरी के नेतृत्व वाले संगठन, पश्चिम बंगाल जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने हिंदी फिल्म उद्योग पर उर्दू के प्रभाव पर एक सत्र को संबोधित करने के लिए स्वयंभू नास्तिक अख्तर को आमंत्रित करने के फैसले की सार्वजनिक रूप से निंदा की थी।
जमीयत उलेमा कोलकाता के महासचिव जिल्लुर रहमान आरिफ ने एक बयान में अख्तर को सार्वजनिक रूप से “शैतान” (शैतान) कहा। समूह ने उर्दू अकादमी को एक पत्र भी भेजा जिसमें दावा किया गया कि अख्तर ने “इस्लाम, मुसलमानों और अल्लाह के खिलाफ बहुत बकवास बातें की हैं “जिससे “लोगों में बेचैनी” पैदा हुई है।
द वायर के अनुसार कार्यक्रम की आयोजक उर्दू अकादमी की सदस्य ग़ज़ाला यास्मीन ने बताया, “कुछ अप्रिय घटनाओं के कारण कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया है। नई तारीखों की घोषणा जल्द ही की जाएगी।”
भाषा, धर्म और राजनीति, बड़ी बहस
वर्तमान में इस खबर ने देश में एक नई बहस को जगह दे दिया है। एक ओर एक पक्ष कहता है कि साहित्य को समाज की सच्चाई और विविधता को दिखाना चाहिए और उसमें हर आवाज को जगह भी मिलना चाहिए। वहीं दूसरी ओर दूसरा पक्ष मानता है कि अगर किसी लेखक या कवि ने धर्म पर आपत्तिजनक टिप्पणी की है तो उसे सार्वजनिक मंच पर बुलाना सही नहीं है। इससे यह पता चलता है कि विवाद सिर्फ जावेद अख्तर के कार्यक्रम तक सीमित नहीं है बल्कि यह समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आज़ादी को और धर्म के सम्मान के बीच संतुलन बनाना कितना मुश्किल है।
अगर देखा जाए तो उर्दू साहित्य हमेशा से ही बहस, असहमति और विचारों में उलझा नजर आया है। खतरे में पड़ी आवाज़ों को दबाना न केवल कोलकाता की विरासत का अपमान है बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी की बुनियाद को भी कमज़ोर करता है। कोलकाता का यह विवाद अब सिर्फ एक विवाद तक सीमित नहीं है। यह विवाद बताता है कि किस तरह कला, साहित्य और भाषा के मंच अब राजनीतिक और धार्मिक खिंचतान में फसते जा रहे हैं। जावेद अख्तर को लेकर उठे सवाल एक तरफ है लेकिन दूसरी तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, साहित्यिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक मंचों की गरिमा का मुद्दा कहीं बड़ा है। फिलहाल उर्दू अकादमी की चुप्पी और सरकार का रुख यह साफ़ करता है कि कार्यक्रम फिर से होना मुश्किल है। लेकिन विवाद ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या साहित्य और भाषा भी अब राजनीति की बलि चढ़ेंगे? क्यों कि इस तरह का कार्यक्रम आपस में लोगों को जोड़ने का काम करते है।
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