खबर लहरिया Blog जलवायु की मार से यूपी के ईंट भट्टे प्रभावित – उद्योग को सुधार की ज़रूरत

जलवायु की मार से यूपी के ईंट भट्टे प्रभावित – उद्योग को सुधार की ज़रूरत

जलवायु परिवर्तन, जो एक समय एक सैद्धांतिक अवधारणा थी, वे अब दुनिया भर में कई लोगों के लिए एक क्रूर वास्तविकता बन गई है। उत्तर प्रदेश में ईंट भट्ठा उद्योग से अधिक कोई भी क्षेत्र इसे इतनी तीव्रता से महसूस नहीं करता है। अलग-अलग तरह के उद्योग और अर्थव्यवस्थाएं जलवायु संकट से लड़ रही – इन सब के बीच, ईंट भट्ठा उद्योग का जीवित रहने के लिए संघर्ष, जलवायु संकट की गंभीरता का बहुत बड़ा उदाहरण हैं।

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन वह प्रमाणित करते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है।

                                                                                                    ईंट-भट्ठे में ईंट पाथती हुई दो महिलाओं की तस्वीर

ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान मे ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन ने ऐसे बदलाव महसूस करा दिये हैं, जो ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं। देश में वर्षा के पैटर्न में बदलाव जलवायु परिवर्तन का संकेत देता है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) की रिपोर्ट के अनुसार ,  गैर-मानसूनी महीनों के दौरान वर्षा में बढ़ोतरी और मानसून के महीनों में वर्षा की कमी देखी गई है। जून में कम बारिश हुई है। उत्तर प्रदेश में 1 मार्च से 3 अप्रैल, 2023 के बीच 253% अधिक वर्षा देखी गई है। बारिश का ईंट बनाने की प्रक्रिया पर गंभीर परिणाम होता हैं। परंपरागत रूप से, ईंटों को सूखने के लिए खुले में छोड़ दिया जाता है, और अप्रत्याशित बारिश से गंभीर क्षति हो सकती है, जिससे ईंटों की क्वालिटी और उद्योग की अर्थव्यवस्था, दोनों पर गहरा असर पड़ता है। बारिश के अनियमित पैटर्न चिमनी को ग़लत समय पर गीला कर देते हैं, इसलिए, ईंट जलाने की प्रक्रिया रुक जाती है। आईएमडी ने जून महीने में बारिश की कमी को लेकर सूचना भी जारी की थी।

द्वारका प्रकाश मोर हताश होकर इस प्रभाव के बारे में बात करते हैं। “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000-30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आँकड़ा  लाख तक पहुँच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं वह बहुत बड़ा है।”

जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़  यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु सकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले  में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।

वैश्विक शहरीकरण और आर्थिक विकास से प्रेरित छोटे पैमाने का ईंट भट्ठा उद्योग, पारंपरिक जलने वाले ईंधन, लिग्नाइट, टायर, प्लास्टिक आदि और कभी-कभी निम्न-श्रेणी के कार्बनयुक्त पदार्थों का उपयोग करके वायुमंडलीय प्रदूषण में योगदान देता है, जिनमें सल्फर और राख की मात्रा अधिक होती है। ऐसे सामग्री का उपयोग होता है, जिससे हानिकारक सल्फर डाइऑक्साइड और ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन होता है।

राष्ट्रीय सहाय सेवा संघ के सदस्य डॉ. गिरधारी, जो पर्यावरण, महिलाओं और ग़रीबों से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं, वे इस मुद्दे की विचित्रता पर टिपण्णी देते है – “इमारतों और अलग-अलग संरचनाओं के विकास के दुष्परिणाम जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहे हैं। पारंपरिक ईंट-भट्ठों से निकलने वाली गैसें जलवायु परिवर्तन में योगदान करती हैं।”

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क्या पारंपरिक ईंधन के विकल्प मौजूद हैं? 

उत्तर है, हाँ! इस संदर्भ में, उत्तर प्रदेश नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी ( UPNEDA ) की पहल एक वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत करती है। जैव ईंधन, चीनी के उद्योगों से खोई, और शहरी – औद्योगिक कचरे से ऊर्जा के दोहन पर ध्यान केंद्रित करते हुए, यूपी.एन.ई.डी.ए की परियोजनाओं का उद्देश्य ऊर्जा उत्पादन और खपत में क्रांति लाना है। ईंट भट्ठा उद्योग में टिकाऊ ऊर्जा विकल्पों में परिवर्तन से इसके पर्यावरणीय प्रभाव और कार्बन पदचिह्न में काफी कमी आ सकती है।

