चमड़े के जूते और चप्पलों का उत्पादन भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन फुटवियर एवं वस्तुओं को तैयार करने में लगे कारीगर पारंपरिक कौशल के संरक्षण और स्थानीय रोजगार के सृजन में बड़ा योगदान देते हैं।
चमड़े के जूते और चप्पल सदियों से भारत में रह रहे लोगों के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, जो महज फैशन से आगे बढ़कर अब विरासत और आम दिनचर्या का प्रतीक बन चुका है। ये फुटवियर आइटम अकसर कुशल कारीगरों द्वारा उनके हाथों से बनाया जाता है, और ये कारीगर इस चमड़े का उपयोग सिर्फ जूते बनाने में नहीं करते बल्कि बैग, टोपियां, बेल्ट, दस्ताने इत्यादि बनाने में भी इसी चमड़े का इस्तेमाल करते हैं।
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चमड़ा बना स्टेटस सिंबल-
अगर हम ग्रामीण इलाकों की बात करें, तो चमड़े के जूते का महत्त्व देश के लगभग हर आंतरिक क्षेत्र में भी देखने को मिल जाएगा। दशकों से ही चमड़े का जूता व्यक्ति की प्रतिष्ठा का प्रतीक (status symbol) तो रहा ही है, और लोग अपना पैसा, सत्ता, और रूतबा दिखाने के लिए भी हमेशा से लेदर के जूते, लेदर के बैग को हथियार बना कर उसका इस्तेमाल करते आए हैं।
सिर्फ यही नहीं, लेदर के जूते का सालों साल चलना भी ग्रामीण भारत में मौजूद लोगों के लिए एक उपयोगी वस्तु साबित हो चुका है। पहले के ज़माने में भी और आज भी लोग एक अच्छे चमड़े के जूते में पैसे निवेश करने में यकीन करते हैं। और करें भी क्यों न! चमड़ा, जो अपनी कठोरता, लचीलेपन और चमक के लिए जाना जाता है, अगर आप एक बार खरीद लें तो सालों साल फिर जूते खरीदने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। यहाँ तक कि पथरीले रास्ते से लेकर ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर एक चमड़े का जूता ही है, जो आपके पैरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता है।
सांस्कृतिक महत्व-
महोबा ज़िले के श्रीनगर गांव के रहने वाले रामदयाल बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में चमड़े का मेला (Leather festival) भी लगता है। उन्होंने बताया कि हाल ही में यूपी के कानपुर शहर में भी लेदर मेला लगा था जिसमें राज्य के 46 अलग अलग चमड़ा कारीगरों ने हिस्सा लिया था। हर कारीगर की कुछ अलग पहचान, एक अलग छाप जो दर्शकों और खरीदारों को भी हर बार लुभाती है।
वो आगे बताते हैं कि इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में चमड़े के जूतों के आधुनिक पैटर्न और डिज़ाइन देखने लायक होते हैं । और चमड़े के लोकल कारीगर भी इस तरह के मंचों पर अपनी कला का प्रदर्शन सही तरह से कर पाते हैं।
आजीविका से जुड़ाव-
चमड़े के जूते और चप्पलों का उत्पादन भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन फुटवियर एवं वस्तुओं को तैयार करने में लगे कारीगर पारंपरिक कौशल के संरक्षण और स्थानीय रोजगार के सृजन में बड़ा योगदान देते हैं।
हमने जब महोबा ज़िले के एक अनुभवी चमड़ा कारीगर से बात करी तो उन्होंने बताया कि वो पिछले 20 सालों से चमड़े के जूते बनाने का काम कर रहे हैं। वो हँसते हुए बताते हैं कि अब उनके हाथों की उँगलियाँ इतनी अनुभवी और लचीली हो चुकी हैं कि आँखें बंद करके भी वो जूते का एक नया डिज़ाइन तैयार कर सकते हैं।
हालाँकि ढलती उम्र के साथ अब उनकी ये बूढ़ी उँगलियाँ पहले जैसी जवान नहीं रहीं और नयी तकनीकों और नए कारीगरों ने उनका काम को थोड़ा धीमा कर दिया है। वो बताते हैं कि उन्हें चमड़ा लेने के लिए भी हमीरपुर जाना पड़ता है, साथ ही लोग भी अब बड़ी-बड़ी दुकानों से ही लेदर के जूते खरीदना पसंद करते हैं।
पर ध्यान देने वाली बात ये है कि इन लोकल और छोटे स्तर पर संचालित कारीगरों से चमड़े के जूते खरीदना न केवल समय-सम्मानित प्रथाओं की निरंतरता सुनिश्चित करता है बल्कि कुशल कारीगरों की आजीविका का भी समर्थन करता है।
पशुओं के लिए खतरा-
हालांकि चमड़े के जूते और चप्पलों का उपयोग करने से हम झिझकते तो नहीं हैं, लेकिन इसमें पशुओं से जुड़े एक महत्वपूर्ण पहलू पर बात करना भी ज़रूरी है। चमड़े को बनाने के लिए पशुओं की खाल का ही इस्तेमाल किया जाता है, जिसके चलते कई सालों से लेदर के उपयोग को लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाएं होती भी आई हैं। ऐसे में इसकी उपयोगिता के साथ साथ इससे जुड़े नकारात्मक पहलुओं के बारे में सोचना भी ज़रूरी है।
इस खबर की रिपोर्टिंग श्यामकली द्वारा की गई है।
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