खबर लहरिया Blog Deepthi Jeevanji: बौद्धिक विकलांगता, समाज की सोच को हरा भारत को दिया ब्रॉन्ज़, पढ़ें संघर्ष व साथ की लड़ाई | Paris Paralympics Games 2024

Deepthi Jeevanji: बौद्धिक विकलांगता, समाज की सोच को हरा भारत को दिया ब्रॉन्ज़, पढ़ें संघर्ष व साथ की लड़ाई | Paris Paralympics Games 2024

दीप्ति के गर्वित पिता ने कहा,”दीप्ति ने अपने पैरा एशियाई खेलों के नकद पुरस्कार से पुराने घर को नया बनवाया। लेकिन फिर भी वह जो भी हासिल करती है, वह उसका पुरस्कार है। मैं शायद ही कभी काम से एक दिन की छुट्टी लेता हूँ। लेकिन यह पैरालंपिक पदक हमारे जीवन का सबसे बड़ा क्षण है और काम के लिए एक दिन तक इंतजार किया जा सकता है।”

Deepthi Jeevanji with intellectual disability won bronze for India in Para Olympics, know her story

20 वर्षीय दीप्ति जीवनजी, पेरिस पैरालिंपिक 2024 में महिलाओं की 400 मीटर टी20 में जीते हुए ब्रॉन्ज़ मेडल के साथ ( फोटो साभार – Reuters)

Paris Paralympics Games 2024: पेरिस पैरालंपिक के खिलाड़ियों ने समाज को बता दिया कि उनकी पहचान,उनकी विकलांगता जोकि मानव विविधता का हिस्सा है, वह हर पड़ाव, हर चुनौती के साथ क्या कुछ नहीं कर सकते। वह समाज जिसने कभी उनकी पहचान का साथ नहीं दिया, आज वह समाज भी उनकी जीत पर अपना गौरव दिखा रहा है। वह गौरव जो उन्होंने संघर्ष से पाए साथ के बाद जीता है।

तेलंगाना राज्य के छोटे से गांव से आने वाली 20 वर्षीय दीप्ति जीवनजी (Deepthi Jeevanji) ने पेरिस पैरालंपिक 2024 में महिलाओं की 400 मीटर टी20 फाइनल में 55.82 सेकंड में दौड़ पूरी कर भारत के लिए कांस्य पदक जीता।

दीप्ति को बौद्धिक विकलांगता (intellectual disability) है और वह इसी के साथ पैदा हुई थी। इसमें व्यक्ति को संज्ञानात्मक कामकाज और कौशल में कुछ सीमाएं होती हैं, जिसमें वैचारिक, सामाजिक और व्यावहारिक कौशल, जैसे भाषा, सामाजिक और आत्म-देखभाल इत्यादि चीज़ें शामिल हैं। इन सब चीज़ों के साथ लड़ते हुए दीप्ति ने पैरालंपिक में अपनी जगह बनाई।

दीप्ति व उसके परिवार के जज़्बे व हिम्मत की कहानी वारंगल जिले के एक छोटे से गांव कालेडा (Kalleda) से शुरू होती है। जिस दिन दीप्ति ने कांस्य पदक जीता, पिता जीवनजी यादगिरी जोकि एक मज़दूर है उन्होंने उस दिन पाइप बनाने का काम पूरा कर उसकी डिलीवरी दूसरे गांव में की थी। लेकिन उनका दिल स्टेड डी फ़्रांस में ही था जहां उनकी बेटी दौड़ लगा रही थी। वह अपनी बेटी का मैच देखने में चूकना नहीं चाहते लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति उन्हें एक दिन का काम छोड़ने की भी इज़ाज़त नहीं देती। उन्होंने उस दिन भी अपना काम पूरा किया।

ट्रक ड्राइवर का काम करने वाले पिता बार-बार अपनी पत्नी धनलक्ष्मी जीवनजी को फोन करके पूछते कि मैच शुरू होने में कितना समय बाकी है। जब दीप्ति ने मेडल जीता तो उनकी आंखे नम और दिल भावुक था। यह भावना सुखद थी। लेकिन जब दीप्ति के बीते जीवन को देखें तो समाज ने कभी उन्हें यह महसूस ही नहीं करने दिया।

