नई दिल्ली भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में नागरिक अधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बड़े को मंगलवार यानी आज पुलिस सरेंडर करना है। सुप्रीम कोर्ट ने अबतक दोनों लोगों की गिरफ्तारी से राहत दे रखी थी, लेकिन पिछले हफ्ते सुनवाई के दौरान 14 अप्रैल तक उन्हें जेल अधिकारियों के सामने सरेंडर करने को कहा था। कोर्ट की मियाद आंबेडकर जयंती के दिन खत्म हो रही है, जिसके वजह से उन्हें अपनी गिरफ्तारी देनी होगी।
13 अप्रैल को आनंद तेलतुम्बड़े ने इसे लेकर देश के नाम एक खुला पत्र लिखा है, जिसका द वायर वेबसाइट ने हिन्दी में अनुवाद किया है।
आनंद तेलतुम्बड़े का कहना है मुझे पता है कि भाजपा-आरएसएस के गठबंधन और आज्ञाकारी मीडिया के इस उत्तेजित कोलाहल में यह पूरी तरह से गुम हो सकता है लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि आपसे बात करनी चाहिए क्योंकि मुझे नहीं पता कि अगला अवसर मिलेगा या नहीं।
अगस्त 2018 में जब पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट की फैकल्टी हाउसिंग कॉम्प्लेक्स में मेरे घर पर छापा मारा, मेरी पूरी दुनिया ही तितर-बितर हो गई। अपने बुरे से बुरे सपने में भी मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे साथ ये सब होगा। हालांकि मुझे ये पता था कि पुलिस मेरे लेक्चर को लेकर आयोजकों- खासकर विश्वविद्यालयों- से मेरे बारे में जांच-पड़ताल कर उन्हें डराती थी। मुझे लगा कि वे शायद मुझे मेरा भाई समझने की गलती कर रहे हैं, जो सालों पहले परिवार छोड़ गए थे।
आनंद तेलतुम्बड़े आगे लिखते हैं, जब मैं आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा रहा था, तो बीएसएनएल के एक अधिकारी ने खुद को मेरा प्रशंसक और शुभचिंतक बताते हुए फोन किया और मुझे सूचित किया कि मेरा फोन टैप किया जा रहा है।
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया लेकिन कुछ नहीं किया। मैंने अपना सिम भी नहीं बदला। मैं इन अनुचित दखलअंदाजी से परेशान था लेकिन खुद को तसल्ली देता था कि मैं पुलिस को समझा सकता हूं कि मैं एक ‘सामान्य’ व्यक्ति हूं और मेरे आचरण में अवैधता का कोई तत्व नहीं है। पुलिस ने आम तौर पर नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को नापसंद किया है क्योंकि वे पुलिस पर सवाल उठाते हैं। मैंने सोचा कि ये सब इस कारण से हो रहा है कि मैं उसी समुदाय से था।
लेकिन फिर मैंने खुद को दिलासा दिया कि वे पाएंगे कि मैं नौकरी में पूरा समय देने के कारण उस भूमिका (नागरिक अधिकार कार्यकर्ता) को नहीं निभा पा रहा हूं। लेकिन जब मुझे अपने संस्थान के निदेशक का सुबह का फोन आया, तो उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने परिसर में छापा मारा है और मुझे ढूंढ रही है, मैं कुछ सेकेंड के लिए अवाक रह गया।
मुझे कुछ घंटे पहले ही एक ऑफिशियल काम के लिए मुंबई आना पड़ा था और मेरी पत्नी पहले ही आ गई थीं। जब मुझे उन व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बारे में पता चला, जिनके घरों पर उस दिन छापा मारा गया था, तो मैं इस एहसास से हिल गया था कि मैं बहुत करीब आके गिरफ्तार होने से बच गया हूं। पुलिस को मेरे ठिकाने का पता था और वह मुझे तब भी गिरफ्तार कर सकती थी, लेकिन ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया ये उन्हें ही पता होगा।
उन्होंने सुरक्षा गार्ड से जबरन डुप्लीकेट चाबी ली और हमारे घर को भी खोल दिया, लेकिन सिर्फ इसकी वीडियोग्राफी की और इसे वापस लॉक कर दिया। हमारी कठिन परीक्षा की शुरुआत यहीं से हुई। वकीलों की सलाह पर मेरी पत्नी ने गोवा के लिए अगली उपलब्ध फ्लाइट ली और बिचोलिम पुलिस स्टेशन में इस कृत्य के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई कि पुलिस ने हमारी गैर-मौजूदगी में हमारा घर खोला था और अगर उन्होंने वहां कुछ भी प्लांट किया होगा तो हम जिम्मेदार नहीं होंगे।