इसके अलावा, यूपी.एन.ई.डी.ए अपने बायोगैस-आधारित विद्युत उत्पादन परियोजना और अपशिष्ट से ऊर्जा परियोजना के माध्यम से शहरी और औद्योगिक कचरे से ऊर्जा का उपयोग भी कर रहा है। ये परियोजनाएँ अपशिष्ट को एक मूल्यवान ऊर्जा संसाधन में बदल देती हैं, साथ ही अपशिष्ट प्रबंधन के मुद्दों और ऊर्जा आवश्यकताओं को भी संबोधित करती हैं। यदि इन तरीको को ईंट भट्ठा उद्योग में अपनाया जाता है, तो ऐसा अपशिष्ट-से-ऊर्जा दृष्टिकोण, ईंट पकाने के लिए एक विश्वसनीय, टिकाऊ ऊर्जा स्रोत प्रदान कर सकता हैं, जिससे उद्योग के कार्बन पदचिह्न और जलवायु-निर्भर प्रथाओं पर निर्भरता कम हो सकती है।

उपर्युक्त पहलों में उद्योग को अधिक जलवायु-लचीला बनाने की क्षमता है। मौसम पर निर्भर प्रक्रियाओं पर अपनी निर्भरता कम करके, उद्योग अनियमित मौसम पैटर्न का सामना करने की अपनी क्षमता बढ़ा सकता है। यह परिवर्तन उन हजारों मजदूरों की आजीविका को स्थिर करने में मदद कर सकता है जो इस उद्योग पर निर्भर हैं और जिनके अस्तित्व को जलवायु संबंधी व्यवधानों और उद्योग की अस्थिरता से खतरा है।

आजीविकाएं प्रभावित, मजदूर भारी कर्ज में डूबते जा रहे हैं

                                                                                                     पथे हुए ईंटों की तस्वीर, कई सारे ईंट लाइन से लगाए हुए हैं

भारी बारिश के कारण खेतों में पानी भर गया है, जिससे लाखों ईंटें बर्बाद हो गई हैं, और सफाई-प्रक्रिया का एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया है। अनियमित जलवायु परिस्थितियों के कारण कार्यदिवस नष्ट हो गए हैं, जिससे इस उद्योग पर निर्भर कई प्रवासी मजदूरों की आजीविका प्रभावित हुई है। 

डॉ. गिरधारी अफसोस जताते हुए कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के कारण हर मौसम की तीव्रता बदल गई है, यहां तक ​​ये बदलाव  कोविड-19 जैसी महामारी को भी जन्म दे रही है। उदाहरण के लिए, कई बार ढांचागत विकास का मतलब वनों की कटाई होता है, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए।” 

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन  करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।

बांदा के एक पथेड़ा, राम प्रताप ने 17 वर्षों तक ईंट भट्ठा मजदूर के रूप में काम किया है। लेकिन हाल ही में उसे काम में दिक्कतें आनी शुरू हो गई हैं। वे और उनका पूरा परिवार लगभग दो महीने तक बेरोजगार रहे – जनवरी में 25 दिन और मार्च में 25 दिन।इसका कारण? भारी वर्षा की असामान्य और अचानक शुरुआत।

“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूँ। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” उनके शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से झूझ रहे हैं।

राम प्रताप की कहानी इन व्यवधानों के व्यापक प्रभावों को स्पष्ट करती है – बढ़ते कर्ज, भविष्य के बारे में अनिश्चितता और उसको कुचलने वाली लाचारी। प्रताप को प्रति 1000 ईंटों पर 500 रुपये की आय मिलती  है। उन्होंने कहा, “यह मज़दूरी मेरे और मेरे परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त नहीं है, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। हालाँकि, इस बार, हमने सीज़न के अंत में केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”

जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वह कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”

हाल ही में बलिया जैसे आसपास के जिलों में तापमान – 43 डिग्री दर्ज किया गया है, जिससे यहां के निवासी चिंतित हो गए हैं क्योंकि  नमी और गर्मी दोनों तेज़ी से बड़ रहे हैं। वह आगे कहते हैं, “अत्यधिक मौसम की स्थिति – चाहे गर्मी हो या सर्दी, इनमें काम करना हमें अकसर बीमार बना देता है। तब, हमें निजी क्लीनिकों पर निर्भर रहना पड़ता है।”

एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। लगातार शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।”

वह कहते हैं कि मौजूदा सरकारी मुआवजा योजनाओं को, स्थिति की गंभीरता को पर्याप्त रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है। ”40 लाख मजदूरों को सरकार सिर्फ 20 लाख मुआवजा दे रही है।” वित्तीय सहायता और सुरक्षा योजनाओं के लिए उनकी अपील, नीतिगत बदलावों की आवश्यकता का एक प्रमाण है।

