वो कहते हैं न कि लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। कुछ ऐसा ही जीवन रहा है चित्रकूट ज़िले के खांच गाँव की रहने वाली मीरा भारती का। मीरा के जीवन का संघर्ष छोटी सी ही उम्र से शुरू हो गया था जब उन्हें शादी के बंधन में बाँध दिया गया था। लेकिन उन्होंने अपने भविष्य की लकीरें भी खुद ही लिखीं और ससुराल वालों की प्रताड़ना को पीछे छोड़ उन्होंने वापस अपने घर आकर अपनी पढ़ाई पूरी करने की ठानी। मीरा के एक मामूली अल्पसंख्यक लड़की से आज जिला पंचायत सदस्य बनने के इस सफर पर पेश है हमारी ये ख़ास है पेशकश।
मीरा ने राजनीति में तो पाँव जमा ही लिए हैं लेकिन इसके साथ ही वो घर के कामों में भी अपने पूरा योगदान देती हैं। तो चलिए उनकी दिनचर्या पर एक नज़र डालते हैं। सफ़ेद पोशाक उसपर कोटी डाले दिखती है, आँख पर चश्मे, तगड़ी चाल में वो गाँव-गाँव फिरती है। है होनहार, थोड़ा अलग है अवतार, इनकी जुबान ही है इनका हथियार और अपनी बातों से दुशमनों के चढ़ा देती हैं बुखार।
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आज मीरा भले ही जिस मुकाम पर खड़ीं हों लेकिन गाँव में रहने वाली हर बच्ची की तरह मीरा का भी जीवन संघर्ष भरा है और उन्हें समय-समय पर अपने हक़ के लिए समाज से जंग लड़नी पड़ी।
मीरा महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए सरकार के सामने भी दीवार बनकर खड़ी हो गयीं, जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी। इन सभी चुनौतियों का मीरा ने डट कर सामना किया और आज मीरा हर उस अल्पसंख्यक, दलित समुदाय की आवाज़ बन चुकी हैं जो स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी अपने मूल अधिकारों से वंचित हैं।
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