इंडियन एक्सप्रेस से की बातचीत में पिता जीवनजी ने कहा,“भले ही यह हम सभी के लिए एक बड़ा दिन है लेकिन मैं काम छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकता। यही मेरी रोज़ी-रोटी है। पूरे दिन मैं दीप्ति के पेरिस में पदक जीतने के बारे में सोच रहा था।”

27 सितंबर, 2003 का दिन था जब गांव की डिस्पेंसरी में दीप्ति का जन्म हुआ। सिर छोटा था, चेहरे पर वह विशेषताएं थी जिसे हर कोई नहीं पढ़ सकता था, होंठ के हिस्से ने कोण की भांति दूरी बना रखी थी और नाक ने स्वयं का कोई आकार चुन रखा था।

दीप्ति की माँ उसके जन्म के समय को याद करती हैं और कहती हैं, “जब दीप्ति का जन्म हुआ, तो गाँव वालों और हमारे कुछ रिश्तेदारों ने उसके लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया और उनमें से कई ने जोर देकर कहा कि हम उसे एक अनाथालय में दे दें। जैसे-जैसे वह बड़ी हुई, वह शारीरिक काम के मामले में बहुत सक्रिय बच्ची थी, लेकिन जब दूसरे बच्चे उसे चिढ़ाते थे तो वह भावुक हो जाती थी।”

रीडिंग रूम इंडिया ने लिखा, बड़े होते के दौरान गांव वाले उसे pichi (पागल, ) और kothi (बंदर) कहकर अपमानित करते। उसके लिए उसकी छोटी बहन अमूल्या ही उसकी दोस्त और साथी रही। उसके साथ खेलना और गुड़-चावल का प्लेट सांझा करके खाना, सब उसके साथ रहा।

दीप्ति की माँ बताती हैं, “जब मेरे ससुर की मृत्यु हुई, तो ऐसे भी दिन थे जब हम केवल चावल खाते थे और वह पूरे परिवार के लिए कठिन समय था, क्योंकि हम दोनों काम करके कुछ दिनों में 150-200 रुपये कमाते थे और कुछ दिनों में कुछ भी नहीं कमाते थे।”

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दीप्ति के ट्रैक पर दौड़ लगाने की शुरुआत

परिवार ने साल 2000 में गांव के  ग्रामीण विकास फाउंडेशन (Rural Development Foundation ) स्कूल में दीप्ति का दाखिला कराया। स्कूल के ही पीई शिक्षक बियानी वेंकटेश्वरलू ने दीप्ति को उसके दोस्तों के साथ दौड़ता हुआ देखा। इसके बाद कोच ने स्कूल के मालिक राममोहन राव से दीप्ति की ट्रेनिंग के लिए मदद मांगी। इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा, युवा खिलाड़ी के तौर पर उसने तथाकथित शारीरिक रूप से सक्षम खिलाड़ियों के खिलाफ स्कूल स्तर पर 100 मीटर व 200 मीटर दौड़ में भी प्रतिस्पर्धा की।

“एक सामान्य दौड़ के दौरान भी, दीप्ति की दौड़ने की शैली, टेक-अप, फिनिशिंग रन लगभग सही था। हमारे सामने एकमात्र समस्या यह थी कि वह अपनी लेन में दौड़ने पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थी। उसने अपने करियर की शुरुआत में एक राज्य प्रतियोगिता में खिताब जीता था, लेकिन एक अलग लेन में दौड़ने के कारण उसे अयोग्य घोषित कर दिया गया था। इसलिए हम उसे लेन में दौड़ने को समझाने में मदद करने के लिए अन्य लेन में दौड़ने वाले बच्चों के साथ धीमी गति से दौड़ाते। उसकी विस्फोटक शुरुआत होती थी और इससे उसे सक्षम धावकों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने में बहुत मदद मिली” – बियानी वेंकटेश्वरलु ने अपनी पत्नी के ज़रिये से कहा क्योंकि वह इस समय ब्रेन स्ट्रोक ( मस्तिष्क के किसी हिस्से में पर्याप्त रक्त प्रवाह की वजह से होना) से उभर रहे हैं।