राम प्रकाश मोर ने ईंट भट्ठों पर पड़ने वाले आर्थिक प्रभाव के लिए सख्त सरकारी हस्तक्षेप का आह्वान किया। मोर अफसोस जताते हुए कहते हैं, “हम जिला परिषद को पर्याप्त कर – ईंधन, श्रम – का भुगतान करते हैं, लेकिन बदले में हमें कोई सब्सिडी नहीं मिलती है।” उनकी दलील इन चुनौतियों को कम करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता और प्रौद्योगिकी अपनाने की आवश्यकता पर जोर देती है। “हम ईंधन में सब्सिडी, ऋण तक आसान पहुंच और अपनी भट्टियों के लिए बीमा देखना चाहते हैं।” 

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समग्र परिवर्तन लाने वाले उपायों की ज़रूरत

इन चुनौतियों के सामने, जलवायु परिवर्तन का आगमन एक अवसर प्रस्तुत करता है – ईंट भट्ठा उद्योग के भविष्य का   पुन: आविष्कार। इससे ईंट भट्ठा मालिकों से लेकर मजदूरों तक काम करने वाले सभी हितधारकों को लाभ होगा। जैसे-जैसे हम प्रगति कर रहे हैं, यह महत्वपूर्ण है कि ये ईंटें न केवल संरचनाओं के निर्माण खंड के रूप में, बल्कि एक लचीले और मज़बूत समाज के निर्माण के लिए भी खड़ी हों।

इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर (आई.जी.सी) एक समग्र दृष्टिकोण की वकालत करता है, जो ईंट भट्टों जैसे उद्योगों पर तत्काल जलवायु प्रभाव और ऐसे उद्योगों के दीर्घकालिक स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों को संबोधित करता है। ईंट भट्टों के कारण होने वाले प्रदूषण से श्वसन संबंधी समस्याएं और फेफड़ों की कार्यक्षमता में गिरावट आती है। विश्व बैंक द्वारा जारी एक दस्तावेज़, ‘डर्टी  स्टैक्स। हाई स्टेक्स’, के अनुसार, ईंट भट्ठा संदूषण मजदूरों के फेफड़ों में देखी गई दिक्कतों  से जुड़ा हुआ था।

                                                                                                                ईंट ढोते हुए ईंट भट्ठा मज़दूर की फोटो

दस्तावेज़ में यह भी सुझाव दिया गया है कि श्वसन समस्याओं के अलावा, ईंट भट्ठा श्रमिकों को रासायनिक, और शारीरिक खतरों सहित विभिन्न प्रकार के खतरनाक व्यावसायिक जोखिमों का सामना करना पड़ता है। श्रमिक पीएम सहित ईंट की धूल, सिलिका और दहन उत्पादन की उच्च सांद्रता के संपर्क में आते हैं। इन जोखिमों को कैंसर और संभावित एनीमिया के बढ़ते जोखिम से जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त, बार-बार दोहराई जाने वाली गति और भारी भार परिवहन से श्रमिकों को मांसपेशियों और हड्डियों की बीमारियों का खतरा है।

राम प्रताप, जो एक इस समस्या के शिकार रह चुके हैं, कहते हैं कि वह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बजाय निजी स्वास्थ्य सेवा को प्राथमिकता देते हैं और यह नहीं मानते कि सरकार की कोई भी स्वास्थ्य योजना फायदेमंद है। वह कहते हैं, ”इसका विश्वास से बहुत लेना-देना है।अगर मैं सरकारी अस्पताल की दर से अधिक भुगतान कर रहा हूं, तो यह केवल इसलिए है क्योंकि मैं जानता हूं कि डॉक्टर मेरे या मेरे परिवार के साथ जानवरों की तरह व्यवहार नहीं करेंगे। हमारे अपने राज्य के अंतर्गत कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए दूसरे से उम्मीद करना दूर की कौड़ी है। ये है यहां के प्रवासियों की हकीकत। यहां तक ​​कि हमारा भट्टा मालिक भी हमारे इलाज के लिए पैसे नहीं देता है।”

जहां एक तरफ़ पर्यावरण संकट निस्संदेह ईंट भट्टों जैसे उद्योगों के लिए चुनौतियां लेकर आया है, वही दूसरी तरफ़ यह एक अवसर भी प्रदान करता है। यूपी.एन.ई.डी.ए की जैव ईंधन परियोजनाओं का लाभ उठाकर और पारंपरिक, प्रदूषक-भारी ईंधन पर निर्भरता कम करके, उद्योग बदलती जलवायु के अनुकूल हो सकता है और इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम कर सकता है।

जैसा कि डॉ. गिरधारी कहते हैं, “हमें नैतिक प्रथाओं और इरादों के साथ इस समझ की आवश्यकता है कि यह हमारे अस्तित्व से जुड़ा है। ऐसी प्रथाएं श्रमिकों को जहरीले धुएं और लगातार गर्मी से बचाती हैं, जिससे बीमारियों से बचा जा सकता है ।” 

