खबर लहरिया Blog बिलकिस की लड़ाई इतिहास में “हिम्मत” और आवाज उठाने वालों का सहारा बनेगी

बिलकिस की लड़ाई इतिहास में “हिम्मत” और आवाज उठाने वालों का सहारा बनेगी

हिंसा के खिलाफ हर लड़ाई सबके साथ लड़ी जाएगी। वहां से भी जहां से कोई आवाज़ नहीं उठा रहा। उन ग्रामीण क्षेत्रों,कस्बों, मजरों से भी जिनके नाम कहीं दर्ज़ नहीं है। आवाज़ उठती रहेगी, जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं, मीडिया, नारीवादी संगठनों ने बिलकिस बानो के केस में किया। ज़रूरी है कि यह साथ ग्रामीण क्षेत्रों से सामने आने वाली हिंसाओं में भी हो। तभी बिलकिस की इस हिम्मत और न्याय की लड़ाई ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच उन्हें भी आगे आकर आवाज़ उठाने का हौसला देगी, क्योंकि यह लड़ाई साथ लड़ी जानी है, सबके साथ !!

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बिलकिस बानो के साथ उनकी वकील शोभा गुप्ता, वह महिला हैं जिन्होंने उनके साथ 20 सालों की लंबी न्याय की लड़ाई को सिर्फ उनके साथ लड़ा ही नहीं बल्कि जीया भी। वह लड़ाई जो आज भी ज़ारी है। जिसे आज भी जीया जा रहा है। वह लड़ाई जो एक पहचान,एक समुदाय, एक धर्म, एक जाति और इन सब चीज़ों के साथ सामाज में एक महिला होने व इसके साथ लड़ने,हिम्मत रखने,आगे बढ़ते रहने के समय काल व परिस्थिति को दर्शाती है।

बिलकिस का केस लड़ने के दौरान शोभा ने सिर्फ उनके केस को नहीं लड़ा,उन्होंने उनके साथ वह दर्द भी महसूस किया, जो बिलकिस महसूस कर रही थीं। यूं तो किसी के दर्द को पूरी तरह कोई समझ नहीं पाता पर किसी के दर्द का हिस्सा होना और जीना भी हर कोई नहीं कर पाता, जो शोभा गुप्ता ने बिलकिस की इस लड़ाई में किया, कर रही हैं। 

उन्होंने उसे उतने करीब से देखा, जितने करीब से वह यह लड़ाई को बिलकिस के साथ मिलकर लड़ रही थीं। यह लड़ाई उतार-चढ़ाव,हताशा,हिम्मत, दुःख,दर्द,दयनीयता,टॉर्चर,मानसिक क्षति से भरा हुआ था, जिसे शोभा आज भी याद करती हैं तो उनका शरीर वह सब आज भी महसूस कर पाता है। 

बिलकिस की न्याय पाने की लड़ाई, सबकी लड़ाई थी और यही वजह रही कि उस लड़ाई ने कभी दम नहीं तोड़ा। उनकी इस लड़ाई में उन्हें सामाजिक कार्यकर्ताओं,समाज,मीडिया व कई स्तर पर न्यायिक व्यवस्था व कानून का भी साथ मिला। शायद यही वजह रही कि “सबके साथ शुरू की गई यह लड़ाई इतने लंबे समय तक लड़ी जा सकी और लड़ी जा रही है”। उस दौर में जहां जब तक मामले को लेकर शोर नहीं मचता, वह मामला कहीं शांत होकर दब जाता है जैसा की अमूमन ग्रामीण स्तर पर हो रहे हिंसा के मामलों में देखा जाता रहा है। 

खबर लहरिया की प्रबंध सम्पादक मीरा देवी ने बिलकिस बानो की वकील शोभा गुप्ता से उनके केस के सफर, न्यायिक व्यवस्था, न्याय की लंबी लड़ाई, उससे जुड़े लोग व मामले, केस के दौरान उनकी मानसिक स्थिति व केस को लड़ते रहने के लिए उनकी हिम्मत और ज़रिये के बारे में बात की। मामले को ग्रामीण स्तर पर हो रही हिंसाओं व इसके पहलुओं से जोड़ने का भी प्रयास किया। उनके नज़रिये को समझने की कोशिश की कि उनके लिए बिलकिस बानो का केस क्या था, किस तरह से उन्होंने इस पूरी लड़ाई को देखा,समझा,सुना और जीया। किस तरह से यह मामला “न्याय पाने की लड़ाई” में एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। किस तरह से यह मामला ग्रामीण क्षेत्रों से आ रहे मामलों को आवाज़ और हिम्मत देने का काम कर सकता है। न्याय को लेकर उनके विश्वास को बरकरार रख सकता है!