मेरी पत्नी ने खुद ही फोन नंबर दिया ताकि पुलिस इसकी जांच कर सके। अजीब बात है कि पुलिस ने ‘माओवादी कहानी’ शुरू करने के तुरंत बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करना शुरू कर दिया था। यह स्पष्ट रूप से कृतज्ञ मीडिया की मदद से मेरे और गिरफ्तार किए गए अन्य लोगों के खिलाफ जनता में पूर्वाग्रह को उत्तेजित करना था। इस तरह के एक संवाददाता सम्मेलन में 31 अगस्त, 2018 को एक पुलिस अधिकारी ने गिरफ्तार किए जा चुके लोगों के कंप्यूटर से कथित तौर पर बरामद एक पत्र को मेरे खिलाफ सबूत के रूप में पढ़ा।
मेरे द्वारा एक शैक्षणिक सम्मेलन में भाग लेने की सूचना के साथ इस पत्र को बेढंग अंदाज में लिखा गया था, जो पेरिस के अमेरिकी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध था। शुरू में मैं इस पर हंसा, लेकिन इसके बाद मैंने इस अधिकारी के खिलाफ एक सिविल और आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर करने का फैसला किया और प्रक्रिया के अनुसार मंजूरी के लिए 5 सितंबर, 2018 को महाराष्ट्र सरकार को एक पत्र भेजा।
इस पत्र पर आज तक सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया है। हालांकि हाईकोर्ट द्वारा फटकार के बाद तब पुलिस के प्रेस कॉन्फ्रेंस पर रोक लगाई गई। इस पूरे मामले में आरएसएस की भूमिका छिपी नहीं थी। मेरे मराठी मित्रों ने मुझे बताया कि उनके एक कार्यकर्ता रमेश पतंगे ने, अप्रैल 2015 में आरएसएस मुखपत्र पांचजन्य में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने अरुंधति रॉय और गेल ओमवेट के साथ मुझे ‘मायावी अम्बेडकरवादी’ बताया था।
अपने खत में आनंद तेलतुम्बड़े आगे लिखते हैं, हिंदू पुराणों के अनुसार ‘मायावी’ उस राक्षस को कहते हैं जिसे खत्म किया जाना चाहिए। जब मुझे सुप्रीम कोर्ट के संरक्षण में होने के बावजूद पुणे पुलिस ने अवैध रूप से गिरफ्तार किया था, तब हिंदुत्व ब्रिगेड के एक साइबर-गिरोह ने मेरे विकीपीडिया पेज के साथ छेड़छाड़ की।
संघ परिवार के तथाकथित ‘नक्सली विशेषज्ञों’ के माध्यम से सभी प्रकार की झूठी अफवाहों के जरिये मीडिया ने हमला किया। चैनलों के खिलाफ और यहां तक कि इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन तक को भेजी गई मेरी शिकायत का कोई जवाब नहीं आया।
फिर अक्टूबर 2019 में पेगासस कहानी सामने आई। सरकार ने मेरे फोन पर एक बहुत ही खतरनाक इजरायली स्पाइवेयर डाला था। इसे लेकर थोड़ी देर मीडिया में उथल-पुथल जरूर हुई, लेकिन ये गंभीर मामला भी चैनलों से गायब हो गया।
मैं एक साधारण व्यक्ति हूं जो ईमानदारी से अपनी रोटी कमा रहा है और अपने लेखों के जरिये अपनी जानकारी से लोगों की हरसंभव मदद कर रहा है। पिछले पांच दशकों से इस कॉरपोरेट दुनिया में एक शिक्षक के रूप में, एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में और एक बुद्धिजीवी के रूप में इस देश की सेवा करने का मेरा बेदाग रिकॉर्ड है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुईं मेरी 30 से अधिक किताबों, कई पत्रों, लेखों, टिप्पणियों, कॉलम्स, साक्षात्कारों में कहीं भी मुझे हिंसा या किसी भी विध्वंसक आंदोलन का समर्थन करते हुए नहीं पाया जा सकता है। लेकिन अपने जीवन के इस अंतिम छोर पर मुझ पर यूएपीए के तहत जघन्य अपराधों के आरोप लगाए जा रहे हैं।
