ग्रामीण इलाकों में माओवादी और ग्रामीण दोनों रह रहे हैं लेकिन इनके बीच कौन-क्या है, हम यह नहीं बता सकते क्यों? क्योंकि हम वहां रहते नहीं हैं। हमें सिर्फ उनसे सुनना है और समझना है कि आखिर उस दिन हुआ क्या था, आज क्या हुआ, मुठभेड़ के दौरान क्या हुआ। इन चीज़ों को जानना बहुत ज़रूरी होता है। जब तक हम इसे बाहर नहीं निकालेंगे तब तक किसी को पता नहीं चलता है कि मुठभेड़ के दौरान होता क्या है?
रिपोर्ट – संध्या
अगर किसी ग्रामीण या जंगली क्षेत्र में कोई घटना या मुठभेड़ हुई है, या माओवादियों ने किसी को मार दिया है। अगर इस तरह का कुछ होता है तो अंदरूनी क्षेत्रों से ख़बरों को निकालना, दिखाना, लिखना बहुत कठिन होता है। ख़ासतौर से उन क्षेत्रों में जहां ज़्यादा सुविधा न हो और छत्तीसगढ़ का जिला बीजापुर ऐसी ही एक जगह है।
14 साल से बीजापुर जिले में रिपोर्टिंग कर रहीं पत्रकार पुष्पा रोकड़े खबर लहरिया को बताती हैं। मूलतः जगदलपुर की रहने वाली पुष्पा पत्रकारिता के लिए बीजापुर आकर रहने लगी क्योंकि पत्रकारिता के ज़रिये उन्हें कुछ अलग करना था। आज वह माओवादियों व उन भीतरी क्षेत्रों में रिपोर्टिंग कर रही हैं जहां पहुंच पाना ही मुश्किल है। जहां माओवादियों का खतरा हमेशा बना रहता है।
बीजापुर एक घने जंगल वाला क्षेत्र है जो माओवादियों के छुपने के लिए सबसे बड़ी जगह है। छत्तीसगढ़ स्टेट फारेस्ट 2023 की रिपोर्ट के अनुसार,बीजापुर जिले में वन क्षेत्र का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है जो कि 83.12 प्रतिशत है। वहीं छत्तीसगढ़ में कुल वन क्षेत्र राज्य के कुल क्षेत्रफल का 41.2 प्रतिशत है।
यहां आये दिन मौत की घटनाएं सामने आती हैं, जिनमें: पुलिस ने मार दिया, कभी नक्सलियों ने मार दिया, कभी मुठभेड़ में आम ग्रामीण आ जाते हैं, आईईडी ब्लास्ट हो गया, इत्यादि। इसमें कभी जवान मारे जाते हैं,कभी गांव वाले, कभी कोई अन्य साधारण लोग।
जहां इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, उस जगह तक पहुँचने के लिए पुष्पा की मेहनत भी उतनी ही ज़ायदा होती है। कभी-कभी उन्हें कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है तो कभी बिना पानी के भी रहना पड़ता है।
उनका मानना है कि पत्रकार की जिज्ञासा ही उसकी भूख़ और प्यास है। अगर बीजापुर से 50 किलोमीटर अंदर जंगल में कुछ हुआ है, तो आपकी जिज्ञासा ही आपको वहां तक लेकर जाती है।
जहां तक बात रही ख़बरों को मिलने की तो शहरों में ख़बर मिलना या उसे लेकर जानकारी प्राप्त ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले आसान होता है। वहीं…..