एक महिला सर्वाइवर, महिला के रूप में उनकी पहचान, वह समाज जहां महिलाएं हमेशा से शोषित होते हुए आई हैं, हो रही हैं, वह दशक जब महिलाओं को लेकर न्याय सख्त नहीं थे, वह कानून नहीं थे जो आज के समय में कुछ हद तक हैं, उस दशक, उस दौर से उस समाज में एक महिला की लड़ाई, जिसे सबने साथ मिलकर लड़ा, यह केस प्रतिबिंब है इन सब चीज़ों का जिसे हम इस आर्टिकल में पढ़ेंगे। 

वीडियो इंटरव्यू देखें – Women’s Day Special- हिम्मत का दूसरा नाम: Bilkis Bano

भावनात्क एहसास व जज़्बा 

शोभा के लिए बिलकिस का केस लड़ना भावनात्मक तौर पर बेहद कष्टदायक रहा और आज भी है। उन्होंने सिर्फ बिलकिस के साथ खड़े होकर पूरे केस को लड़ा ही नहीं बल्कि बार-बार पढ़ा भी। इतनी बार पढ़ा कि अब रोकर उठ जाना था। यह मामले लड़ने कभी आसान नहीं होते। इस दौरान एक वकील से यह कोई नहीं पूछता कि आप पर क्या बीता? आपने क्या महसूस किया? आपने उस समय का सामना कैसे किया? आपने हिम्मत कहां से जुटाई? 

एक नारीवादी मीडिया होने के नाते और उस पहचान से जुड़े होने के कारण भी, खबर लहरिया की प्रबंध सम्पादक मीरा देवी ने शोभा गुप्ता से यह पूछा कि पूरे केस के दौरान भावनात्मक तौर पर वह क्या महसूस कर रही थीं? क्योंकि यह जानना बेहद ज़रूरी है कि यह दर्द सबने महसूस किया, जो-जो बिलकिस के साथ इस लड़ाई में शामिल हैं। यह जानना ज़रूरी है कि एक केस सिर्फ किसी एक व्यक्ति को ही या सिर्फ उसके जीवन को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि यह सबसे जुड़ा हुआ है। 

शोभा ने कहा, इन मामलों के बारे में आप जितनी बार पढ़ते हो, वह आपको कष्ट देता है। एक वकील के तौर पर इन मामलों को लेकर मानिसक तौर पर बहुत अभ्यास हो चुका होता है फिर हम वकील कोर्ट में जाकर रोते नहीं है। 

एक केस था मणिपुर का ‘थंगजाम मनोरमा’ का, जिसे मैं कर रही थी और यह मामला बहुत संघीन था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था और तारीख पड़ने वाली थी, और मैंने कोर्ट को कहा था कि “हर बार इसी फ़ाइल के तीन पेजों को पढ़ना मेरे लिए असंभव हो जाता है। मैं इसके बाद कई रात नहीं सो पाती हूँ”।

बिलकिस के केस में जितनी बार मैं उन फैक्ट्स को बोलती हूँ, मुझे उतनी बार उतना ही कष्ट होता है। मैं अभी-भी भावनात्क हो जाती हूँ और वो मुझे आएगा ही। वो है ही ऐसा की वो हमेशा आएगा, कि वो आपको तकलीफ देगा ही देगा। आप चींटी नहीं मारते अपने पैर से। 

एक कहानी सांझा करते हुए शोभा बताती हैं,

मैं एक बार अपने घर से ऑफिस की तरफ चलकर जा रही थी और मेरे सामने मेरे भाई के एक दोस्त खड़े थे। उन्होंने नमस्ते किया और मैं सुन नहीं पाई। कहा, दीदी नमस्ते। देखा तो कहा कि, आप इतनी स्ट्रांग महिला हो, नीचे देखर क्यों चलती हो। 

मैंने कहा, मैं किसी के डर से नहीं चलती हूँ नीचे देखकर। मैं बस यह कोशिश कर रही होती हूँ कि कहीं मेरे पैर के नीचे आकर कोई चींटी या कीड़ा मर न जाए तो इसलिए मैं बहुत ध्यान से चल रही होती हूँ। आप एक चींटी मारना बर्दास्त नहीं करते हो। 

वो पढ़ना और वो अत्याचार बार-बार पढ़ना आपको बहुत तकलीफ पहुंचाता है। उस तकलीफ को अभिव्यक्त करने के लिए भी आप कोर्ट जाते हैं और फिर आपको वहां रोना भी नहीं है तो यह भावनात्मक तौर पर एक ट्रामा है जिसे वकील होने के तौर पर आप उससे हर बार गुज़रते हैं। 

आप उस दर्द को भी जीते हो। एक वकील या कोई भी उस दर्द से अलग नहीं हो सकता। चाहें वह कोई भी मामला हो। 

फिर आगे सवाल करते हुए कहा,

एक महिला का शरीर लोगों के लिए है क्या? क्या मानसिकता है ये कि आप किसी के घर में नहीं घुस सकते हो आराम से, आप किसी के शरीर में घुस जाते हो। 

हम किस प्रकार की दुनिया में और किन लोगों के साथ जी रहे हैं। हमें नहीं पता कि हम जिस दूसरे व्यक्ति से मिल रहे हैं उसके अंदर किस प्रकार का जानवर बैठा हुआ है। यह चीज़ें झकझोड़ती है। बिलकिस के केस के फैक्ट्स ने भावनात्मक तौर पर उतनी ही तकलीफ पहुंचाई और हर बार पहुंचाती है। 