उनके अनुसार, ईंट भट्ठा उद्योग में क्रांति लाने के लिए हर कदम पर बदलाव की आवश्यकता है। वह कहते हैं, “अधिक टिकाऊ तरीकों पर परिवर्तन करने के लिए, जलवायु के बारे में हमारी वर्तमान समझ में एक प्रणालीगत बदलाव की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, किसानों को फसल अवशेष जलाने से बचना चाहिए और इसके बजाय प्रौद्योगिकी को अपनाना चाहिए। यही सिद्धांत ईंट भट्ठा उद्योग पर भी लागू होता है, जहां एक छोटे से दायरे में कई भट्टियां हवा की गुणवत्ता को गंभीर रूप से खराब कर देती हैं।”

ईंट भट्ठा उद्योग में थोड़ी अधिक पर्यावरण अनुकूल विधि, ज़िग-ज़ैग, का तेजी से उपयोग किया जा रहा है। यह विधि पहले से ही प्रभावी साबित हुई है क्योंकि इसमें पारंपरिक भट्टों की तुलना में बहुत कम ऊर्जा खपत की आवश्यकता होती है।

विश्व बैंक की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, ईंट भट्टों से होने वाले प्रदूषण से निपटने के लिए मजबूत नीति ढांचे की आवश्यकता है। रिपोर्ट में कहा गया है, “हालांकि वायु प्रदूषण ने दक्षिण एशिया में नीतिगत चर्चा में केंद्र स्थान ले लिया है, लेकिन कुछ या अनुपस्थित नीति और नियामक ढांचे हैं, विशेष रूप से वे जो पारंपरिक ईंट उत्पादन प्रौद्योगिकियों से उत्पन्न होने वाले वायु प्रदूषण को लक्षित करते हैं।”

भारत में ईंट उत्पादन मुख्य रूप से उपनगरीय या ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित है, लेकिन जो नीति निर्माण प्रक्रिया है, वो  अक्सर बड़े शहरों तक ही सीमित रहती है। विभिन्न नियामक संस्थाओं ने प्रतिबंध लगाकर या भट्टियों को पूरी तरह से बंद करके वायु प्रदूषण की समस्याओं को नियंत्रित किया है, जिससे बड़े पैमाने पर नौकरियां चली गईं। नीति निर्माताओं  को नीतियां बनाते समय श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर विचार करने की आवश्यकता है।

ईंट भट्ठा उद्योग में टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने से कार्यबल को तत्काल और ठोस लाभ मिलता है। कम उत्सर्जन के परिणामस्वरूप बेहतर वायु गुणवत्ता, पारंपरिक ईंट भट्ठा संचालन से जुड़े महत्वपूर्ण स्वास्थ्य जोखिमों को सीधे संबोधित करती है, जिससे श्रमिकों के बीच श्वसन रोगों की घटनाओं में संभावित रूप से कमी आती है। इसके साथ ही, अधिक सुरक्षित और बेहतर वेतन वाले रोजगार का वादा  इन प्रवासी मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय रूप से सुधार कर सकता है, जिससे इस समुदाय के लिए स्थिरता और समृद्धि के एक नए युग की शुरुआत हो सकती है।

यह कहानी बुनियाद के अंतर्गत आने वाली मीडिया श्रंखला का हिस्सा है, जहाँ हम उत्तर प्रदेश के ईंट भट्ठा उद्योग में, न्यायोचित बदलाव से जुड़े सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सम्बंधित कहानियों को लेकर आएंगे।

बुनियाद अभियान का केन्द्रीय विषय भारत के सबसे प्राचीनतम उद्योग “ईंट भट्ठा उद्योग” में नवीनतम, स्वच्छ एवं पर्यावरण अनुकूल तकनीकी को प्रोत्साहित करना है। साथ ही इस उद्योग में परस्पर रूप से सम्मिलित सभी मानव संसाधनों का न्यायपूर्ण कल्याण सुनिश्चित करना है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य ईंट भट्ठा मालिकों, मजदूरों, संगठनों, तकनीकी विशेषज्ञों एवं सरकार के नीति निर्माताओं के साथ मिल कर उद्योग के लिए ऐसी स्वच्छ तकनीक की तलाश करना है, जो पर्यावरण प्रदूषण को कम कर सके और उद्योग से जुड़े सभी लोगों और समुदायों को लाभ दे सके। इस अभियान में क्लाइमेट एजेंडा, 100% उत्तर प्रदेश नेटवर्क और चम्बल मीडिया जुड़े हैं।

 

इस लेख का अनुवाद निमिशा अग्रवाल द्वारा किया गया है। 

 

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