किसान आज खाद की बोरी के लिए घंटो-घंटो लंबी क़तार में खड़े हैं। खाद,बीज के लिए सरकारी गोदामों और दफ़्तरों का चक्कर लगा रहे हैं और अपनी ही ज़मीन से न चाहते हुए बेदखल किए जा रहे हैं या फिर कर्ज में दबे जा रहे हैं। आज जब बिहार, यूपी पंजाब और पूरे देश से किसानों की पीड़ा की खबरें आती हैं तो सवाल यह उठता है कि आख़िर वह देश जो किसानों को अन्नदाता कहता है उनके लिए इतना निर्दयी क्यों है?
भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। यहां की आधी से ज़्यादा आबादी खेती पर निर्भर हैं। किसान वह हैं जो धरती का सीना चीरकर अन्न उगाता है और सभी के लिए रोटी पैदा करता है। लेकिन विडंबना देखिए वही किसान आज खाद की बोरी के लिए घंटो-घंटो लंबी क़तार में खड़े हैं। खाद,बीज के लिए सरकारी गोदामों और दफ़्तरों का चक्कर लगा रहे हैं और अपनी ही ज़मीन से न चाहते हुए बेदखल किए जा रहे हैं या फिर कर्ज में दबे जा रहे हैं। आज जब बिहार, यूपी पंजाब और पूरे देश से किसानों की पीड़ा की खबरें आती हैं तो सवाल यह उठता है कि आख़िर वह देश जो किसानों को अन्नदाता कहता है उनके लिए इतना निर्दयी क्यों है? बात यहीं खत्म नहीं होती किसान इतनी मुश्किलों का सामना कर रहे है कि कभी खाद की लाइन, कभी बाढ़ या सूखे से बर्बाद हुई फसल इस तरह की समस्याओं से घिरे हुए हैं और समाधान शून्य।
हाल ही में बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों से आई तस्वीर और वीडियो इस हक़ीकत को और भी गहरा कर देती है। धूप में खड़े किसान, हाथ में कूपन लेकिन खाद का थैला खाली। कोई बुजुर्ग किसान कह रहा है कि वह रात भर लाइन में खड़ा रहा लेकिन सुबह तक नंबर नहीं आया। कई महिला किसान बता रही है कि बिना खाद के धान की बुआई कैसे होगी। यही तस्वीरें याद दिलाती हैं भारत में किसान होना आज भी संघर्ष से भरा है।
किसानों की कहानी उन्हीं की ज़ुबानी
खबर लहरिया ने हाल ही में बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में कुछ किसानों से बातचीत किया। रिपोर्टिंग में किसानों की आखों की थकान और आवाज की बेबसी साफ झलकती है। यहीं से ये भी सामने आया कि किसान सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक संकट में ही नहीं फंसे हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण भी समस्याओं से भुगत रहे हैं। गांव झांसी में खाद के लिए सरकारी दफ़्तर के सामने किसान लंबी लाइन में लगे हुए थे। रामबाबू खड़े-खड़े थके स्वर में बताते हैं कि “हम खेतों में अनाज पैदा करते हैं लेकिन अपने खेती के खाद के लिए घंटों लाइन में खड़े रहते हैं। कई बार तो देर रात हो जाती है।” उनकी आंखों में नींद नहीं बेबसी थी। ऐसी ही एक खबर बांदा और फ़तेहपुर से भी आई जिसमें किसान सुनील बताते हुए कहते हैं कि “सरकार कहती है कि किसानों के लिए योजना है लेकिन जब जरुरत होती है तो कुछ नहीं मिलता।” कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि समय पर खाद न मिले तो पूरी फसल प्रभावित हो सकती है। यानी किसान सिर्फ कतार में नहीं खड़ा बल्कि उसकी पूरी मेहनत अधर में लटकी रहती है।
योजनाएं और जमीनी सच्चाई दोनों ही अलग