“मैंने कोर्ट में यही बोल रही थी कि मैं 20 साल से इस मुकदमे को कर रही हूँ। मुझे पहले दिन जो इसे लेकर तकलीफ हुई थी, आज उससे ज़्यादा ही होती है क्योंकि समझ बढ़ती जाती है। तकलीफ नहीं कम होती है। भावनात्मक तौर पर वह टॉर्चर, वह ट्रामा है। यह हम सबके साथ हमेशा रहेगा।”

एनसीआरबी की जब हम रिपोर्ट देखते हैं तो यह नहीं पता चलता कि रिपोर्ट ज़्यादा हो रहा है या क्राइम ज़्यादा हो रहा है। संख्या दिखती है ज़्यादा। हम यह गलती न करें कि हम इस बात को बोल दें कि वह नार्मल/साधारण है। इसलिए…… 

आवाज़ उठाना ज़रूरी है और उस आवाज़ को उतने ही दम के साथ हर घटना के साथ उठाना ज़रूरी है। 

जब हम आवाज़ उठाते हैं तो हम यह भी देखते हैं कि हमारी आवाज़ के समर्थन में कौन-सी पहचान सबसे आगे है, जो शोर के साथ हमारी आवाज़ को बुलंद कर रही है। एक पहचान जिसमें समाज के चहरे के साथ कई पहचाने शामिल होती हैं, जहां ये देखा जाता है कि समान पहचान का साथ देने पर आप पर ही यह सवाल दाग दिया जाता है कि अरे! ये तो एक ही जाति से आते हैं। समाज की भाषा में कहूं तो महिला की जाति और इसलिए वह इतनी ज़ोर से इस पर आवाज़ उठा रहे हैं, क्यों? क्योंकि हिंसा महिला की पहचान वाली व्यक्ति के साथ हुई है और समर्थन में कौन हैं? महिलाओं के चहरे। आवाज़ किसकी है? महिलाओं की!

मूल बात को छोड़कर की आवाज़े हिंसा के खिलाफ उठाई जा रही है, केंद्र महिला की पहचान पर आकर अटक जाती है। 

इसी से जोड़ते हुए मीरा देवी, शोभा गुप्ता से सवाल करते हुए पूछती हैं कि एक नारीवादी मीडिया होने के नाते जहां पूर्णतयः सिर्फ महिलाएं काम करती हैं, हम पर हमेशा यह सवाल उठाया जाता है कि हम सिर्फ महिलाओं से जुड़े मुद्दों को कवर करते हैं। एक महिला वकील होने के नाते उनका क्या अनुभव है और वह इसे किस तरह से देखती हैं?

शोभा – अगर कुछ भी गलत हो रहा है तो वह हर किसी को गलत लगना चाहिए। समाज के तौर पर आपको ज़्यादा यह विचार करना पड़ेगा। अगर महिलाओं के मुद्दों के लिए भी सिर्फ महिलाएं ही बोलती हैं तो अन्याय भी उनके साथ और उससे लड़ने व निपटने का ज़िम्मा भी आपने उन्हें ही दे दिया या समाज ने हमेशा पल्ला झाड़ के ही रखा है। 

सिर्फ महिला हिंसा नहीं बल्कि सामाजिक हिंसा है 

महिलाओं के साथ होने वाले क्राइम को यह कहना ही गलत है कि यह सिर्फ महिलाओं के खिलाफ ही क्राइम है। 

“जब रेप होता है तो उसे भुगतने वाला जोकि सीधे तौर पर महिला है पर उसके साथ वह पूरा परिवार भी भुगतता है। उस परिवार में पुरुष भी हैं तो क्या वह उस परिवार के लिए जिस परिवार में बच्ची का रेप हुआ, क्या वह पारिवारिक अन्याय नहीं है? क्या उसे पारिवारिक हिंसा नहीं कहा जाना चाहिए? वो उसका दुःख भी झेलेंगे, जीतें हैं वह उसके साथ रहते भी हैं। 

दुःख ज़्यादा होता है जब आपको पता होता है कि मेरे साथ क्या हो रहा है। जब आपके प्रिय व्यक्ति के साथ कुछ होता है तो आप उसे दोगुना करके जीते हैं क्योंकि आप समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वो कैसे जी रहा है उस समय। उसके जूते में घुसने के लिए आप और ज़्यादा महसूस करते हो उस दुःख को। 

यह कहकर हम अपनी समझ को कमज़ोर करते हैं जब हम यह कहते हैं कि “महिलाओं के साथ अन्याय हुआ है या महिलाओं के मुद्दे हैं”। यह मेरा एक निजी विचार है और मुझे लगता है कि हम उस पूरी लड़ाई को ही बेहद मुश्किल कर देते हैं, जब हम कहते हैं, “महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को हम डील कर रहे हैं या ये लड़ रहे हैं मेरे लिए, यह समाज के साथ होने वाला अन्याय है।” 