“अगर गांव में या जंगल में कुछ हुआ है तो उसे आप सिर्फ सुनकर, जानकर, किसी की फोटोग्राफ या वीडियो से नहीं लिख सकते। जब तक आप उस जगह पर जाओगे नहीं, जगह को देखोगे नहीं, लोगों को सुनोगे नहीं तब तक आपको यह भी समझ नहीं आएगा कि सामने वाला बताना क्या चाह रहा है।”
अंदरूनी क्षेत्रों तक पहुंचना कभी-भी आसान नहीं होता। कभी उन्हें जंगल में भी रात काटनी पड़ जाती है, अगर वो जगह पहुंच से बहुत दूर है। इस दौरान उन्हें पहाड़, नदी, नाला भी पार करना होता है। ख़बर की जगह तक पहुंचना बेहद मुश्किल होता है, क्योंकि इन जगहों तक जाने के लिए कोई ऐसा साधन या रास्ता नहीं है। बहुत बार उन्हें खाने के लिए खाना भी नहीं मिलता। जब साथ में कुछ खाने के लिए न हो तो बस उस जगह तक पहुंचकर ही कुछ खाने की उम्मीद होती है, जहां आप पेट भरकर खाना खा सको।
जब भी जंगल किसी ख़बर के लिए जाना हो, वह 5 से 9 लोगों के समूह में ही जाती हैं। इसमें कभी पत्रकार होते हैं, कभी राजनैतिक पार्टी होती है। वह उनके साथ ही कवरेज के लिए निकल पड़ती हैं। किसी का साथ मिलने के लिए कोई प्लानिंग नहीं होती, सब अचानक से ही होता है।
“ये बीजापुर है, कभी-भी कुछ भी होता रहता है तो आप प्लानिंग नहीं कर सकतें।”
पुष्पा साल 2010 से दैनिक प्रखर समाचार में काम रही हैं। क्राइम रिपोर्टिंग में रूचि होने की वजह से ही उन्होंने बीजापुर को चुना। जिले में आने से कुछ साल पहले ही 11 मई 2007 को बीजापुर को जिले का दर्जा मिला था। मौजूदा जानकारी बताती है कि बीजापुर को पहले ‘बिरजापुर’ कहते थे। यह बस्तर संभाग के सबसे आखिरी छोर पर बसा हुआ है। इसे दंतेवाड़ा जिले से अलग करके बनाया गया था।
बस्तर में उन्होंने रिपोर्टिंग करते हुए कभी किसी महिला पत्रकार को नहीं देखा, और आज वह वहां से रिपोर्टिंग कर रही हैं। जो उनका सपना था, एक अलग पहचान बनाने की… आज वह उसे कहीं न कहीं जी पा रही हैं एक महिला पत्रकार के रूप में। वह पत्रकार जो उन इलाकों से रिपोर्टिंग करती हैं जहां हर समय ख़तरा रहता है।
भाषा की चुनौती
बीजापुर व बस्तर जैसे क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान भाषा की समस्या अमूमन तौर पर उनके सामने एक और चुनौती की तरह खड़ी रहती है।
पुष्पा का कहना है कि जो गोंड भाषा बोली जाती है वह भी अलग-अलग तरह की होती है। जैसे किलेपाल के तरफ़ की गोंड भाषा अलग होती है, बीजापुर में अलग होती है, तो आपको वो समझना पड़ेगा। आपको समझाना भी पड़ेगा कि आप कहां जा रहे हो, किससे मिलने जा रहे हो, किस जगह पर जा रहे हो, इसके लिए गांव के लोगों व अन्य गांव से भी जानकारी लेनी होगी। इसमें कई दिक्कत है और इसे पार करने के लिए हिम्मत करनी पड़ेगी।
मौजूदा रिपोर्ट्स के अनुसार, छत्तीसगढ़ में कुल 93 भाषाएं हैं। नई दुनिया वेबसाइट की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी (रायपुर, दुर्ग, बस्तर संभाग, बिलासपुर एवं सरगुजा संभाग), दोरली, हल्बी, भतरी, धुरवी, गोंडी (कांकेर क्षेत्र ), गोंडी (दंतेवाड़ा क्षेत्र), गोंडी (बस्तर क्षेत्र), सादरी, कमारी, कुडुख, बघेली, सरगुजिहा, बैगानी और माडिया भाषाएं बोली जाती हैं।
