स्त्री अस्मिता से जुड़ा हर पक्ष अपने आप में महत्वपूर्ण है किन्तु पितृसत्तात्मक समाज की सोच इसे समझते हुए न समझने का नाटक करती है जिससे मनमानी जारी रह सके। इक्कीसवीं सदी के साइबर युग तक की निरंतर यात्रा में अपनों द्वारा अपने पर किए गए शारीरिक, मानसिक शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवमानना, अवहेलना आदि अत्याचारों को सहने के लिए स्त्रियों को हर राह, हर मोड़ पर अनुत्तरित प्रश्न मिले कि उसकी अस्मिता क्या है, वो क्यों समाज में दोयम दर्जे की मानी गई है। मौन रह कर त्याग करती रहे तो देवी मानी जाएगी लेकिन जहां अधिकारों की बात की तो देवत्व के सिंहासन से धरती पर पटक दी जाएगी, घरेलू हिंसा का शिकार होगी।
इलस्ट्रेशन – ज्योत्सना सिंह
लेखन – मीरा देवी, मैनेजिंग एडिटर (खबर लहरिया)
Independence Day 2024: जब हमारा देश अपनी स्वतंत्रता की 78वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है तब ऐसे में महिलाओं और हासिये पर खड़े लोगों की स्वतंत्रता पर बात करना बहुत जरूरी हो जाता है। 15 अगस्त 2024 के दिन स्वतंत्रता दिवस मनाने की थीम केंद्र सरकार ने ‘विकसित भारत’ रखा हुआ है। यहां पर सरकार की इस थीम का विश्लेषण करना जरूरी है क्योंकि हम जिस समय और स्थिति को रोज जीते और गुजरते हैं अगर उसमें चालाकी का रंग दिया जा रहा हो तो वह बात गले से नहीं उतरती है। स्वतंत्रता दिवस मनाने की थीम कुछ ऐसे ही महसूस करा रही है।
साल 2023- 24 की बात की जाए तो लोकल और नेशनल स्तर पर ऐसी ऐसी घटनाएं घटी जो कई पीढ़ियों तक भुलाई नहीं जा सकेंगी। आने वाली पीढ़ियां इस पीढ़ी से यह सवाल करेंगी कि जब इस तरह की घटनाएं हो रही थीं तब आप लोग क्या कर रहे थे, तब शायद आपके पास कोई जवाब नहीं होगा, सिर्फ पछताने के अलावा।
हर दिन महिलाओं के साथ हिंसा, क्रूरता, बलात्कार की खबरें
यूपी के हमीरपुर में अभी जनवरी 2024 से मार्च में तीन जघन्य हिंसा के अपराध सामने आए। ऐसे मामले की कहीं भी अपराधी को हत्यारा ही नहीं कहीं जा रहा क्योंकि वह अपना पौरुषत्व दिखा रहा था। अपनी सत्ता दिखा रहा था। वहीं कोई व्यक्ति किसी का साथ न मिल पाने से, हिंसा के खिलाफ लड़ते-लड़ते खुद प्रताड़ित हो जाने से खत्म हो गया, क्योंकि समाज ने कभी उसे उसकी सत्ता का इस्तेमाल ही नहीं करने दिया।
वो सत्ता जो किसी को उसके मौलिक अधिकार, गलत के खिलाफ आवाज़ उठाकर बिना भय लड़ने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, इत्यादि प्रदान करती है। इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें हमेशा इस सत्ता से दूर रखा गया है। उन्हें यह बताया ही नहीं गया कि ये सब वे अपनी ताकत के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। ये सब उनकी सत्ता है।
नाबालिगों के साथ बलात्कार के बाद पिता की हत्या
