दशकों पहले बाँध में गयी थी किसानों की ज़मीन। सिंचाई विभाग में चक्कर काटने के बाद भी नहीं मिला किसानों का मुआवज़ा।
चित्रकूट जिले के रसिन बांध का मामला साल 2004 से चल रहा है। बांध बनवाने के दौरान सैकड़ों किसानों की ज़मीन इसमें चली गई। आज तकरीबन 16 साल बाद भी सारे किसानों को उनकी ज़मीन का मुआवज़ा नहीं मिला है। आज भी कई किसान मुआवज़े के लिए सिंचाई विभाग के चक्कर काटते रहते हैं। लेकिन फिर भी कोई अधिकारी किसानों की समस्या को लेकर सुध नहीं ले रहा है।
क्या कहते हैं किसान?
रसिन गांव के रहने वाले किसान गुरूदेव का कहना है उनका खेत जिसकी गाटा संख्या- 73,52 /,2,7939, रकबा- 1-5930,02800 रसिन बाँध के डूब क्षेत्र में है। वह कहते हैं कि सालों बीत गए। वह अपनी ज़मीन पर फसल भी उगा नहीं पाते। हर जगह पानी भरे होने के कारण ट्रेक्टर भी नहीं निकल पाते। कुल मिलाकर उनकी ज़मीन किसी काम की नहीं रह गयी है। इसलिए वह चाहते हैं कि सिंचाई विभाग उनकी ज़मीन का मुआवज़ा दे।
वह आगे कहते हैं कि हर बार सिंचाई विभाग के चक्कर काटते हैं। लोग आते हैं,सर्वे करते हैं, आश्वाशन देते हैं और फिर वही अधिकारी लापरवाही करते हैं। गुरुदेव कहते हैं कि यही उनकी जीविका चलाने का जरिया है। अगर उनकी ज़मीन का मुआवज़ा मिल जाएगा तो वह दूसरी ज़मीन खरीद कर उस पर खेती कर सकते हैं।
किसान रामकिशन का कहना है कि उनकी ज़मीन भी रसिन बाँध में डूब गयी है। जिसका गाटा संख्या- 369 और रकबा- 05380 है। वह कहते हैं कि उनकी ज़मीन डूब क्षेत्र में है जिसकी वजह से वह खेती नहीं कर पाते। बेरोज़गारी इतनी है कि मज़दूरी तक नहीं मिलती। वह कहते हैं कि खेत होता तो वह अनाज पैदा करते। साल भर का खाना हो जाता और खर्चे भी निकल जाते। सरकार ने ज़मीन तो ले ली पर विभाग के चक्कर काटने के बाद भी मुआवज़ा नहीं दिया। रसिन से कर्वी जाने में रोज़ाना दो सौ रूपये तक खर्च हो जाते हैं।
क्यों बनाया गया था रसिन बांध?
बुन्देलखण्ड के बांदा और चित्रकूट ज़िले के सबसे पिछड़े पहाड़ी और जंगली इलाके को सूखे से बचाने के लिए सिंचाई विभाग द्वारा चित्रकूट जिले के अंतर्गत आने वाले रसिन गाँव में लगभग 16 साल पहले चौधरी चरण सिंह सहायक परियोजना के तहत रसिन बाँध के नाम से एक बहुत बड़ा बाँध बनवाया गया था। इस बाँध को बनवाने का उद्देश्य था कि किसानों को सिंचाई के लिए भरपूर पानी मिल सके और यह क्षेत्र हरियाली से भरा रहेगा। लेकिन इस बाँध के बनने से हजारों किसानों के घर और खेत की ज़मीन चली गयी जिसका मुआवज़ा उन्हें आज तक नहीं मिला है।
लोगों का कहना है कि उनकी जमीन पीढ़ी दर पीढ़ी की धरोहर थी जिससे वह हर साल वह लोग लाखों रुपए की फसल पैदा करते थे। साल भर चैन से खाते थे लेकिन बाँध बनने के कारण यह लोग काफी परेशान हैं। इनके खाने-पीने का सहारा छिन गया है और घरों के नाम पर इन्हें बंजर ज़मीन दे दी गई है।
कम रेट में ली थी सरकार ने ज़मीन, आज बढ़ चुका है दाम
लोगों ने बताया कि जब बाँध बन रहा था तब मुआवज़ा बहुत कम था। सिर्फ 20 से ₹25000 प्रति बीघा ज़मीन। अब यहाँ की ज़मीन का रेट साढ़े 7 लाख रूपए प्रति बीघा हो चुका है। लागत ज़्यादा होने के कारण अब विभाग भी मुआवज़ा देने में आनाकानी कर रहा है। दलालों द्वारा भी उन्हें परेशान किया जा रहा है। किसानों का कहना है कि वह एक गरीब दलित वर्ग के अनपढ़ किसान हैं। उनको इतना ज़्यादा ज्ञान नहीं है। जिसका फ़ायदा दलाल उठाते हैं और आधा मुआवज़े का पैसा वो लोग ले लेते हैं।
इस साल के मुआवज़े की प्रक्रिया खत्म
सिंचाई विभाग के अधिशासी अभियंता राजनाथ सिंह यादव से खबर लहरिया ने बात की। उनका कहना था कि साल 2021 में मुआवज़े की प्रक्रिया खत्म हो गयी है। सभी को मुआवज़ा दिया जा चुका है। जिसे मुआवज़ा नहीं मिला है वह उनकी ज़मीनों की जानकारी ले रहे हैं। वह कोशिश करेंगे कि उन्हें जल्द मुआवज़ा मिल जाये।
कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यहाँ बाँध का उदघाटन करने आए थे और बड़े-बड़े भाषण दे कर गए लेकिन किसानों का दुःख किसी ने नहीं सुना। न ही किसी ने किसानों के मुआवज़े की बात करी। ऐसे में अब यह किसान मुआवज़े के लिए किसके पास जाएँ? अब ऐसे में यह सवाल आता है कि आज जब ज़मीन के रेट बढ़ चुके हैं तो सरकार किसानों को कितना मुआवज़ा देती है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि किसानों को दशक बीतने के बाद भी मुआवज़ा मिलता है या नहीं?
इस खबर की रिपोर्टिंग गीता देवी और नाज़नी रिज़वी द्वारा की गयी है।
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