बुंदेलखंड की वह कलाएं जो धीरे-धीरे ख़त्म होने की कगार पर है।
सीमित संसाधनों में अपनी जरूरतों के अनुसार सामान बनाना भारतीय लोक कला की एक परंपरा रही है। जब प्लास्टिक के बर्तन चलन में नहीं थे और स्टील, एल्युमिनियम के बर्तनों की उपलब्धता काफी कम थी उस समय ग्रामीण महिलाएं कुशा घास और मूँज की मदद से मऊनी, डलिया बनाकर बर्तन के रूप में काम लेती थीं। लेकिन अब ये कलाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। या यूँ कहें की पूरी तरह से विलुप्त हो गई हैं। मूँज, शायद इस नाम को सुनकर आप चौक जरूर जाएंगे। लेकिन हम आपको बताते हैं कि अब से लगभग 10 साल पहले गाँवो में लोगों का मूंज का कारोबार हुआ करता था। कोई बेचता था तो कोई अपने घर या रिश्तेदारों के लिए मूँज का सामान बनाया करता था। झुंड झाड़ियों में उगने वाली मूंज से हाथों के पंखे चटाई बच्चों के खेल खिलौने रस्सी चारपाइयों के बान समेत दर्जनों प्रकार का सामान बनाया जाता था।
हर जगह दिखावे का शोर और चमक दमक की तरफ भागते लोग अपने कल्चर को ही भूलते जा रहे हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि मूंज से बने सामानों डलिया(फल फूल रखने के लिए), पिटरिया (मेकअप बॉक्स), सिकहुला, (आटा रखने का सामान), बेना और रोटी सर्वर आदि सामानों का महत्व भी अब मंद हो चला है।
खाली समय में महिलाएं बनाती थी मूँज का सामान
एक समय था जब आपको घर-घर में महिलाएं खाली समय में कुछ न कुछ बनाती मिल जाती थी लेकिन आज के जमाने में इन चीजों की जगह स्टील, इलेक्ट्रिक या फिर चाइनीज ने ले ली है। खाली समय में महिलाओं के हाथों की कला घर में एक अलग तरह की छाप छोड़ते थी और महिलाओं को ये सब बनाते देख छोटे- छोटे बच्चे भी सीखने का प्रयास करते थे।
क्या है मूंज कला?
सड़क के किनारे उगने वाले सरपत (एक तरह का पौधा) की ऊपरी परत को निकालकर सुखाया जाता है, जिसे मूंज कहते हैं। मूंज को खूब सुखाकर इसके गुच्छे बनाये जाते हैं, जिसे बल्ला कहते हैं। पानी में सूखा रंग डालकर खौलाया जाता है, इसमें इन बल्लों को भिगोकर रंगा जाता है। रंग में बल्लों को पकाया जाता है, जिससे खूब चटक रंग चढ़ता है। एक और प्रकार की विशेष घास जिसे कास कहते हैं, उस पर सादे और रंगे हुए मूंज को लपेट कर तरह-तरह का सामान बनाया जाता है।
बरसात में मिलती है घास
कुश घास आपको पुराने मेड़, या जंगल या फिर गाँव में तालाब के किनारे मिल जाएंगे। इनसे बने उत्पाद अधिक साफ्ट, कलर फुल और आकर्षण होते हैं, बरसात के दिनों में महिलाएं जंगल जाकर इसे काट लेती हैं। बाद में धूप में सूखाने के बाद जरूरत के अनुसार प्रोडक्ट तैयार करती हैं। चलिए अब बिस्तार से जानते हैं कि क्या कैसे बनाया जाता है।
बेना
बेना जिसे हम हैंड पंखा भी कहते हैं जो घर-घर में पाया जाता था लेकिन आज उसकी जगह पंखा ने ले लिया है। जब लोगों के घर में बिजली नहीं हुआ करती थी तो गर्मी दूर करने का यही एक मात्र सहारा हुआ करता था। महिलाएं कभी फ्री नहीं होती खाली समय में कुछ न कुछ बनाती रहती हैं उनमें से एक कला है बेना बनाना।
जानिये मूंज से बेना बनाने का सफर
वैसे तो बेना कई तरह का बनाया जाता है मूज का, बोरी का और कपड़े का। लेकिन मूज का सफर काफी मेहनती और मज़ेदार है। जब गांव में महिलायें मूँज निकालने एक साथ निकलती हैं तो काफ़ी अच्छा लगता है। मूज सरपत से निकाला जाता है फिर उसे चीर कर पतला किया जाता है और कई तरह के कलर करके उससे डिजाइन बनाई जाती है। बेना जब तैयार हो जाये तो उसके किनारे-किनारे पर कपड़े से सिलाई की जाती है, जिससे पंखा किया जाता है। लेकिन अब इसकी जगह बिजली के पंखे ने ले ली है। अब ये कल्चर मानों बिलुप्त सा होता जा रहा है। और हाँ एक बात तो बताना ही भूल गई जब शादी का सीजन होता था तब लोग पंद्रह दिनों से बेना बनाना शुरू कर देते थे एक अलग तरह का उल्लास होता था वो इसलिए की दूल्हे को अचरधराई जो देनी होती थी पर अब ये प्रथा बंद हो गई क्योंकि अब सब शादी में पंखा देने लग गये हैं। नहीं तो लोग बेना के साथ 5 समान देते थे. सिकहुला, कंघी सीसा बेना और मउनी? अब आप कहेंगे मउनी क्या होता है? आइये बताते हैं।
मऊनी या सिकहुली
पुराने जमाने में इन चीजों का बहुत महत्त्व था। छोटे- छोटे सामान देखने में भी बहुत अच्छे लगते थे, और काफी उपयोगी भी होते हैं। मउनी सरपत से निकाली गई मूज से बनाई जाती है जिसका बल्ला बनाया जाता था फिर उसे कई रंग में रंगकर बनाया जाता था। इसके लिए एक अलग तरह का सूजा होता था जिससे महिलाएं मउनी बनाई थी। मउनी में लोग दाना रखकर खाते थे या किसी मेहमान के आने पर गुड़ रखकर पानी देते थे। देखने में एक अलग ही आनंद की अनुभूति होती थी। और महिलायें तो डिजाइन के बारे में ही पूछने लगती थी ये डिजाइन कैसे बनाया? और खूब हंसी ठिठोली होती थी।
सिकहुला
सिकहुला भी मउनी का एक रूप है बस उसका आकार बड़ा होता है। सिकहुला में पहले जमाने के लोग आंटा और रोटी रखते थे। शादी-विवाह में भी इसका बहुत चलन था। जब लड़की की शादी होती थी तो लोग इसी में चावल, आंटा और दाल सजा कर देते थे। पर आज के समय में ये भी लगभग बिलुप्त होते दिखाई दे रहे हैं क्योंकि मार्केट में प्लास्टिक और स्टील की कई चीजें आ गई हैं। हाथों से बनाए गए उत्पाद मशीनों में बने सामानों की तुलना में ज़्यादा आकर्षक तो लगते ही हैं, साथ ही
इन पर किया गया काम भी सफाई से दिखता है। इसलिए अपनी कला और कल्चर को बचाये रखने के लिए शासन प्रसाशन को जरूर कोई पहल लेनी चाहिए जिससे यह कला फिर से जीवित हो सके।
कोविड से जुड़ी जानकारी के लिए ( यहां ) क्लिक करें।