अगर आप पांच घर की बात करते हैं और पांचों घर की बच्चियां शाम तक घर नहीं आई हैं और वह चिंता कर रहे हैं तो वह सिर्फ उस महिला या बच्ची के लिए मुश्किल समय कैसे है? यह पांच तो सिर्फ संख्या है जिसे बड़ा करके देखा जा सकता है जिसमें यह परिवार इस डर के साथ जी रहा है कि कहीं बच्ची के साथ कुछ गलत तो नहीं हो गया। वह पूरा समाज डर में जी रहा है क्योंकि आये दिन किसी न किसी महिला के साथ वह अत्याचार हो रहा है तो यह क्राइम भी समाज के खिलाफ है और इसका सामना भी समाज को मिलकर करना चाहिए। 

एक नारीवादी मीडिया होने के नाते हम यह बात बेहतर तौर पर समझते हैं कि किसी भी हिंसा का असर सामूहिक तौर पर होता है। वहीं अगर वह समाज जो ग्रामीण इलाकों में बसता है और साथ आने से मना कर दे, तो वह हिंसा सिर्फ एक परिवार तक सिमट कर रह जाती है, जो अकसर खबर लहरिया की रिपोर्टिंग में दिखाई भी देता है। वहां पुलिस की भूमिका भी धुंधली ही दिखाई देती है जैसे बिलकिस के मामले में शोभा गुप्ता ने बताया। 

शुरूआती दौर में पुलिस की भूमिका 

जब वह इस केस में लाई गईं (बिलकिस बानो मामला) तो ऐसा नहीं था कि किसी ने डायरेक्ट उन्हें इसके लिए संपर्क कर लिया था। उस समय राष्ट्रिय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष ( सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस ही इसके अध्यक्ष उस समय के अनुसार बन सकते हैं) जस्टिस ए.एस आनंद थे। उस समय जब 2002 में गुजरात दंगा हुआ और जब बिलकिस के केस को बंद कर दिया गया। पुलिस ने क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल कर दी। 

मतलब पुलिस इसमें अपने संबंधित मैजिस्ट्रेट को एक क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल करती है जिसमें यह कहा गया कि उन्हें इस मामले में कुछ मिला नहीं इसलिए अब वह इसे आगे नहीं बढ़ा सकते। अब इसमें बात चाहें यह हो की जो तथ्य है वह साबित नहीं हो पा रहे हैं या आरोपी नहीं मिल पा रहे। इन सब वजहों के आधार पर पुलिस केस फ़ाइल कर सकती है कि इन सब वजहों की वजह से यह केस नहीं बन रहा। इसमें आगे जांच नहीं हो सकती। 

इसके बाद उन्होंने सर्कल मजिस्ट्रेट गुजरात में एक क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल की, यह बोलकर कि इसमें सर्वाइवर ने आरोपियों के नाम नहीं लिखे हैं। बिना नाम के उन्हें ढूढ़ना उनके लिए मुश्किल होगा। इस तथ्य पर उन्होंने रिपोर्ट सब्मिट की और बिलकिस को नहीं बताया। 

सर्कल मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट को मंज़ूर नहीं किया और आगे जांच के लिए पुलिस को कहा। कुछ महीनों के अंदर दोबारा एक रिपोर्ट फ़ाइल की गई “जिसमें उन्होंने बोला कि हमें इसमें कुछ नहीं मिल रहा है। इसमें कुछ है नहीं आगे करने के लिए।”

कानून कहता है कि पुलिस सर्वाइवर या शिकायतकर्ता को एक नोटिस ज़ारी करेगी। उनके हिस्से की बात सुनी जायेगी फिर यह तय किया जाएगा कि क्लोज़र रिपोर्ट को स्वीकार करना है या नहीं। कोर्ट ने बिलकिस को बिना नोटिस दिए क्लोज़र रिपोर्ट स्वीकार कर ली। 

राष्ट्रिय मानवाधिकार की भूमिका व अहम रोल 

जब यह मुद्दा राष्ट्रिय मानवाधिकार के पास सामाजिक कर्यकर्ताओं के ज़रिये आया, जिसमें यह पता चला कि क्लोज़र रिपोर्ट को मान लिया गया है और बिलकिस का जो केस था जिसमें 14 लोगों की हत्या हुई थी, उसके साथ दो अन्य महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था – यह मुद्दा अपने आप में बहुत ज्वलन था। राष्ट्रिय मानवाधिकार के लिए यह समझ पाना बहुत मुश्किल था कि ऐसा केस कैसे बंद हो सकता है। 

यह तथ्य था कि बिलकिस ने आरोपियों के नाम दिए थे और मानवाधिकार आयोग के पास इसकी रिपोर्ट थी जो बिलकिस ने शिकायत लिखवाई थी। जस्टिस आनंद को उस समय किसी ने उनका (शोभा) नाम सुझाया जो बिना डरे इस मामले को लड़ सके। उन्हें केस की फ़ाइल दी गई। उन्होंने बात किया और पेटिशन फ़ाइल कर दी। 