अगर बात करे प्रशासन की तो सरकार बार-बार वादा करती है कि किसानों की आय दोगुनी होगी, नई तकनीक आएगी, बीमा योजना से सुरक्षा मिलेगी। लेकिन ये सब वादें फाइलों में बंद हो जाते हैं। जब ज़मीन में जाकर देखो तो कहानी कुछ और ही रहती है। फतेहपुर की महिला किसान सुनीता ने बताया कि “बीमा की रकम मिलती ही नहीं। बैंक वाले दौड़ाते हैं और अफसर सुनते नहीं। फसल बर्बाद हो जाए तो किसान मर जाए। किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता।” कई जगह किसानों ने बताया कि फसल बीमा योजना का पैसा महीनों तक अटका रहता है। जब तक मदद पहुँचती है तब तक किसान नया कर्ज लेने पर मजबूर हो जाते हैं।
किसान जलवायु परिवर्तन की दोहरी मार भी झेल रहे हैं।
जब पर्यावरण बिगड़ता है तब सबसे पहले और सबसे ज़्यादा असर किसानों पर होता है। इस साल भारी बारिश और बाढ़ ने देश के कई राज्यों में तबाही मचा दी है। जिसका एक कारण है जलवायु परिवर्तन। बे मौसम बारिश, कहीं बादल फटना कहीं भूस्खलन, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा। ये सारी परेशानियों का जड़ है जलवायु परिवर्तन जिसका सबसे घातक मार किसानों को पड़ता है। खाद, बीमा जैसे कई मुसीबतों का तो सामना करना पड़ ही रहा है लेकिन जलवायु परिवर्तन दोहरा होता है। किसानों को ये पता होता है कि कब खेती करना है, किस मौसम में बारिश होती है, कब सूखा होगा, कब खेतों को क्या जरुरत है।
Prayagraj news : यमुना बाढ़ से फसल तबाह, किसानों को मुआवजा नहीं मिला
ऐसी सभी जानकारी उन्हें होती है और वे उसके ही हिसाब से अपना हर मौसम के लिए तैयारी रखते हैं। लेकिन कुछ सालों से मौसम ने अपना दिनचरिया बदल लिया है। कभी भी बारिश अचानक बाढ़ और जब जरुरत हो तो ज़मीन सूखा पड़ा होता है। इसका असर जलवायु परिवर्तन ही है। मौसम अब किसान का दोस्त नहीं रहा। यह सबसे बड़ा बदलाव है। चित्रकूट के किसान शिवकुमार बतलाते हैं कि “पिछले साल बारिश नहीं हुई, लेकिन इस साल इतनी बारिश हुई है कि पूरा खेत पानी में चला गया। खेती करना अब भगवान भरोसे हो गया है।
यह हाल सिर्फ चित्रकूट और बुंदेलखंड तक सीमित नहीं रह गया है। बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में किसान यही कहते सुनाई देते हैं। कहीं बरसात के नाम पर आसमान सूखा रह जाता है तो कहीं अचानक बाढ़ आकर सब बहा ले जाती है। बांदा के राम लाल कहते हैं कि “हमारा इलाका सूखे से जूझ रहा है बोई हुई फसलें सूख गई है। कर्ज लेकर बीज डाला था। अब फसल ही नहीं हुई है तो लौटाएँगे कैसे” आज के दौर में किसानों को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ रही है।
ये भी एक बड़ा सवाल बन कर रह गया है कि अचानक जलवायु परिवर्तन का कारण क्या है। बता दें कारण हैं अनगिनत तरीके से हसदेव और भागलपुर जैसे इलाक़ों में भारी मात्रा में पेड़ काटना, एआई का नए तरीके से इस्तेमाल, बड़ी-बड़ी खदानों का निर्माण, ग्रामीण इलाक़ों को बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों में तब्दील करना, नई-नई फैक्टरियाँ आदि।
किसान की ज़िंदगी आकंडों से परे
किसान का संकट सिर्फ आर्थिक नहीं है यह सामाजिक और मानसिक भी है। कर्ज का बोझ उन्हें तोड़ देता है। प्राकृतिक आपदाएं उनके मेहनत मिटा देती हैं। सरकारी तंत्र की उदासीनता उसे अकेला कर देती है।
कर्जा किसानों के जीवन की कड़ी है। जब लागत बढ़ती है खाद, बीज, कीटनाशक, सिंचाई और फसल अच्छी नहीं होती या समय से दाम नहीं मिलते, तो किसानों के ऊपर साहूकारों और बैंकों का बोज़ बढ़ जाता है। सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से फसल बर्बाद हो जाती है, जिसके बाद किसान न तो लागत निकाल पाते हैं, न ही आशा बची रहती है। ऐसे ही हालातों में किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं।
NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के आँकड़ों के अनुसार 2022 में किसानों और कृषि शर्मिकों की आत्महत्या के मामलों की संख्या 11,290 थी जो कि 2021 कि तुलना में अधिक है। इन समूह में 5,207 किसान/कृषक और 6,083 कृषि मज़दूर शामिल थे। ये आँकडें 2022 की हैं उसके बाद से NCRB द्वारा आँकड़ा नहीं आया है तो ये भी चिंताजनक बात है कि अब तक न जाने और कितने ही किसानों ने आत्महत्या की होगी। ये आँकडें सिर्फ कच्चे नंबर नहीं हैं बल्कि टूटे हुए घरों अधूरी जिंदिगियों और उजड़े कल की कहानी है।
किसान आंदोलन करने को मजबूर, किसान आंदोलन बना बड़ा उदाहरण
भारत की खेती आज दोहरे संकट से गुजर रही है। एक ओर किसान खाद, बीज और डीज़ल जैसी बुनियादी ज़रूरतों की बढ़ती कीमतों से जूझ रहे हैं, तो दूसरी ओर बाढ़, सूखा और प्राकृतिक आपदाओं के समय उन्हें सरकार से बहुत कम मदद मिलती है। यही वजह है कि किसान कर्ज़ के बोझ तले दबते जाते हैं। जब हालात असहनीय हो जाते हैं, तो उनके पास सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता। इन कठिनाइयों का सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब और हरियाणा का किसान आंदोलन है, जिसने पूरे देश ही नहीं, पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। पंजाब और हरियाणा का किसान आंदोलन पूरे देश के किसानों की आवाज़ बना। खाद, बीज की महँगाई, बाढ़-सूखा और कर्ज़ के बोझ ने किसानों को सड़क पर उतरने को मजबूर किया। साल 2020 में दिल्ली की सीमाओं पर किसानों ने एक साल तक आंदोलन किया और आखिरकार तीनों कृषि क़ानून वापस करवाए। लेकिन उनकी असली माँग MSP की कानूनी गारंटी और कर्ज़माफी आज भी पूरी नहीं हुई है।
पंजाब-हरियाणा का किसान आंदोलन दरअसल पूरे भारत के किसानों की आवाज़ है। बिहार में किसान खाद और बीज के लिए लंबी-लंबी लाइनों में खड़े हैं, तो महाराष्ट्र और विदर्भ में कर्ज़ के बोझ से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हर राज्य में पीड़ा अलग-अलग दिखती है, लेकिन समस्या की जड़ एक ही है किसान को अपनी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिल रहा। इसका असली उदाहरण यूपी और बिहार के किसानों की है जो अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिए कई-कई दिनों तक लाइनों में लगे दिखते हैं।
यही देश है जहाँ किसान अपने खेतों में खून-पसीना बहाकर अनाज उगाते हैं और पूरी दुनिया को दिखाते हैं कि मेहनत से धरती पर सोना भी उपज सकता है। लेकिन आज का सच इस छवि से बिल्कुल उलट है। किसान खुद ही अपनी खेती को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है कभी खाद की लाइन में खड़ा होकर, कभी सूखे या बाढ़ से जूझकर और कभी सड़कों पर बैठकर।
यह कहानी सिर्फ़ किसानों की नहीं है, उस देश की है जहाँ खेती आज भी सबसे बड़ा रोज़गार है। फिर भी, वही किसान सबसे ज़्यादा संकट में है। भारत को अगर सच में कृषि प्रधान देश बनाए रखना है तो सिर्फ नारे और योजनाएं काफी नहीं हो सकती। किसानों को समय पर खाद, बीज और फसल का उचित दाम मिलना चाहिए। कर्ज से राहत और जलवायु संकट से सुरक्षा मिलनी चाहिए। किसान सिर्फ अन्नदाता नहीं है वो देश की रीढ़ हैं और अगर रीढ़ टूटेगी तो पूरा देश कमजोर हो जाएगा।
यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’
If you want to support our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our premium product KL Hatk