पहला मामला, 28 फरवरी 2024 हमीरपुर जिले के सिसोलर थाने का है। हमारी रिपोर्ट के अनुसार, सिसोलर थाने के अंतर्गत एक गाँव में दो चचेरी बहनों के साथ बलात्कार किया गया। समाज में इज्जत के भय से दोनों ने फांसी को गले लगा लिया या ये कहूं कि समाज ने उनकी हत्या कर दी। समाज की झूठी इज्जत व सत्ता की ताकत ने दो नाबालिगों की जान ले ली। उनका यौवन, उनकी ज़िन्दगी जीने से पहले ही छीन ली। इससे पहले कि वो अपने लिए इंसाफ की मांग कर पातें। अपनी सत्ता का इस्तेमाल कर आवाज़ उठा पातें, आवाज़ ही मिटा दी गई। मृत नाबालिगों में से एक के पिता ने डर और धमकी की वजह से 6 मार्च 2024 को जंगल में जाकर फांसी लगा ली। उनकी भी हत्या कर दी गई।
मौत नहीं ‘हत्या’, सेक्स नहीं ‘मैरिटल रेप’
दूसरा मामला, 10 फरवरी 2024 यूपी के हमीरपुर जिले का है। शादी की पहली रात पर कथित पति अपने पुरुष होने की सत्ता का इस्तेमाल करते हुए सुहागरात के नाम पर मर्दानगी बढ़ाने वाली गोली खाता है। क्रूरता व अमानवीयता के साथ अपनी पत्नी के साथ हिंसक तरह से संभोग करता है, क्योंकि यह उसकी सत्ता के अधीन है जो समाज ने दी है, जिसका एक कारण उसका ‘लिंग’ भी है।
पत्नी ने इस दौरान अपनी सत्ता का इस्तेमाल करते हुए कई बार “मना” भी किया लेकिन कथित पति और हिंसात्मक होता रहा। उसे शारीरिक व मानसिक तौर पर वह चोटें दी जिससे उसकी जान पर खतरा हो सकता था, अतः वही हुआ। महिला को इसके बाद अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा और अंत में कथित पति की इस क्रूरता ने महिला की जान ले ली। उसकी हत्या कर दी।
पति द्वारा की गई शारीरिक व यौनिक हिंसा का मुकदमा पत्नी पर
यह तीसरा मामला 26 जनवरी 2024, रात तकरीबन 8 बजे हमीरपुर जिले के एक गांव का है। एक दिन प्रताड़ना व शारीरिक हिंसा से परेशान होकर पत्नी ने कथित पति का प्राइवेट पार्ट दांत से काट दिया। अपनी सत्ता व अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपनी सुरक्षा के लिए हौसला दिखाया।
वह शिकायत के लिए चौकी भी गईं। वह घर नहीं जा रही थीं कि उन्हें डर था कि कथित पति उन्हें जान से मार देगा। वहीं चौकीदार ने उन्हें समझा-बुझाकर घर भेज दिया। यहां चौकीदार के पास इतनी ताकत व सत्ता थी कि वह महिला के लिए सुरक्षा का इंतज़ाम कर सकते थे, लेकिन उस सत्ता का इस्तेमाल यहां मामले को दबाने के लिए किया गया। इसके बाद जब महिला घर आईं तो उनके साथ कथित पति दोबारा ज़बरदस्ती करते हुए वही हरकत करता रहा। पुलिस ने उल्टे महिला के ऊपर ही मुकदमा लिख दिया।
ये कौन-सी दुनिया में जी रहें हम, जहां एक महिला के शरीर को हिंसा, सत्ता के आधिपत्य या भोग के अलावा देखा ही नहीं जाता। महिला आवाज़ उठा दे तो समाज की सत्ता घबरा जाती है फिर वह उसे अपनी दकियानूसी इज्जत में बांध धीरे-धीरे मारती है या खुदखुशी का नाम लगा उसकी हत्या कर देती है। समाज में जन्मी और पली-बड़ी ये सत्ता जो पितृसत्ता तो कभी पौरुषत्व के नाम पर अपना दम दिखाती है और फिर उस पर ऐंठती भी है। इस सामाजिक सत्ता की दुनिया में कहां है कानून का राग अलापने वाले कर्ता-धर्ता? हिंसा को खत्म करने की बड़ी बातें करने वाले लोग? इस देश में क्या महिलाओं के सौभाग्य में बस प्रताड़ना, हिंसा व मौत लिखी गई है?