जब सुप्रीम कोर्ट के सामने मामला आया तो यह तो ज़ाहिर सी बात थी कि क्लोज़र (बंद करना) गलत था और उस समय गुजरात दंगो के मामले आये दिन आ ही रहे थे। स्टेट ऑफ़ गुजरात के वकील एडिशनल सॉलिसिटर जनलर ने भी कंसेंट (मंज़ूरी) दिया फिर मामले में कोर्ट ने सीबीआई को आगे की जांच का आदेश दिया।

“सीबीआई की जांच मामले का टर्निंग पॉइंट था, उनके द्वारा कमाल का इन्वेस्टीगेशन किया गया”- शोभा ने कहा । 

डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर जयंती रावी की भूमिका 

पुलिस ने उस रिपोर्ट में आरोपियों का नाम नहीं लिखा था, जो रिपोर्ट सौंपी गई थी। उस समय एक डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर आई थीं जयंती रवि,(मामला 3 तारीख का है) 4 तारीख की सुबह बिलकिस को रिलीफ कैंप ले गए। वहां 4 और 5 तारीख के बीच में उन्होंने अपनी शिकायत लिखवाई। जितने भी लोग आ रहे थे सबको वह सारी बातें डिटेल में बता रही थी। 

“सबको उसकी पूरी कहानी पता थी।”

जब सोमा भाई नाम के हेड कांस्टेबल ने रिपोर्ट लिखी तो वह बहुत तोड़-मरोड़कर लिखी। जैसे बिलकिस ने बोला 24-25 लोग दो जीप में भरकर आये थे। उसने लिखा कि चार सौ-पांच सौ लोग जीप में भरकर आये थे। अब 400-500 लोग दो जीप में भरकर नहीं आएंगे। वह इनमें से 12 आरोपियों को तो नहीं पहचान सकती तो केस बस वहीं खत्म हो जाता है। 

जब 6 तारीख की शाम को डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर बिलकिस का बयान लेने के लिए आईं तो उन्होंने अपने सब-ऑर्डिनेट को सब लिखने को कहा। उन्होंने सब कुछ हाथों से लिखा। वह सबको एक ही कहानी बता रही थीं। उन्होंने यहां सबसे अच्छा काम यह किया कि अपने ऑफिस जानकर उन्होंने यह सब टाइप करवाया और जितने भी बड़े ऑफिसर्स हैं डीसीपी,एएसपी सबको वह स्टेटमेंट भेजा और एफआईर दर्ज़ करवाई। इसके आलावा वह यह भी निर्देश देकर आईं कि बिलकिस का रेप के लिए मेडिकल कराया जाए क्योंकि उसका सही तरह से मेडिकल नहीं हुआ था। 

यहां से डॉक्यूमेंटेशन के बाद प्रक्रिया कुछ आगे बढ़ी। क्लोज़र रिपोर्ट में ये सब डॉक्यूमेंट नहीं डाले गए थे और उन्होंने डाले थे। अब जब सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट के जांच के आदेश के बाद तथ्य सामने रखे, वह काफी चौंकाने वाले थे। उसमें यह बताया गया कि शवों को शिफ्ट करके किसी और जगह लेकर जाया गया था। वहां पर एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदकर वहां सात शवों को एक के ऊपर फेंका गया था। इन सभी शवों के सिर नहीं थे जब वो गड्ढा खोला गया था। कुछ शव गायब भी थे। 

जांच में यह भी सामने आया था कि पुलिस वालों ने वहां आस-पास के गाँव से 90 किलो नमक खरीदा और उसे उन शवों पर डाला। इसे करने के पीछे यह कहा गया कि उन्होंने दफनाया है क्योंकि मुस्लिमों में यही रिवाज़ होता है।  फिर सवाल किया गया कि बिलकिस तो थी और दूर के अन्य रिश्तेदार भी थे जो ये आखिरी रिवाज़ कर सकते थे फिर यहां से पुलिस के काम की परतें खुलती गईं। 

डॉक्टर्स द्वारा किया गया गलत पोस्टमॉर्टम 

जिन डॉक्टर्स (कपल डॉक्टर) ने शवों का पोस्टमॉर्टम किया और पोस्टमॉर्टेम की जो फोटोज़ ली गई थी, उसके हिसाब से “शवों में महिला के शव की आंखो में खून है, नाक में खून है, प्राइवेट पार्ट्स से सफ़ेद धात दिखाई दे रहा  है, ऊपर के ऊपर थे और नीचे के कपड़े नीचे थे” जिन्हें देखकर पता चल रहा था कि इनका रेप हुआ है”। 

पोस्टमॉर्टेम में रेप के मुताबिक़ बॉडी का मेडिकल परीक्षण नहीं किया गया क्योंकि कोई रिपोर्ट ही नहीं थी। यह देखा गया कि छाती पर बहुत बड़ा पत्थर रखा हुआ था। छाती एक दम दबी हुई थी। किसी का सिर फटा हुआ था। इस तरह के शव थे पर पोस्टमॉर्टेम में ऐसा कुछ भी नहीं था। पंचनामा में तो शव की स्थिति के बारे में था लेकिन पोस्टमॉर्टेम में कहा गया कि कोई ख़ास चोटें नहीं हैं। पोस्टमॉर्टेम गुमराह करने वाला था। 

