अलाव पहले भी जलते थे और अब भी, फर्क केवल इतना बचा है कि अब गाँव के नुक्कड़ पर नहीं, अपने दरवाजे पर आग जलाकर ताप लेते हैं। पहले मोबाइल टीवी नहीं था, तब इन अलावों के आस-पास खूब भीड़ रहती थी, अब तो सब रजाई में बैठकर फोन चलाते रहते हैं, किसको फुर्सत है दादी-नानी की कहानी सुनने की।
यही मौका होता था जब गांव के लोग आपस में सुख-दुःख बांटते थे और फिर सब एक दूसरे की मदद करते थे। लगभग 75 वर्षीय सिया ठंड से कांपते हुए कहती हैं कि अब किसी को किसी की चिंता नहीं है। अब किसी के द्वार पर जल्दी अलाव नहीं जलते, कहीं जलते भी हैं तो कोई चाहता नहीं की कोई दूसरा उनके द्वार पर आकर बैठे। मतलब अब वह भाईचारा खत्म हो रहा है।
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तो सुना आपने, प्रेम में भी इस तरह परिवर्तन हो गया है कि लोग एक-दूसरे के पास नहीं बैठते। बदलते समय और बढ़ती टेक्नोलॉजी का परिवर्तन हो या जो भी पर पुरानी यादें, ज्यादा अच्छी थी। आज के युवाओं को इसे बदलने की ज़रूरत है कि यह आपसी भाईचारा बना के रखें ताकि बुजुर्ग भी उन अच्छे दिनों को वापस से जी सके और आपके द्वार पर भी भाईचारा और प्रेम की गूंज सुनाई देती रहे।
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