2019 में खम्मम (Khammam) में एक राज्य प्रतियोगिता के दौरान SAI कोच एन रमेश ने दीप्ति को दौड़ते हुए देखा। उन्होंने दीप्ति के माता-पिता से उसे हैदराबाद में ट्रेनिंग के लिए भेजने के लिए मनाया।

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दीप्ति का खिताब जीतने का सफर

                                              पेरिस पैरालंपिक 2024 में स्टेड डी फ़्रांस में महिलाओं की 400 मीटर टी20 फाइनल प्रतिस्पर्धा में दौड़ लगाते हुए दीप्ति की तस्वीर ( फोटो साभार – सोशल मीडिया)

साल, 2019 राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद (Pullela Gopichand) जो लंबे समय से कोच रमेश के मित्र रहे हैं, उन्होंने दीप्ति को ट्रेनिंग लेते हुए देखा। इसके बाद उन्होंने कोच को सिकंदराबाद में राष्ट्रीय बौद्धिक विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण संस्थान में दीप्ति का परीक्षण कराने की सलाह दी। तीन दिनों के परीक्षण के बाद, युवा खिलाड़ी दीप्ति का पैरा प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा के लिए मूल्यांकन किया गया।

उसी साल उसने पैरा नेशनल में मोरक्को के वर्ल्ड पैरा ग्रां प्री में 400 मीटर (400m title in World Para Grand Prix) का खिताब जीता। इसके साथ ही उसने ऑस्ट्रेलिया में पैरा ओशिनिया पैसिफिक गेम्स (Para Oceania Pacific Games in Australia) में भी खिताब जीता।

इसके बाद दीप्ति ने हांगझू पैरा एशियाई खेलों ( 400m T20 title in Hangzhou Para Asian Games) में 56.69 सेकेंड के नए रिकॉर्ड के साथ 400 मीटर टी20 का खिताब जीता। वहीं इस साल मई में जापान के कोबे में विश्व पैरा चैंपियनशिप (World Para Championships in Kobe, Japan) में दीप्ति ने 55.07 सेकेंड का नया विश्व रिकॉर्ड बनाकर स्वर्ण पदक जीता।

हालांकि,विश्व रिकॉर्ड को इस सप्ताह की शुरुआत में 54.96 सेकंड के समय के साथ तुर्की की आयसेल ओन्डर ( Aysel Onder) ने तोड़ दिया था।

इतने संघर्ष के बाद आज इस समय अपनी बेटी के मेडल का जश्न मनाने के लिए पिता ने अपने कारखाने के मालिक से छुट्टी मांगी की कि उन्हें छुट्टी दी जाए।

एक गर्वित पिता ने कहा,“दीप्ति ने अपने पैरा एशियाई खेलों के नकद पुरस्कार से पुराने घर को नया बनवाया। लेकिन फिर भी वह जो भी हासिल करती है, वह उसका पुरस्कार है। मैं शायद ही कभी काम से एक दिन की छुट्टी लेता हूँ। लेकिन यह पैरालंपिक पदक हमारे जीवन का सबसे बड़ा क्षण है और काम के लिए एक दिन तक इंतजार किया जा सकता है।”

यह संघर्ष की कहानी पैरालंपिक में भाग लिए अधिकतर खिलाड़ियों की है। उन सभी खिलाड़ियों की हैं जिन्हें उनकी विविधता की वजह से साथ नहीं मिला, लेकिन यह लड़ाई उन्होंने जीती है, यह गर्व उनका है, उनके विश्वास का है, उनके साथ का है, उनके कोच का है, उनके परिवारों का है जिन्होंने उन्हें थामे रखा।

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