सीबीआई ने जब आखिर में चार्जशीट फ़ाइल की तो वह सिर्फ 12 लोगों के खिलाफ नहीं थी। उन्होंने उसमें दोनों डॉक्टर्स, 6 पुलिस कांस्टेबल जिसमें सोमा भाई भी था जिसने एफआईआर लिखने में गड़बड़ की थी। इसके अलावा इसमें वह लोग भी शामिल थे जिन्होंने सबूतों के साथ छेड़छाड़ किया। गड्ढा खुदवाया, शवों को यहां से वहां किया , नमक खरीदना आदि के लिए लोगों के खिलाफ चार्जशीट हुई। सब पर मुकदमा हुआ। इस मुकदमे के prosecution वकील (अभियोग पक्ष के वकील) थे मिस्टर शाह, उन्होंने कमाल का काम किया। इन सबको उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई जो उनके (शोभा) अनुसार कम है।   

निर्भया के मामले में हमने देखा था कि आरोपी को मौत की सज़ा दी गई थी। वहीं इस मामले में जहां इतनी क्रूरता से हत्या की गई है, तीन महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है, उनमें से एक गर्भवती है, अन्य दो जिनमें से एक उनकी माँ हैं और एक भतीजी हैं जिनकी बाद में हत्या भी हुई। इसके अलावा आठ लोग नाबालिग थे जिसमें बिलकिस की दो छोटी बहनें थीं, दो छोटे भाई,उसकी दो भतीजियां और एक दिन की बच्ची थी, जब वो जान बचाकर भाग रहे थे तो उस समय पैदा हुई थी। उसकी भतीजी की बेटी थी। चाचा-चाची और जोभी कुल मिलाकर 14 लोग थे, यह सब brutal मर्डर था। ऐसा नहीं था कि चार लोगों को खड़े करके गोली मार दी गई हो।  

इसके बाद सीबीआई और सभी आरोपी अपील के लिए हाई कोर्ट गए। आरोपियों ने कहा कि सज़ा कम होनी चाहिए। वहीं सीबीआई ने बढ़ाने को कहा। ट्रायल कोर्ट ने सोमा भाई के आलावा और किसी पुलिस वाले व डॉक्टर्स को conviction (दोषी करार) नहीं दिया था। हाई कोर्ट ने दोनों को दोषी करार दिया और बचे हुए 5 पुलिस वालों को भी दोष दिया। यह देखा गया कि हाई कोर्ट ने दी हुई सज़ा को बढ़ाया नहीं। 

शोभा ने कहा, “हाई कोर्ट ने इसमें साफ़ कहा कि इस केस में इन्वेस्टीगेशन सबसे बड़ा विलन है।” यह वह केस है जहां जानबूझकर केस को खराब करने के लिए इन्वेस्टीगेशन करा गया है। 

सुप्रीम कोर्ट में जब अपीले आईं तो उन्होंने सबको खारिज कर दिया, कहा गया कि सबको बहुत हलके में छोड़ दिया गया है। 

जब उनके (शोभा) द्वारा शुरू में पेटिशन डाली गई थी जब सीबीआई ने चार्जशीट फ़ाइल की और वह चार्जशीट सुप्रीम कोर्ट में सब्मिट हुई। तब हमने बोला था कि आरोपियों का ट्रायल ट्रांसफर होना चाहिए फिर हमने  ट्रांसफर पेटिशन डाली। उसमें गुजरात से उन्हें मुंबई लाया गया। मुंबई में स्पेशल कोर्ट में ट्रायल चला। 

अब एक चीज़ और जो उन्हें करना बाकी था, वह था compensation (मुआवज़ा) कि बिलकिस ने इतना suffer (झेला) किया है। 

यहां राज्य का एक बहुत बड़ा रोल हो जाता है जब उनकी एजेंसी जो लॉ और आर्डर को देखती है जिसे बिलकिस के साथ मिलकर खड़े होना था, वह एजेंसी जो न सिर्फ पूरी तरह फेल हुई बल्कि उसने दूसरी तरफ जाकर काम करा। 

तो कोर्ट ने इस केस के तथ्यों को मद्देनज़र रखते हुए हमारे देश के इतिहास में सबसे ज़्यादा बड़ा compensation (मुआवज़ा) दिया। 50 लाख मुआवज़ा दिया गया, एक घर देने को कहा गया और साथ में उन्हें जॉब देने को कहा।  

वह जॉब ले नहीं पाई क्योंकि अनजान लोगों के बीच में वह अभी भी नहीं जा सकती। उसे डर रहता है। 

इस मामले में सरकार या राज्य ने मिलकर बिलकिस के लिए वह नहीं किया जो उन्हें करना चाहिए था। वहीं ग्रामीण मामलों को लेकर यह भी माना कि वहां तक न्याय की पहुँच बेहद चुनौतीपूर्ण है। 

क्योंकि यहां न तो सरकार दिखाई देती है और न ही राज्य या ये कहें कि ऐसे जगहों से हिंसा के मामले सामने आते हैं जिनके नाम तक रिकॉर्ड से बाहर होते हैं। यह खबर लहरिया अमूमन अपनी रिपोर्टिंग में देखती आई है। बहुत कम बार होता है कि उन्हें किसी एनजीओ या किसी भी तरह की सहायता मिले। 