आइए कुछ मुद्दों की तरफ आपको ले चलती हूं जो देश को शर्मशार और बेबस महसूस कराने वाले रहे हैं।
मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ हिंसा:
मणिपुर में मई 2023 में कुकी और मैतेई समुदाय के बीच इतना मामला बढ़ गया कि हजारों की संख्या में जान माल का नुकसान हुआ। इस मामले पर सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं हुईं। वहां की दो महिलाओं के साथ खुले आम दिन दहाड़े यौनिक उत्पीड़न किया गया। उनको निर्वस्त्र करके उनके साथ क्रूरता की हद पार की गई। हमारा देश समेत दुनिया भर के लोग अपना गुस्सा जताते रहे लेकिन महिलाओं की सुरक्षा के ठेकेदार, जिम्मेदार और चौकीदार बने प्राणियों के मुंह टेप चिपका हुआ था। वह सोच समझ कर बोलने और आपदा में अवसर ढूढने में व्यस्त रहे।
मानवता को शर्मसार कर देने वाली तस्वीरें आज भी दिल को झकझोर कर रख देती हैं। अभी भी वहां के हालत कुछ ठीक नहीं हैं। इस मामले को लेकर केंद्र सरकार से बहुत उम्मीदें थीं कि वह कुछ कार्यवाही तो करेगा लेकिन देश के प्रधानमंत्री ने मुंह तक नहीं खोला और चुप्पी साध ली। संसद में बहस का यह मुद्दा नहीं बन पाया। हां राजनैतिक रोटियां जरूर सेंकी गईं क्योंकि विपक्ष के लिए एक मुद्दा मिल गया था सरकार को घेरने के लिए लेकिन क्या हुआ? कुछ दिन बाद सब भूल गए सब नार्मल सा हो गया। ऐसा लगता है कि वहां कुछ हुआ ही नहीं।
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महिला पहलवानों की अस्मिता से खिलवाड़
कई प्रतिष्ठित महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती महासंघ प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ काफी कड़ा विरोध प्रदर्शन किया। बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगाया गया। इस दौरान उनकी मांग थी कि बृजभूषण को उनके पद से बर्खास्त कर दिया जाए और मामले की जांच हो। यह मामला करीब सात आठ महीने चलता रहा। महिला पहलवानों में कुश्ती से सन्यास तक ले लिया लेकिन उनके हिसाब से संतोषजनक कार्यवाही नहीं हुई।
चलिए आपको राजस्थान की तरफ ले चलती हूं। वैसे तो महिलाओं के साथ हर रोज हर समय वारदातें होती रहती हैं। इन मामलों को मीडिया की ज्यादा कवरेज नहीं मिली। 9 और 12 साल की लड़कियों के साथ रेप, आग में झोंकने और लास को 10 टुकड़ों में काटने के वारदात सामने आए।
ये तो सिर्फ कुछ नाममात्र के उदाहरण हैं। महिलाओं के इन आंकड़ों को बताने के लिए एनसीआरबी समेत कई एजेंसियां हैं लेकिन फर्क क्या पड़ता है, जीरो। साल दर साल इन आंकड़ों को निकालकर एजेंसियां अपनी कार्यशैली की वाहवाही कमा लेती हैं। आंकड़ों में बार बार उत्तर प्रदेश टॉप नंबर वन पर होता है।
हमारी सरकारों का कहना है कि वह महिलाओं के लिए 24 घंटे काम करती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं को लेकर सरकार ने काम न किया हो। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर महिलाओं के आत्म सम्मान और सुरक्षा को लेकर कई तरह की योजनाएं बनाई गई हैं। स्लोगन और नारे लिखे गए हैं। कानूनों को सख्त बनाया गया है और नए कानून भी बनाए गए हैं। इनका असर महिला हिंसा को रोक पाने में कितना रहा है, यह अब भी सवाल बना हुआ है।
आजादी के 77 साल बाद भी सभी सरकारों ने महिला सशक्तिकरण के लिए सराहनीय कार्य का दंभ भरा हो लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। आम महिलाएं अपने अधिकारों या बराबरी से कोसों दूर हैं। महिला उत्थान के लिए भले ही सैंकड़ों योजनाएं तैयार की गई हों, परंतु महिला वर्ग में शिक्षा व जागरूकता की कमी आज भी सच्चाई है। चूल्हे चौके से निकल कर कामकाजी महिलों की हालत और बदतर है, अधिकांश महिलाएँ दो शिफ्ट में काम कर रही एक घर के बाहर एक घर के अंदर। भारत में आदिवासी समुदाय , अल्पसंख्यक समाज की महिलाएं अपने अधिकारों से बेखबर हैं और उनका जीवन आज भी एक त्रासदी की तरह है।
अगर हम आज भी अखबारों की सुर्खियों या खबरें देखें तो एक तिहाई खबरें महिलाओं पर अत्याचार सम्बंधित होती हैं, टी.वी पर तो सारी घटनाओं को स्थान भी नहीं मिल पाता। इन घटनाओं पर कभी-कभार एक आध हफ्ते शोर भी होता है, लोग विरोध प्रकट करते हैं, पर अपराध कम होने का नाम ही नहीं लेते, आखिर क्यों? हम देख रहे हैं कि आम नागरिकों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर कोई बहुत आक्रोश या इस स्थिति में बदलाव की चाहत भी नहीं है। वे स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं। तब इस समस्या का समाधान कैसे सम्भव है ?
