आंकड़े बताते हैं कि बिहार में दलित लोगों के घरों को जलाने की घटनाएं, या ये कहें योजना के तहत घर जलाने के मामले दुर्लभ नहीं बल्कि सामान्य है। साल 2017 से 2022 के बीच इन छः सालों में भारत में 35 प्रतिशत से अधिक आगजनी के मामले सिर्फ बिहार से थे जिसमें हिंसा का केंद्र अनुसूचित जाति से आने वाले लोग थे। इसके बाद मध्य प्रदेश, ओडिशा और उत्तर प्रदेश, हर राज्यों से लगभग 10 प्रतिशत मामले दर्ज़ किये गए।
बिहार के नवादा जिले में कथित तौर पर भू-माफिता द्वारा दलित बस्ती पर हमला और उनके घरों में आग लगाने की खबर सामने आई थी। मामले में 30 ज़्यादा दलित परिवारों के घरों को आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस के मुताबिक, इसमें 21 घर पूरी तरह से जल गए। यह मांझी व रविदास समुदाय से संबंधित हैं।आरोपियों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 व अन्य संबंधित धाराओं के साथ मामला दर्ज़ किया गया था।
दलितों के खिलाफ हिंसा का यह कोई पहला मामला नहीं था और न ही यह जातीय हिंसा के आधार पर कोई पहला मामला था।
द हिन्दू की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, आंकड़े बताते हैं कि बिहार में दलित लोगों के घरों को जलाने की घटनाएं, या ये कहें योजना के तहत घर जलाने के मामले दुर्लभ नहीं बल्कि सामान्य है। साल 2017 से 2022 के बीच इन छः सालों में भारत में 35 प्रतिशत से अधिक आगजनी के मामले सिर्फ बिहार से थे जिसमें हिंसा का केंद्र अनुसूचित जाति से आने वाले लोग थे। इसके बाद मध्य प्रदेश, ओडिशा और उत्तर प्रदेश, हर राज्यों से लगभग 10 प्रतिशत मामले दर्ज़ किये गए।
यह मामले सिर्फ दलितों के घर जलाने तक सीमित नहीं है। जातीय तौर पर दलितों के सिर्फ घर ही नहीं बल्कि उन्हें,उनके शरीर को भी झूठे आरोप के बिनाह पर आग में झोंक दिया जाता है। यह हमने इसी साल छत्तीसगढ़ में हुए एक मामले में देखा।
खबर लहरिया की जनवरी 2024 की प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया कि छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के मस्तूरी क्षेत्र, ग्राम भदौरा के राठौर परिवार ने 11 जनवरी को गाँव की 70 वर्षीय दलित बुज़ुर्ग महिला पर जादू-टोने का आरोप लगाते हुए उन्हें क्रूरता के साथ मारा। अपने अंधविश्वास में बुज़ुर्ग महिला को आग लगा दी और मरा हुआ समझकर फरार हो गए।
बुज़ुर्ग महिला ने पुलिस रिपोर्ट में बताया कि, ‘गांव के केजऊ राठौर, उसके बेटे, उसके परिवार के सदस्य और दो अन्य व्यक्ति जो बैगाई करने आये थे मुझे मेरे घर से रात में ज़बरदस्ती उठाकर ले गए। उनसे कहा, तुम टोनही हो, हमारे घर वालों को भूत-प्रेत धराकर परेशान करती हो कहकर मुझे खूब मारा। मुझे मरा हुआ समझकर मुझे फेंक कर भाग गए।’
इस मामले में कुल 9 आरोपियों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। यह तो सिर्फ एक मामला है लेकिन भीतरी क्षेत्रों में कई ऐसे मामले हैं जहां शक के बिनाह पर, जाति को आधार बना दलितों के साथ हिंसा की जाती है लेकिन उनमें आरोपियों को कभी सज़ा नहीं मिलती क्योंकि मामला अंदर ही दबकर रह जाते हैं।
दलितों के घर जलाये जाने के आंकड़े
रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में साल 2022, 2021, 2019 और 2018 में सबसे अधिक आगजनी के मामले दर्ज किए गए थे जिनमें अनुसूचित जाति के लोगों के साथ हिंसा की गई थी। बताया गया कि दलितों के घर, उनकी सम्पत्तियों को जलाना राज्य में बार-बार होने वाला अपराध है।
रिपोर्ट कहती है कि अगर हम बिहार में दलितों के खिलाफ हो रहे या हुए अपराधों को गौर से देखें तो उसमें कई चीज़ें सामने आती हैं। पहला यह कि राज्य में अनुसूचित जाति के खिलाफ हुए अपराध के मामले में जो थाने में दर्ज़ है, उसकी संख्या हर साल बढ़ रही है। वहीं इन मामलों में जब निपटारों की संख्या की तरफ देखा जाता है तो वह बेहद ही कम है। इसका मतलब यही है कि हिंसा तो बढ़ रही है लेकिन हिंसा करने वालों को सज़ा नहीं मिल रही, बस लंबित मामलों में यह मामले भी डाल दिए जा रहे हैं।
दलित हिंसा से जुड़े लंबित मामले
पुलिस द्वारा जांच के लिए लंबित मामलों की संख्या 2017 में लगभग 3,900 थी जो 2022 में बढ़कर 6,900 हो गई। इसमें वे मामले शामिल थे जिसमें या तो मामले को निपटाने के लिए किसी और जगह भेज दिया गया, वह मामले जिसमें पुलिस ने अंतिम रिपोर्ट पेश की ( सुनवाई के लिए आगे नहीं गए) और वह मामले जिसमें चार्ज शीट (परीक्षण के लिए भेजा गया) दायर की गई थी।
यह भी बताया गया कि अदालत तक पहुंचने वाले मामलों में भी कमी देखी गई। 99 प्रतिशत मामले ऐसे थे जो साल के आखिर थे लंबित थे, सिर्फ 1 प्रतिशत मामले ही ऐसे थे जिसमें परीक्षण (ट्रायल) पूरा हुआ था। दलितों के खिलाफ अपराध के लंबित मामलों की संख्या 2017 में लगभग 33,000 थी जो जो 2022 में बढ़कर 58,000 हो गई।
हाल ही में ज़ारी की गई नई सरकारी रिपोर्ट में भी बताया गया कि अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के मामलों में बिहार 6,799 (13.16%), ओडिशा 3,576 (6.93%) और महाराष्ट्र 2,706 (5.24%) के आंकड़े सबसे अधिक है।
अंततः, सारांश यही है कि दलितों के खिलाफ साल दर साल हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं लेकिन उनमें सुनवाई और जांच का स्तर उतना ही कम हो रहा है। यह लंबित और अनसुने मामले सिर्फ दलितों के खिलाफ हिंसा को बढ़ाने की तरफ इंगित करते हैं जहां हिंसा के खिलाफ न्याय पाने की न तो कोई समय सीमा है और न ही न्याय तक लोगों की पहुंच की सुविधा।
(डाटा स्त्रोत – राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो)
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