आर्थिक स्थिति व सामजिक कार्यकर्ताओं का साथ 

बिलकिस के मामले में उनके पास सामाजिक कार्यकर्ताओं का काफी सहयोग रहा। कहा, एक लड़ाई से बचना काफी नहीं रहता है। बचे रहना और लड़ने के लिए आये दिन कोर्ट जाना पड़ता है, वकीलों से लड़ना पड़ता है, उसमें पैसे कहां से आते हैं? यह 2002 का मामला है। 2003 में क्लोज़र रिपोर्ट आई है और सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर हुआ इन्वेस्टीगेशन। 2004 में ट्रायल शुरू हुआ, 2008 में जाकर ट्रायल ख़त्म हुआ। 

यह ट्रायल आप अकेले हैंडल नहीं कर सकते। इस मामले में बिलकिस खुशकिस्मत थी क्योंकि उसके पास सामाजिक कार्यकर्ताओं का सपोर्ट था। उनकी टीम थी जो उनके साथ आकर खड़ी हुई थी। लड़ाई लड़ने के लिए अकेले होना काफी नहीं है या तो ये हो कि आपका लिटिगेशन (मुकदमा) पूरा सरकार ले ले, और पुलिस व सरकार काम कर रही है तो हम आराम से घर बैठ सकते हैं। 

यहां बात एक राज्य की नहीं है। बड़े तौर पर जब हम देखते हैं तो वो आरोपी चाहें पैसे वाला हो या नहीं, वो अपना रास्ता बनाते हैं पुलिस वालों के ज़रिये और दुःख की बात यह है कि पुलिस वाले मैनेज होते हैं। ऐसे नहीं हो पाता कि आपको हर मुकदमे में सौ प्रतिशत ईमानदार पुलिस वाले मिल जाए जो दम ठोककर उस महिला के साथ खड़े हो, जिसके साथ अन्याय हुआ है। वो ये कहे “ये हमारा काम है, आपका काम तो बस बताना है”।

कानून के हिसाब से सरकार वकील देती है लड़ने के लिए और रुपरेखा के हिसाब से ये मामला भी ऐसा बनता है। जब सरकार व पुलिस वाले अपना काम करते हैं तो फिर इसमें आपको संस्थाओं की ज़रूरत नहीं है। मुश्किल वहां आती है जब हम देखते हैं कि एक महिला को अपनी एक एफआईआर दर्ज़ कराने में ही जान निकल जाती है। पुलिस वाले वहां ही केस को खत्म कर देते हैं। 

आप पहले जो अपराधी की बेल हुई है, उसके खिलाफ शिकायत करेंगे, फिर वहां उसकी जान खतरे में आ जायेगी। अच्छे prosecutor (अभियोक्ता) से लेकर सही बहस होना, हर पड़ाव पर आपकी लड़ाई होती है। आपके पास अगर परिवार का सपोर्ट है और वह पैसे लगा सकते हैं तो फिर आपको संस्थाओं की ज़रूरत नहीं है। 

सवाल यह है कि आपके यहां कौन ज़्यादा suffer/ झेलता करता है? वह जो आर्थिक व पारिवारिक तौर पर ज़्यादा कमज़ोर होते हैं, वह सबसे ज़्यादा झेलते हैं। उनके साथ अन्याय भी ज़्यादा होते हैं। वो दयनीय हो जाते हैं। वो प्रताड़ित होने के लिए उपयुक्त हो जाते हैं क्योंकि कोई जॉब के लिए परेशान हैं, कई कोशिश कर रहे हैं। हमने कई मामलों में देखा है कि जहां जब वह किसी होटल में जॉब के लिए गईं और उसे कुछ नशीली दवा मिलाकर पिला दिया गया। वो वहां शोषित (exploit) होने के लिए नहीं जा रही है। वह समाज की दृष्टि में दयनीय व उपलब्ध (available) हो गई है वो इसलिए क्योंकि आप उनसे मिल पा रहे हो। 

समाज व मीडिया कवरेज: रोल 

“बिलकिस को जो सपोर्ट मिला, वह उसे विश्वभर से मिला”। लोगों ने उसका इतना साथ दिया कि उसे एहसास ही नहीं होने दिया कि वह अकेली है।    बिलकिस के पूरे मुक़दमे में हर कदम पर समाज उसके साथ खड़ा था। मीडिया ने इस केस में कमाल की भूमिका निभाई। सरकारें बदलती रही, माहौल बदलता रहा है, 2002 से 2024 के बीच सब कुछ एक जैसा नहीं रहा हमेशा पर मीडिया ने कभी भी एक भी बार अपने कदम पीछे नहीं लिए। हमसे ज़्यादा आवाज़ मीडिया ने उठाई। 

मीडिया में यह मामला कहने की मेरी ज़िम्मेदारी है क्योंकि इस कहानी को न सिर्फ सुनना और समझना ज़रूरी है बल्कि उसे सही ढंग से समझना व सुनना ज़रूरी है। 