स्त्री अस्मिता से जुड़ा हर पक्ष अपने आप में महत्वपूर्ण है किन्तु पितृसत्तात्मक समाज की सोच इसे समझते हुए न समझने का नाटक करती है जिससे मनमानी जारी रह सके। इक्कीसवीं सदी के साइबर युग तक की निरंतर यात्रा में अपनों द्वारा अपने पर किए गए शारीरिक, मानसिक शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार, अवमानना, अवहेलना आदि अत्याचारों को सहने के लिए स्त्रियों को हर राह, हर मोड़ पर अनुत्तरित प्रश्न मिले कि उसकी अस्मिता क्या है, वो क्यों समाज में दोयम दर्जे की मानी गई है। मौन रह कर त्याग करती रहे तो देवी मानी जाएगी लेकिन जहां अधिकारों की बात की तो देवत्व के सिंहासन से धरती पर पटक दी जाएगी, घरेलू हिंसा का शिकार होगी।
ऐसे दिवसों की सार्थकता तभी साबित हो सकती है जब विश्वव्यापी समाज स्त्रियों के प्रति अपनी मानसिकता में बदलाव लाने का प्रयास करेगा।
आजाद भारत की आजाद हवाओं में सांस ले रही हैं महिलाएं, अपने रास्ते खुद तलाश रही हैं महिलाएं लेकिन उनकी असली आजादी का अर्थ क्या है? क्या शानदार करियर बना लेना आजादी है? क्योंकि करियर ग्रोथ उनकी सबसे बड़ी चिंता है। तो क्या जिंदगी अपने हिसाब से जीना उनके लिए आजादी है? क्योंकि अपने अस्तित्व और स्वाभिमान से समझौता करना उन्हें भाता नहीं। क्या उन पैमानों का टूटना आजादी है जिन पर हर वक्त पर उन्हें मापा जाता है और तय किया जाता है कि कितनी खरी हैं वे? कितनी है आजादी उन्हें अपने फैसले लेने की? कितना है गर्व उन्हें अपने महिला होने पर? यह सब सवाल उनकी असली आजादी को रेखांकित करते हैं। आजादी के इतने सालों बाद आज वे खुद को कितना आजाद महसूस करती हैं यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है…
स्वतंत्रता दिवस हमारे देश के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है, लेकिन क्या हमारे समाज में महिलाएं वास्तव में स्वतंत्र हैं? आजादी के 77 साल बाद भी, महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, और समाज में उनके अधिकारों की कमी जैसी कई चुनौतियों का सामना करती हैं।
महिलाओं की आजादी का अर्थ है उन्हें अपने जीवन को अपने तरीके से जीने की आजादी। लेकिन हमारे समाज में महिलाओं को अक्सर उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है। उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर नहीं मिलते हैं, और उन्हें समाज में समान अधिकार नहीं दिए जाते हैं।
लेकिन कुछ महिलाएं हैं जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी है और सफल हुई हैं। जैसे कि रानी लक्ष्मीबाई, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, या फिर कल्पना चावला, जिन्होंने अंतरिक्ष में पहुंचने का सपना पूरा किया था। साथ ही वाराणसी जिले के गाँव छित्तुपुर से 3 साल में 10 से ज्यादा पदक जीत चुकी राष्ट्रीय फुटबॉल खिलाड़ी, सुमन पटेल, घर की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के चलते अपनों सपनों को पूरा करने के लिए लंका सिगरा कैट रामनगर समेत और क्षेत्र में बैटरी वाला रिक्शा चलाती हैं | ये तो मात्र उदाहरण हर एक महिला हर क्षेत्र में आगे हैं इन संघर्षों के साथ।
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