चरम सुख की कामना करते हुए मैंने अपने शरीर से देह की चादर को आहिस्ता से उतार दिया है। समाज मेरी कामना को देखते हुए मुझ पर व्यंग कस रहा है और मैंने उसी समाज की ज़बा को अब अपने दांतो तले दबा लिया है, आनंद की अनुभूति की तरह।
मुझसे मेरी वासना को कोई छीन नहीं सकता। मेरी वासना में संभोग, लालसा, मोह, चाहत, इच्छाएं, कामुकता किसी विशेष लिंग, व्यक्ति या देह से नहीं बल्कि प्रेम से है।
मेरा प्रेम, मेरी वासना, वासना से मेरे प्रेम का है। वह प्रेम जिसे हर कोई पाना तो चाहता है लेकिन उसकी वासना सिर्फ देह तक आकर सिमट जाती है। वह देह को प्रेम समझ बैठता है शायद इसलिए वासना को नहीं पा पाता।
माना प्रेम कुछ ओढ़ता नहीं तो इसका मतलब यह नहीं कि नग्न शरीर को पा लेना प्रेम है, वासना की तृप्ति है। यौनि को सिर्फ उसकी गहराई तक छू लेने को चरम सुख का एहसास होना नहीं कहा जा सकता जब तक उसे उसके दायरे से हटकर उसकी गहराई की परतों को हटाकर उसमें डूबा न जाए। उसे तुम में खुद को समा जाने का मौका न दिया जाए।
किसी को सिर्फ पाने की चाह से पा लेने की लालसा विलासिता को बांध देती है और मैं खुद को हर उस दायरे से निर्वस्त्र कर रही हूँ जिस पर कई पैबंध चढ़े हुए हैं।
वासना, मोक्ष है और शरीर बस एक ज़रिया।
दुनिया के बाज़ार में कहने को प्रेम व वासना के कई लोभी है जो सिर्फ शरीर के दायरों में बंध वासना को छूना चाहते हैं पर हर कोई जो खुद को प्रेमी कहता है, वासना को ललाहित रहता है उसे यह ज़रूरी नहीं कि यह सोचने पर ही उसे उसकी प्राप्ति हो जाए। कई बार मिल जाना भी दूर हो जाना होता है उससे जिस तक कहीं किसी रास्ते पहुंचा जा सकता था लेकिन क्योंकि वासना का दायरा सिर्फ शरीर तक था तो वह वहीं तक सिमट कर रह गया, तुम्हारे प्रेम की तरह।
कई बार लगता है मेरी वासना का संभोग से मिलन, इच्छाओं के बाज़ार में उतर जाने की तरह है। मैंने अब देह के ज़रिये को अपना लेने का सोचा है। अब जरिया ही मेरी वासना को चरम सुख की अनुभूति का स्पर्श करा सकता है बेशक मैंने उसकी चादर को उतार फेंका हो, तब भी।
मेरा शरीर भोगी है जिस पर चढ़ा मांस अब मुझे बांधता नहीं है। वह भोगी तो है लेकिन शरीर से ज़्यादा वह आत्मा की भूख को संतृप्त करने की चाह रखता है। अतः शरीर ही मेरी वासना का ज़रिया है। मेरे प्रेम की अनुभूति की रात की तरह।
काली चादरों से मिलनसार होती मेरी वासना शरीर का दरवाज़ा खटखटा ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रही है। वह यह दरवाज़ा कभी-भी खटखटाने लगती है, समाज की चांदनी में भी लेकिन क्योंकि जब शरीर ने नग्नता को जान ही लिया, जब दांतों ने समाज को भी वासना में डुबो ही दिया तो अब किसी आहटों का भय नहीं।
मैं किसी भी वक्त वासना भोगी होने को आतुर हो जाती हूँ। मेरी इस चाहत में सिर्फ मैं हूँ, मेरी विलासिता के साथ। मेरी आत्मा अब भोग की आस लगाए बैठे है। मैं अब संभोग के नए तरीकों को तलाश रही हूँ। मैं अब खुद को और सीमित नहीं रख सकती। मेरा लालच, मेरे शरीर को मुझे अपना लेने की अनुभूति का एहसास मुझे अब सिमटने नहीं देता। मैं एक ऐसे समुद्र में डूबे जा रही हूँ जहां मेरी आत्मा मुझसे, मेरे-उसके प्रेम से खुश होने का स्वांग रचा रही है।
शरीर को सिर्फ किसी को सौंप देने से चाहत का एहसास नहीं होता उतना जितना प्रेम के स्पर्श से छू जाने पर निकलने वाली आहहहह! में होता है। सिसकियां लेती आहटें मेरे शरीर को गुदगुदाहट से भर रही हैं। मैं खुद को अपनी आवाज़ों में खोता हुआ पा रही हूँ, मैं प्रेम को खुद में महसूस कर रही हूँ, मेरी वासना के साथ।
मैंने अपनी विलासिता को आत्मा से छुपे प्रेम को सौंप दिया है उसे नहीं जो सिर्फ शरीर का संभोग करता है। मेरी तृप्ति शरीर नहीं, शरीर पर चढ़े मांस के लिबास में छुअन नहीं होती। बौखलाहट नहीं होती जो मेरी आत्मा में होती है। देह की लालसा मुझे संतृप्त नहीं करती।
प्रेम, आत्मा को ऐसे छू रहा है जैसे आज तक उसे किसी ने नहीं छुआ। प्रेम का मेरी आत्मा को वासना से छू लेना मेरे देह की आज़ादी का रास्ता है जिस पर अब मेरे कदम हर घड़ी चलते हुए दिखाई देते हैं।
मेरे स्पर्श में कोई नजरिया, कोई आकार, कोई विचार कुछ नहीं है। मेरी विलासिता किसी आकार में नहीं है ठीक उस तरह से जिस तरह आत्मा का कोई आकार नहीं होता। वह बस शरीर ढूंढ़ती है ज़रिये की तरह जिस तरह मैं वासना में प्रेम को तलाशती हूँ।
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