इसके अलावा गोंडी मैक्रो-भाषा के अंदर तीन भाषाएं हैं: आदिलाबाद गोंडी, अहेरी गोंडी और उत्तरी गोंडी। छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में यह भाषाएं बोली जाती हैं। गोंडी भाषा को ‘मैक्रो-भाषा’ के रूप में इसलिए देखा जाता है क्योंकि इसमें अलग-अलग बोलियां शामिल होती हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाती हैं। सभी की विशेषताएं गोंडी भाषा से जुड़ी हुई होती है।
माओवादी और ग्रामीण
जब भी माओवादियों से जुड़ा मामला सामने आता है तो उसमें सबसे ज़्यादा दिक्कत माओवदियों के बीच रहे ग्रामीणों को ही होती है जो अमूमन दोनों तरफ़ से हो रही मुठभेड़ के बीच फंस जाते हैं और अपनी जान गंवा बैठते हैं। जहां वह रह रहे होते हैं, ऐसे कई क्षेत्रों में नेटवर्क तक नहीं होते। ऐसे में वह अपनी बात आगे पहुंचाने में मुश्किल का सामना करते हैं।
इन दिक्कतों को कोई सुन नहीं रहा, यहां गाड़ियां नहीं पहुंच रहीं, तो ऐसा लगता है कि उसे सुनना और देखना भी ज़रूरी है।
माओवादी से जुड़ी 17 मई 2013 की एक घटना को याद करते हुए पुष्पा कई पहलुओं को हमारे सामने रखती हैं। वह भी इस दिन हुई घटना की रिपोर्टिंग के लिए एडसमेटा गांव पहुंची थी। घटना की शुरुआत, ग्रामीणों द्वारा शाम की पूजा-पाठ के बाद बजाए गए बिगुल से हुई। उस क्षेत्र में तैनात किये गए सीआरपीएफ़ जवान, वहां नए-नए आये हुए थे। जवान को ग्रामीणों का बिगुल बजाना समझ नहीं आया और उन्होंने फ़ायरिंग शुरू कर दी। गांव के लोग ज़ख़्मी हालत में यहां-वहां भाग रहे थे। कई लोगों की मौत भी हुई।
उस समय बीएसएनएल का नेटवर्क था जो सैटेलाइट से चलता था। वह छोटे-से मोबाइल का इस्तेमाल करती थीं, अगर नेटवर्क मिल गया तो। उस समय जब वह रिपोर्टिंग के लिए पहुंची तो उन्होंने देखा कि कई लोग बैठे हुए हैं। पूछने पर उस भीड़ में बैठा एक बच्चा उन्हें पहचान गया कि वो एक पत्रकार हैं।
बच्चे ने बताया कि पिछले दिनों गांव में पुलिस आई थी। काफ़ी लोगों को गोली लगी,कई मर गए हैं। एक जवान शहीद हो गया। एक गांव वाले को वो लोग लेकर आये और माओवादी वाली बात चल रही है।
मौके पर मौजूद थाना अधिकारी से पुष्पा ने मिलने की कोशिश की। वह नहीं है, यह बात किसी से कहलाकर अधिकारी ने मिलने से मना कर दिया।
इसके बाद वह बीजापुर पहुंची और एसपी साहब को ढूंढकर उनसे मामले के बारे में बात की। उन्होंने इसके बाद तत्काल अपनी टीम गांव में भेजी, जो लोग घायल थे उनका इलाज कराया गया, जो ग्रामीणों के लिए हो सकता था, वह प्रशासन ने किया।
इस तरह की घटना अब यहां आम बात हो चुकी है। ग्रामीण इलाकों में माओवादी और ग्रामीण दोनों रह रहे हैं लेकिन इनके बीच कौन-क्या है, हम यह नहीं बता सकते क्यों? क्योंकि हम वहां रहते नहीं हैं। हमें सिर्फ उनसे सुनना है और समझना है कि आखिर उस दिन हुआ क्या था, आज क्या हुआ, मुठभेड़ के दौरान क्या हुआ। इन चीज़ों को जानना बहुत ज़रूरी होता है। जब तक हम इसे बाहर नहीं निकालेंगे तब तक किसी को पता नहीं चलता है कि मुठभेड़ के दौरान होता क्या है?