बिल्कुल, मेरे जैसा व्यक्ति सरकार और उसके अधीन मीडिया के उत्साही प्रोपेगेंडा का मुकाबला नहीं कर सकता है। मामले का विवरण पूरे इंटरनेट पर फैला हुआ है और किसी भी व्यक्ति के समझने के लिए पर्याप्त सामग्री है कि यह एक फूहड़ और आपराधिक छलरचना है। एआईएफआरटीई वेबसाइट पर एक सारांश नोट पढ़ा जा सकता है. आपकी सहूलियत के लिए मैं इसे यहां प्रस्तुत करूंगा।
मुझे 13 में से पांच पत्रों के आधार पर फंसाया गया है, जो पुलिस ने कथित तौर पर मामले में गिरफ्तार दो लोगों कंप्यूटरों से बरामद किए हैं। मेरे पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ। इस पत्र में भारत में एक सामान्य नाम ‘आनंद’ का उल्लेख है, लेकिन पुलिस ने बेझिझक मान लिया कि ये मैं ही हूं।
इन पत्रों को विशेषज्ञों और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश द्वारा भी खारिज कर दिया गया है, जो पूरे न्यायपालिका में एकमात्र जज थे जिन्होंने सबूतों की प्रकृति पर बात की, बावजूद इसके इसमें कुछ भी ऐसा नहीं लिखा था जो किसी सामान्य अपराध के दायरे में भी आता हो। लेकिन कठोर यूएपीए कानून के प्रावधानों का सहारा लेते हुए मुझे जेल में डाला जा रहा है। यूएपीए व्यक्ति को निस्सहाय बना देता है।
आनंद लिखते हैं कि आपकी समझ के लिए यहां पर केस का विवरण दिया जा रहा है:-
अचानक, एक पुलिस आपके घर पर आती है और बिना किसी वारंट के आपके घर में तोड़फोड़ करती है। अंत में, वे आपको गिरफ्तार करते हैं और आपको पुलिस लॉकअप में बंद करते हैं।
अदालत में वे कहेंगे कि xxx जगह में चोरी (या किसी अन्य शिकायत) मामले की जांच करते समय (भारत में किसी भी स्थान पर विकल्प) पुलिस ने yyy से एक पेन ड्राइव या एक कंप्यूटर (किसी भी नाम का विकल्प) बरामद किया जिसमें कुछ प्रतिबंधित संगठन के एक कथित सदस्य द्वारा लिखे कुछ पत्र मिले, जिसमें zzz का उल्लेख था जो पुलिस के अनुसार आपके अलावा कोई नहीं है।
वे आपको एक गहरी साजिश के हिस्से के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अचानक आप पाते हैं कि आपकी दुनिया उलट-पुलट हो गई, आपकी नौकरी चली गई है, परिवार टूट रहा है, मीडिया आपको बदनाम कर रहा है, जिसके बारे में आप कुछ नहीं कर सकते। पुलिस न्यायाधीशों को समझाने के लिए ‘सीलबंद लिफाफे’ में डिटेल देगी कि आपके खिलाफ एक प्रथमदृष्टया मामला है, जिसमें हिरासत में पूछताछ की जरूरत है।
कोई सबूत न होने के बारे में कोई तर्क नहीं दिया जाएगा क्योंकि न्यायाधीशों का जवाब होगा कि ट्रायल के दौरान इस पर ध्यान दिया जाएगा। हिरासत में पूछताछ के बाद, आपको जेल भेज दिया जाएगा। आप जमानत के लिए भीख मांगते हैं और अदालतें आपकी याचिका को खारिज कर देंगी जैसा कि ऐतिहासिक आंकड़े दिखाते हैं कि जमानत मिलने या बरी होने से पहले, कैद की औसत अवधि चार से 10 साल तक है।
और ऐसा ही हूबहू किसी के साथ भी हो सकता है। ‘राष्ट्र’ के नाम पर, ऐसे कठोर कानून जो निर्दोष लोगों को उनकी स्वतंत्रता और सभी संवैधानिक अधिकारों से वंचित करते हैं, संवैधानिक रूप से मान्य हैं। लोगों की असहमति को कुचलने और ध्रुवीकरण के लिए राजनीतिक वर्ग द्वारा कट्टरता और राष्ट्रवाद को हथियार बनाया गया है।
बड़े पैमाने पर उन्माद को बढ़ावा मिल रहा और शब्दों के अर्थ बदल दिए गए हैं, जहां राष्ट्र के विध्वंसक देशभक्त बन जाते हैं और लोगों की निस्वार्थ सेवा करने वाले देशद्रोही हो जाते हैं। आनंद तेलतुम्बड़े का कहना है जैसा कि मैं देख रहा हूं कि मेरा भारत बर्बाद हो रहा है, मैं आपको इस तरह के डारावने क्षण में एक उम्मीद के साथ लिख रहा हूं। खैर, मैं एनआईए की हिरासत में जाने वाला हूं और मुझे नहीं पता कि मैं आपसे कब बात कर पाऊंगा।
हालांकि, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे।