समाज में खुद को ऊँची जाति के वर्ग में रखने वाले लोग दलित, वाल्मीकि जैसे छोटी जाति माने जाने वाले लोगों के संपर्क में आने से बचते हैं मानों उन्हें छू लिया तो उन्हें बीमारी हो जाएगी।
जाति किसने बनाई? बड़ी जाति, छोटी जाति क्या है ? जातिवाद का जन्म कब-कैसे हुआ? आज़ादी से पहले की बात हो या बाद की, पहले भी जातिवाद था और आज भी है। इंसान की इज़्ज़त उसकी जाति देखकर की जाती है। व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला काम एक समय के बाद उसकी जाति बन गयी। अगर आज से 70-80 साल पहले की भी बात की जाए तो उस समय भी जातिगत भेदभाव बेहद ज़्यादा था। डॉ. भीमराव अंबेडकर इतिहास में जातिगत भेदभाव का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।
हम इतिहास की किताबों में यह पढ़ चुके हैं कि भीम राव अंबेडकर के साथ किस तरह से उनकी जाति की वजह से हिंसा की जाती थी। उन्हें पढ़ने नहीं दिया जाता था। समाज के ऊँची जाति माने जाने वाले लोग उन पर गोबर डालते। विद्यालय में अध्यापक उन्हें अन्य बच्चों की बराबरी में नहीं बैठने देते थे। इतनी मुश्किलों के बाद भी उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने उस दौर में वह शिक्षा हासिल की जिसे आज भी लोग प्राप्त करने में संघर्ष करते हुए नज़र आते हैं। ऐसे व्यक्ति के बारे में लिख पाने को शब्द भी कुछ गुम से नज़र आते हैं।
बुंदेलखंड में जातिगत छुआछूत खत्म नहीं हुई है। समाज में खुद को ऊँची जाति के वर्ग में रखने वाले लोग दलित, वाल्मीकि जैसे छोटी जाति माने जाने वाले लोगों के संपर्क में आने से बचते हैं मानों उन्हें छू लिया तो उन्हें बीमारी हो जाएगी।” – नाज़नी रिज़वी (रिपोर्टर खबर लहरिया )
शिक्षा के बाद देश और लोगों में काफ़ी बदलाव आया लेकिन जातिगत भेदभाव और हिंसा फिर भी खत्म नहीं हुई। मैं आज यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र की बात करुँगी। खबर लहरिया की सीनियर रिपोर्टर, नाज़नी रिज़वी ने कहा, “मैं यहीं रहती हूँ तो मुझे इस बात का बेहतर तौर पर अनुभव है कि बुंदेलखंड में जातिगत छुआछूत खत्म नहीं हुई है। समाज में खुद को ऊँची जाति के वर्ग में रखने वाले लोग दलित, वाल्मीकि जैसे छोटी जाति माने जाने वाले लोगों के संपर्क में आने से बचते हैं मानों उन्हें छू लिया तो उन्हें बीमारी हो जाएगी।” खबर लहरिया ने जातिगत हिंसा से जुड़ी कई मुद्दों पर रिपोर्टिंग की है जिसके बारे में हम आपको इस आर्टिकल में बताने जा रहे हैं।
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वाल्मीकि समुदाय के लोगों से बातचीत का अनुभव
मैं मुस्लिम परिवार से हूँ। मुस्लिम होने की वजह से लोग मुझे जल्दी घर किराये पर नहीं देतें। छूते नहीं। अगर हमने छू लिया या अनजाने में धोखे से छू गये तो समझो अब वो नहाकर ही पवित्र होंगे।
चित्रकूट जिले में रहने वाले कई वाल्मीकि परिवार आज भी जातिगत भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। खबर लहरिया की सीनियर रिपोर्टर नाज़नी रिज़वी ने बताया, ” बचपन से मैंने भी ये हिंसा सही है। अभी तक जातिवाद छूआछूत उत्पीड़न सह रही हूँ। मेरा खुद का एक लंबा अनुभव है। मैंने रिपोर्टिंग के दौरान भी ये देखा है और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी सहा है। मैं मुस्लिम परिवार से हूँ। मुस्लिम होने की वजह से लोग मुझे जल्दी घर किराये पर नहीं देतें। छूते नहीं। अगर हमने छू लिया या अनजाने में धोखे से छू गये तो समझो अब वो नहाकर ही पवित्र होंगे।
रोज़ जातिगत हिंसा सहती, नज़रअंदाज़ करती क्यूंकि वहीं उन्हीं लोगों के बीच रहना है।
बाकी चीजें हमारी ले सकते हैं। पैसे छुए हुए ले लेंगे। सोचती हूँ की छू जाने से नहाते हैं तो क्या नोट भी धोते होंगे? क्या उनकी और हमारी धरती अलग है? क्या उनका खून, हमारा खून अलग-अलग रंग का है? क्या उच्च जाति कहे या माने जाने वाले लोग अलग पैदा हुए हैं? क्या वे वह अनाज नहीं खाते जो हम खाते हैं? ये सब सवाल आते हैं और खूब लड़ने का मन होता है लेकिन मेरी मज़बूरी यह थी कि मेरा खुद का घर नहीं था। किराये पर रहती हूँ। रोज़ जातिगत हिंसा सहती, नज़रअंदाज़ करती क्यूंकि वहीं उन्हीं लोगों के बीच रहना है।
मैं किसी भी दलित वाल्मीकि के घर रिपोर्टिंग के लिए जाती तो उनके यहां पानी और चाय मांगकर पीती।
जो मेरे साथ हो रहा है, मैं किस तरह से ये सब बर्दास्त करती हूँ, बच्चों को कैसे समझाती, मैं ही जानती थी तो भला मैं दूसरों की भावनाओं को कैसे न समझती। मैं किसी भी दलित वाल्मीकि के घर रिपोर्टिंग के लिए जाती तो उनके यहां पानी और चाय मांगकर पीती। इसलिए नहीं की मुझे प्यास लगी है। मुझे चाय की तलब हो रही है बल्कि इसलिए ताकि वो मेरे साथ खुलकर बात करें। हिचकिचाएं नहीं, जुड़ाव बनें और मेरे सामने वह हीन भावना के साथ न रहें।
“ये कौन जात की हैं। ये हमारे यहां चाय तो पीयेंगी नहीं लगता है। गलती से आ गयी हैं।”
एक दिन मैं कर्वी ब्लॉक के खोह गांव में गयी। कुछ घर वाल्मीकि परिवार के दिखे। दो पुरुष बाहर कुर्सी पर बैठे मिले दिखे। वो अजीब तरह से देखने लगे कि हमारे यहां गलती से आ गयी है लगता है। बात करने के लिए पूछा तो वो कुर्सी छोड़कर दूर खड़े हो गए। उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं उनके यहां बैठूंगी। उनसे बात करुँगी। धीरे-धीरे बात करते हुए थोड़ा जुड़ाव दिखा। उनके खुसुर-पुसुर ( धीमी आवाज़ में बात करना) से समझ आया, वह कह रहे हैं, “ये कौन जात की हैं। ये हमारे यहां चाय तो पीयेंगी नहीं लगता है। गलती से आ गयी हैं।”
अगर गांव के लोगों ने देखा होगा तो आपको छूएंगे नहीं। अगर बात करेंगे भी तो दूर से।”
मैंने यहां कभी किसी मुद्दे की कवरेज नहीं की थी। ऐसे ही गाँव की स्टोरी की थी तो सोचा थोड़ा उनसे मिल भी लूँ। मैंने उनकी बात सुनी। मैं कुर्सी छोड़कर उनके साथ ज़मीन पर बैठ गयी। वो छू जाने के डर से दूर खिसकी। मैं भी और उसके करीब खिसक गयी। छूकर बोली, क्या मैं आपको करंट लगा रही हूँ जो दूर भाग रही हो। वहां बैठी महिलाएं बोली, “हमारे यहां तो कोई कभी आता नहीं है। इस रास्ते तक से लोग निकलते नहीं है। हमें समझ नहीं आ रहा था कि आप कैसे आ गयीं। बातें शूरू हुईं, जातिगत भेदभाव की कहानी बताई। मैं भी सुनती रही और उसी बीच उनकी बहु बेबी बोली, आप चाय पीजिये। बेबी ने चाय बनाई। हमने साथ बैठकर चाय पी। बेबी ने कहा, मैडम आप यहां जाएंगी। अगर गांव के लोगों ने देखा होगा तो आपको छुएंगे नहीं। अगर बात करेंगे भी तो दूर से।”
बेबी की सास ने बताया, अब हम किसी के दरवाज़े जाते भी नहीं हैं। कोई त्योहार हो या कोई कार्यक्रम, एक रोटी, एक पूड़ी देकर ऐसा समझते हैं कितना बड़ा एहसान किया हो। बेइज़्ज़ती से दूर से फेंक कर खाना देंगे, वो भी बासी। हम रोज़ उनसे अच्छा खाते हैं। छोटी जाति से हैं तो क्या हुआ।
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सार्वजानिक हैंडपंप से पानी तक नहीं भर पाते – वाल्मीकि परिवार
चित्रकूट जिले के पहाड़ी ब्लॉक के प्रसिद्धपुर गांव में एक वाल्मीकि परिवार है जो आज भी जातिगत हिंसा सह रहे हैं। आज भी अगर उनके घर के पास का हैंडपंप खराब हो जाता है तो वह पानी किसी उच्च माने जाने वाली जाति के घर के पास लगे हैंडपंप से नहीं भर सकते। भले ही वो हैंडपंप सर्वजनिक हो और वो कितने ही प्यासे हों। पानी जब मिलेगा जब कोई आकर उन्हें पानी देगा।
ऊंच जाति के माने वाले लोग रोकते हैं आगे बढ़ने से
“हम पानी को ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे हम तेल का इस्तेमाल कर रहे हों।”
पहाड़ी ब्लॉक के गांव नुनार में भी प्रसिद्धपुर गांव की तरह ही स्थति है। नोनार गांव की सुनीता, जो वाल्मीकि परिवार से हैं कहती है, “हम दो घर हैं गांव में और हमारे यहां का हैंडपंप खराब हो जाता है तो हम पानी के लिए तरस जाते हैं। बड़ी मुश्किल से गांव से बाहर कोई हैंडपंप से पानी लाते हैं या फिर घंटों इन्तजार करने पर हमें कोई पानी देता है। हम पानी को ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे हम तेल का इस्तेमाल कर रहे हों।”
सुनीता ने आगे कहा, “पानी की कीमत हमें हमारी जाति ने बता दिया। हम किसी का नल नहीं छू सकते। उच्च जाति के लोग छू जाएंगे तो उन्हें दोबारा नहाना पड़ेगा। हम भी तो इंसान हैं। हम भी तो वही खाते हैं जो वो खाते हैं। हम भी उसी हवा-पानी मे जीते हैं। इतना भेदभाव करते हैं जैसे हमें छूकर जल जाएंगे।”
इतना ही नहीं खुद को ऊंच जाति का कहने वाले लोग, इन समुदायों की शिक्षा में भी रुकावटें खड़ी कर देते हैं। उनके बच्चों को इस तरह से हीन भावना से देखते हैं कि बच्चे आगे पढ़ना ही नहीं चाहते। वो अपनी पढ़ाई छोड़कर नगरपालिका में सफाई कर्मचारी का ही काम देखते हैं। उसी नौकरी तक उनकी ज़िन्दगी रूकती है। आगे सपना ही नहीं देखते। यह तो उनकी रोज़ की समस्या और संघर्ष है।
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शिक्षा के बाद भी जाति की वजह से नहीं मिलती नौकरी
जैसे ही उन्हें पता चलता है मैं वाल्मीकि परिवार से हूँ फिर लोग दूरी बना लेते हैं।
कर्वी ब्लॉक के खटिकाने मोहल्ले में रहने वाली रंजना ने कहा, “मैं इस साल बी.ए फाइनल कर रही हूँ। किसी तरह जातिगत भेदभाव को इग्नोर (नज़रअंदाज़) करते हुए यहां तक पढ़ पाई। स्कूल में सब अच्छे से बोलते हैं। जैसे ही उन्हें पता चलता है मैं वाल्मीकि परिवार से हूँ फिर लोग दूरी बना लेते हैं।”