ख़बर हो गई, इसके बाद पत्रकार उस खबर को किस तरह से प्रकाशित कर रहा है, सरकार उसे किस तरह से देख रही है, किस तरह उसे समझ में आ रहा है, यह भी बेहद ज़रूरी है। अगर हम इतना पैदल चलें हैं, मेहनत किये हैं तो इसका फ़ायदा उन ग्रामीणों को मिलना चाहिए।
इस तरह की पत्रकारिता करना बस्तर में बहुत मुश्किल है। दूसरा यह कि अगर आप किसी मामले पर ख़बर लिख रहे हो तो यह भी ज़रूरी है कि उस ख़बर से आपकी क्या प्रतिक्रिया बनती है। ये भी देखना कि वो अच्छा है,बुरा है या समाज को उस चीज़ को समझने की आवश्यकता है।
“मैं एक पत्रकार हूँ, मेरा काम है ख़बर करना और आपका काम है समझना कि आपके जवानों ने क्या किया,ग्रामीणों ने क्या किया, और माओवादियों ने क्या किया।”
आत्महत्या करते जवान
अंदरूनी क्षेत्रों की परेशनियां यहां रहने वाले ग्रामीणों,माओवादियों और सुरक्षा के लिए तैनात जवानों से भी जुड़ी हुई है। यहां तैनात जवान सिर्फ परिवार पालने के लिए नौकरी करते हैं। दूर से दूर आकर अपनी ड्यूटियां निभाते हैं, और इस दौरान उनके साथ बहुत सारी चीज़े होती हैं। कई जवान ऐसे होते हैं जो घुटकर रह जाते हैं, बोल नहीं पाते। यही वजह होती है कि वह आत्महत्या भी कर लेते हैं।
कई जवानों की समय-समय पर आत्महत्या करने की ख़बर सामने आती है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्हें छुट्टी नहीं मिलती। वह घर नहीं जा पते। अगर छुट्टी मिल भी जाती है तो बेहद कम समय के लिए वह परिवार के साथ समय नहीं बिता पाते। इन जवानों के घर इतने दूर होते हैं कि अगर 15 दिन की छुट्टी मिली है तो दो से तीन दिन जानें में ही लग जाते हैं। वह कुछ दिन ही अपने घर रह पाते हैं और छुट्टी ख़त्म होने के तीन दिन पहले ही उन्हें निकलना पड़ता है। इस तरह की कई ऐसे वजहें हैं जो उनके दिलों को चोट पहुंचाती है। नेटवर्क न होने की वजह से कई-कई दिन वह अपने परिवार से बात भी नहीं कर पाते हैं।
इन मुद्दों पर उन्होंने कई बार रिपोर्टिंग भी की है लेकिन इसमें अधिकारीयों की तरफ से कोई बाइट या स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती। यहां-वहां की बात करके अमूमन मुख्य मुद्दे को टाल दिया जाता है। उनका कहना है,
“हम भी ख़बर लिखते हैं और उसके बाद आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि अगर हम उस पर ज़्यादा जाएंगे तो अन्य जवानों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है।”
इसके अलावा यहां पुलिस का भी बहुत सहयोग है जो जान हथेली पर रखकर हमेशा लोगों की सुविधा के लिए दिन-रात काम कर रही है। बस्तर,बीजापुर,नारायणपुर,सुकमा आदि जगहों वह काम कर रही है, जहां सुविधा नहीं थी, पुलिस के आने से लोगों को सुविधा मिली है, जो बहुत बड़ी बात है।
बेहद ख़ुशी से शेयर करते हुए पुष्पा कहती है, जब उन्होंने रिपोर्टिंग की शुरुआत की थी, तब से आज में क्षेत्रों में कई बदलाव आया है। सबसे बड़ा बदलाव है नेटवर्क का आना। नेटवर्क आने से अब लोग कॉल कर पाते हैं, बात कर पाते हैं तो हमें अच्छा लगता है कि हमें फ़ोन भी आ रहा है। यह मेरे लिए बहुत अच्छा अनुभव है।
“एक समय आएगा, जिन लोगों ने कभी स्कूल का चेहरा नहीं देखा है, वो स्कूल में बैठेंगे, पढ़ेंगे, और विकास के काम में सहयोगी पत्रकारों के रूप में हम भी गिने जाएंगे” – यही उनकी ख़्वाहिश है।
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