एक तरफ सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं और दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल उतने ही बड़ी संख्या में तेजी से बढ़ रही है। इन प्राइवेट स्कूलों की फीस भर पाना गरीब लोगों के बस की बात नहीं है।
भारत में शिक्षा की स्थिति अंधेरे में दिखाई पड़ता है। अगर देखा जाए तो देश में दो तरह के युवा दिखते हैं। पहले आम जनता के बच्चे जो गली मोहल्ले के सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। स्कूलों की हालत भी उतना ही निंदनीय। कहीं स्कूलों में छत नहीं तो कहीं स्कूलों में शिक्षक ही नहीं। दूसरी ओर वही शिक्षक जिनके परिवार मेहनत मज़दूरी कर शिक्षक की पढ़ाई पूरी करते हैं, डिग्री पूरी करते हैं और उन्हें नौकरी के लिए या तो भटकना पड़ता है या तो मजबूरन आंदोलन करते हुए सड़कों का सहारा लेना पड़ता है।
दूसरी ओर उन नेताओं के बच्चे सीधे हावर्ड, ऑक्सफोर्ड या किसी अंतर्राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी से पढ़ कर वापस लौटतें हैं। यहां लौट कर कभी कोई मंत्री बन जाते हैं, कभी कोई मंत्री या फिर किसी बड़े पोस्ट में एंट्री मार लेते हैं। इसमें दिलचस्प बात ये है कि यही नेता अक्सर मंच पर कहते हुए सुनाई देते हैं कि विदेशी प्रावधान से सावधान रहो, वेस्टन कल्चर भारत की संस्कृति को बिगाड़ रहा है, हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था पर गर्व करनी चाहिए। लेकिन जब बात अपने बच्चों के आती है तो उन्हें विदेश भेजा जाता है। सवाल ये है कि क्या यही बराबरी है? चलिए अब इसके कुछ उदाहरण भी देखते हैं।
बिहार में स्कूलों की दो अलग स्थिति
हाल ही में 15 सितंबर 2025 को एक खबर आई है कि बिहार सरकार ने 25000 मध्य विद्यालयों में 50000 स्मार्ट क्लासरूम बनाने का निर्णय लिया है। बिहार शिक्षा परियोजना परिषद ने टेंडर जारी कर दिया है और अक्टूबर से काम शुरू होगा। भागलपुर जिले के 200 से अधिक स्कूलों को इसका लाभ मिलेगा जिससे छात्रों को डिजिटल शिक्षा मिलेगी। स्मार्ट क्लासरूम में डिजिटल टीवी और कंप्यूटर सिस्टम जैसे उपकरण होंगे जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा। वहीं 14 सितंबर 2025 को ही आज तक के रिपोर्टिंग के अनुसार एक खबर की पता लगती है जहां बेतिया के मझौलिया प्रखंड के कथैया राजकीय प्राथमिक विद्यालय में भवन न होने के कारण बच्चों को बांसवाड़ी और आंगनबाड़ी केंद्र में पढ़ाई करनी पड़ रही है। 54 नामांकित छात्र और तीन शिक्षक गर्मी व असुविधा के बीच शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। अभिभावकों ने कई बार अधिकारियों से भवन की मांग की, लेकिन अब तक स्थिति जस की तस बनी हुई है। बिहार में चुनावी माहौल गर्म है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगातार नई-नई योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं। पर सवाल यह है कि क्या यह घोषणाएँ सचमुच ज़मीनी हक़ीक़त में बदल रही हैं? गांव-गांव के स्कूलों और अस्पतालों की हालत देखकर लगता है कि कागज़ पर बनी योजनाएँ ज़मीन पर उतरते-उतरते दम तोड़ देती हैं। चुनावी मंच से जो वादे किए जाते हैं, वे अक्सर जनता की रोज़मर्रा की तकलीफ़ों से मेल नहीं खाते।
अन्य जगहों पर स्कूलों बंद की प्रक्रिया और स्कूलों की स्थिति
दरअसल, देश में स्कूलों की स्थिति गंभीर और चिंताजनक होती जा रही है। शिक्षा को बुनियादी अधिकार माना जाता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि कई राज्यों से लगातार स्कूलों के बंद होने या जर्जर हालत में चलने की खबरें आती रही हैं।
उत्तर प्रदेश में तो सरकार ने स्कूलों के विलय की योजना शुरू की, लेकिन इस योजना को लेकर कई सवाल खड़े हो गए और मामला अदालत तक पहुंच गया। खबर लहरिया की रिपोर्ट बताती है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट को तक दखल देना पड़ा।
छत्तीसगढ़ से भी अक्सर ऐसी तस्वीरें सामने आती रही हैं, जहां बच्चे टूटी दीवारों और जर्जर कमरों में पढ़ने को मजबूर हैं। हालात इतने बदतर हो गए कि एक जगह गांव वालों ने खुद चंदा इकट्ठा कर स्कूल का निर्माण कराया।
Chhattisgarh Kanker: ग्रामीणों ने श्रमदान और चंदा कर बनाया नया स्कूल
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के सारनी दरवाजा गांव का हाल भी अलग नहीं है। वहां बच्चों तक किताबें तक नहीं पहुंच पाईं, और शिक्षा अधर में लटकी हुई है। खबर लहरिया की रिपोर्ट बताती है कि सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चे बिना किताबों के पढ़ने को मजबूर हैं।
स्कूलों की बदहाली की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। देश का युवा वर्ग और शिक्षक भी उतनी ही कठिनाइयों से जूझ रहे हैं। डिग्रियाँ हाथ में लिए नौजवान नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं और अपनी मांगों को लेकर लगातार सड़क पर उतरने को मजबूर हैं। बिहार से
लेकर दिल्ली, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश तक, युवाओं और शिक्षकों के आंदोलन तेज़ी से फैल रहे हैं। कहीं बेरोज़गारी का ग़ुस्सा है, तो कहीं शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर हो रही देरी का विरोध।
नेताओं के बच्चे कहां पढ़ते हैं?
मखतुब के खबर के अनुसार हाल ही में ज्योतिरदित्य सिंधिया के बेटे महाआर्यमन सिंधिया भी चर्चा में आए हैं। 29 साल के महाआर्यमन सिंधिया येल यूनिवर्सिटी से पढ़ाई कर के लौटे। उन्हें बिना किसी विरोध के मध्य प्रदेश एमपीसीए का अध्यक्ष चुना गया। दो हजार साल के इतिहस में ये सबसे अध्यक्ष युवा बने हैं। इनके अलावा निर्मला सीतारमन की बेटी नॉर्थवेस्ट यूनिवर्सिट, यूएसए से जर्नलिज़्म किया और आज ब्लूमबर्ग में काम कर रही है। शिवराज सिंह चौहान के बेटे कार्तिके ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेंसिल्वेनिया में एलएलएम किया है। राजनाथ सिंह के बड़े बेटे उत्तर प्रदेश से बीजेपी विधायक हैं और छोटे बेटे नीरज सिंह जिन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ लिड्स यूके से पीएचडी किया है वो भी बीजेपी युवा विंग से जुड़े हुए हैं। विदेश मंत्री एस जयशंकर के बेटे ध्रुव जयशंकर ने जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी यूएसए से सिक्यूरिटी एजुकेशन में मास्टर्स किया है और बेटी मेधा ने डेनिसन यूनिवर्सिटी यूएसए से फ़िल्म स्टडी की पढ़ाई की है। अमित शाह के बेटे जय शाह अपनी पढ़ाई पूरी कर के दिसंबर 2024 में आईसीसी के चेयर मेन बन गए। स्मृति ईरानी की बेटी शेनल ने जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी से लॉ किया है। गजेंद्र शेखावत की बेटी ने ओक़्सफर्ड यूनिवर्सिटी से लॉ किया है। अब बात ये आती है कि पढ़ाई करना कोई गलत बात नहीं है लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इनमें से कई नेता पश्चिमी प्रभाव और विदेशी प्रभाव की बात करते हैं। दूसरी ओर आम जनता के बच्चों की स्थिति कभी बच्चों से स्कूल की सफाई की खबर आती है तो कभी होस्टलों के खाने में कीड़े निकल आते हैं। तो सवाल ये है कि आख़िर इतनी गैर बराबरी क्यों?
पांच सालों में देश में 37 हजार स्कूल बंद
बता दें UDISET यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन’ है, (जो भारत सरकार द्वारा संचालित एक केंद्रीकृत डेटाबेस है। इसका उद्देश्य देशभर के स्कूलों से संबंधित जानकारी इकट्ठा करना और शिक्षा में सुधार व बेहतर योजना बनाने में मदद करना है।) के अनुसार पिछले पांच सालों में देश में 37 हजार से ज़्यादा स्कूलों में ताला लग चुका है। पिछले दस साल में 89,444 स्कूल बंद किए जा चुके हैं।
आज़ादी के बाद शिक्षा के महत्व को देखते हुए गांव-गांव में प्राइमरी स्कूल खोले गए थे। अब वर्तमान में डबल इंजन की सरकार के मौजदा में स्कूलों को धड़ाधड बंद किया जा रहा है। एक तरफ सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं और दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूल उतने ही बड़ी संख्या में ते से बढ़ रही है। इन प्राइवेट स्कूलों की फीस भर पाना गरीब लोगों के बस की बात नहीं है। जिस देश में 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर हो वो प्राइवेट स्कूल की फीस कैसे भरेंगे। अगर देखा जाए तो इसका एक कारण यह है कि गरीब के बच्चे ना पढ़े और बड़े-बड़े उद्योगों में काम कर सके।
भारत में शिक्षा की हालत पर जब नज़र डालते हैं, तो साफ़ दिखता है कि यह केवल स्कूलों या कॉलेजों की समस्या नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र की बुनियाद को हिला देने वाला संकट है। एक तरफ़ नेताओं के बच्चे विदेशी डिग्री लेकर सत्ता और बड़े पदों का स्थान प्राप्त कर लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ आम जनता के बच्चे टूटी छतों, बिना किताबों और अधूरी पढ़ाई के साथ जीवन की जद्दोजहद में झोंक दिए जाते हैं। सवाल यह नहीं है कि कौन विदेश पढ़ने गया, सवाल यह है कि क्यों आज़ादी के 77 साल बाद भी हमारे अपने सरकारी स्कूल और कॉलेज आम बच्चों को सम्मानजनक शिक्षा और रोज़गार की गारंटी नहीं दे पा रहे? अगर शिक्षा में यह गैर-बराबरी जारी रही, तो समाज में वर्गीय खाई और गहरी होगी। अब वक्त आ गया है कि चुनावी घोषणाओं से आगे बढ़कर सरकारें ज़मीन पर सच्चा बदलाव लाएं क्योंकि जिस देश की शिक्षा व्यवस्था खोखली हो, उसका भविष्य कभी मज़बूत नहीं हो सकता।
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