आगे कहा, “नौकरी करने का शौक लगा जब इतना पढ़ ली। एक जगह पता चला की वहां नौकरी निकली है। मैं भी वहां नौकरी के लिए अप्लाई कर दी। इंटरव्यू दिया, अच्छे से हुआ फिर नाम पूछा तब भी कोई बात नहीं हुई। इसके बाद जब सर नेम पूछा, बताते ही उनका नज़रिया बदला हुआ दिखा। मुझे नौकरी नहीं दी। हम लोग यही सोंचते हैं क्या होगा पढ़कर। हमें नौकरी तो मिलेगी नहीं। हम वाल्मीकि जो हैं। इस तरह से हम खुद ही हीन भावना रखने लगते हैं और हमारा मनोबल टूट जाता है।”
हमारी जाति की वजह से हमें सफाई के आलावा दूसरी नौकरी नहीं मिलती।
खटिकाने मोहल्ले में ही रहने वाली माया देवी बताती हैं, “मेरे तीन बेटे, दो बेटी हैं। पांचों बच्चों को पढ़ाया। बहू भी पढ़ी-लिखी आई है। सब शिक्षित हैं। एक बहू एम.बी.ए की है, दो ग्रेजुएशन की हैं पर क्या करें हमारी जाति की वजह से हमें सफाई के आलावा दूसरी नौकरी नहीं मिलती जबकि मायावती ने उच्च जातियों के लोगों को भी सफाई की नौकरी दी तो हमें अन्य नौकरी क्यों नहीं दी जाती। बहुत कम लोग होंगे जो वाल्मीकि परिवार से होकर सफ़ाई के आलावा दूसरी नौकरी कर रहे हों। हमारे साथ आज भी भेदभाव हो रहा है। इस वजह से बच्चों का पढ़ने का मन नहीं होता।”
मंदिर तक जाओ तो अगर ऊंच माने जाने वाली जाति की महिलाएं होंगी तो बोलेंगी पहले हमें पूज लेने दो और दूर-दूर करती रहेंगी, कही छू न जाएं। “
अंकिता ने कहा,” मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की हूँ लेकिन जाति की वजह से मुझे कर्वी में कोई नौकरी नहीं देता। प्राइवेट स्कूल में भी जाति पूछकर कोई जवाब नहीं देता। होता तो सब जगह है पर बड़े शहरों मे इतना नहीं होता। लोगों के पास इतना समय नहीं होता की वो ये फालतू बातें करें। आपका एक दूसरे से काम पड़ा तो काम हुआ बस दुनिया की बातों से कोई मतलब नहीं। लेकिन यहां बहुत ही ज़्यादा है। मंदिर तक जाओ तो अगर ऊंच माने जाने वाली जाति की महिलाएं होंगी तो बोलेंगी पहले हमें पूज लेने दो और दूर-दूर करती रहेंगी, कही छू न जाएं। ”
राजनीति का चश्मा और सत्ता की ताकत का सपना संजोये नेता चुनाव के समय ये नहीं देखते कि वो किस जाति के घर के दरवाज़े पर जा रहे हैं। उस समय तो वोट बटोरने के लिए पैर तक छू लेते हैं तब उन्हें छुआछूत नहीं लगती। ये भी एक सच्चाई है कि समाज में जातिगत भेदभाव, छुआछूत जैसी बड़ी बीमारी फैलाने में राजनीतिक पार्टियों का योगदान है। वह दलित वोट बैंक आदि छोटी माने जाने वाली जातियों के नाम पर वोट बंटोरती है और फिर बड़ी आसानी अपने पाँव पीछे खिसका लेती है।
हमने अपने आर्टिकल की शुरुआत बाबा साहब अंबेडकर की जीवनी से शुरू की थी और खत्म आज की स्थिति पर की है। हमने तो चित्रकूट जिले के सिर्फ कुछ ही मोहल्लों और कस्बों के बारे में बताया लेकिन ऐसे कितने ही कस्बें हैं जहां जातिगत हिंसाएं हो रहीं हैं, होती आ रही हैं। देश शिक्षित तो हो रहा है लेकिन सोच आज भी दबी-कुचली जंग लगी जंज़ीरों की तरह बंजर और दूषित है।
इस खबर की रिपोर्टिंग नाज़नी रिज़वी द्वारा की गयी है।
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