जब इस केस का रेमिशन (अपराध के लिए रिहा करना या माफ़ करना) हुआ, तो समाज के साथ-साथ सब खड़े हो गए। हम इस बात के लिए सबकी पीठ थपथपाते हैं कि समाज के तौर पर हमने कभी हार नहीं मानी। मीडिया समाज का हिस्सा है। न समाज ने हार मानी और न ही मीडिया ने। लोग खड़े हुए और साथ दिया। साफ़ शब्दों में मना किया कि हम इसे नहीं सहेंगे। इसी वजह से कोर्ट को भी अपनी भूमिका निभानी पड़ी। 

बिलकिस मामले में सबकी मिलीजुली भूमिका रही। यह केस exceptional/ विशेष था जहां इतने बड़े पैमाने पर लोगों का सपोर्ट मिला। हर अपराध में राज्य को उसके साथ खड़ा होना चाहिए जिसके साथ अपराध हुआ है। 

वहीं खबर लहरिया जब लोकल स्तर पर हुए हिंसा से जुड़े मामलों को देखती है तो पता चलता है कि हर मामले में उतना शोर नहीं होता जितना की होना चाहिए जो हमें इस मामले में देखने को मिला। हर हिंसा को लेकर शोर नहीं मचता, हर हिंसा के खिलाफ समाज साथ नहीं देता, या डटा नहीं रहता, इसलिए ज़रूरी है कि 

“आवाज़ उठती रहनी चाहिए”, जैसा की शोभा गुप्ता ने कहा। 

यह आवाज़े जिनकी बात हो रही है, ग्रामीण इलाकों में वह आवाज़ ही नज़र नहीं आती और अगर कोई आवाज़ उठाता है तो वह आवाज़ इर्द-गिर्द घूमकर वहीं फिर वहीं-कहीं दब जाती है। कोई इन इलाकों व कस्बों में होने वाली हिंसाओं को नहीं देखता, क्योंकि वह उनके नज़र में नहीं आते। बिलकिस के केस की तरह अगर समाज व मीडिया ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े हिंसा के मामलों की भी आवाज़ बनता और वही कार्य करता, जो इस मामले में देखा गया तो शायद यहां आवाज़ें सुनाई देने से पहले ही गायब नहीं होतीं।

कानून की समझ शिक्षा में हो शामिल 

शोभा का कहना है, ज़रूरी है क़ानूनी मसलों को मूलभूत शिक्षा में शामिल किया जाए ताकि किसी भी समस्या हेतु लिखते समय पता हो कि किस विभाग को लिखना है,किस अधिकारी को लिखना है। वो नंबर कौन-से हैं जो एक महिला इस्तेमाल कर सकती है। अगर कोई उसे आँख मारकर जा रहा है, या उसके साथ शारीरिक हिंसा की तो ऐसे में 112 या 181 नंबर पर कॉल कर दीजिये। यह करने के लिए भी आपके पास इसकी सूचना होना ज़रूरी है। 

इससे जोड़ते हुए खबर लहरिया की प्रबंध संपादक सवाल करती हैं, जब इन सब चीज़ों के बारे में लोकल में देखते हैं तो इसे लेकर उतनी तेज़ी से काम नहीं किया जाता।

यह चीज़ें खबर लहरिया की रिपोर्टिंग में अकसर देखी जाती है कि या तो ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को इन नंबर्स की जानकारी नहीं होती या कई बार फोन करने पर भी इसे कोई नहीं उठाता। बहुत ही कम बार होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा से जुड़े मामलों में किसी को भी इन नंबर्स के ज़रिये मदद मिल पाती हो। वहां भी सबसे बड़ा सवाल शिक्षा व पहुंच का होता है। पहुँच जो ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच ही नहीं पाई, फिर वहां शिक्षा और जानकारी? यह ऐसा सवाल है जिसका हल आज तक नहीं हो पाया। 

वहीं जहां शिक्षा व जानकारी पहुँच सकती है, वहां लोगों को इस बारे में जानकारी होना अहम हो जाता है। इसके साथ-साथ…… हमें यह पता होना चाहिए कि जब हम इन नंबरों पर कॉल करते हैं तो हमें क्या बताना है। अगर घरेलु हिंसा हुई है तो उसे बताना पड़ेगा कि उनके साथ घरेलू हिंसा हुई है लेकिन अधिकतर लोगों को नहीं पता होता कि उन्हें क्या बताना चाहिए। देश में कानून तो बन गए पर इसे उस हर एक व्यक्ति तक नहीं पहुंचाया गया जिसे इसकी ज़रूरत है। 

कुछ मामलों में जहां ये कहा जाता है कि मामला उनके थाना क्षेत्र का नहीं है और लोगों को पता नहीं होता कि वह किसी भी थाने में रिपोर्ट दर्ज़ करा सकते हैं। ऐसे में अगर कोई परिवार अपनी बच्ची की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवा रहा है और उनसे यह कहा जा रहा है कि वह सिर्फ अपने थाने में रिपोर्ट लिखवा सकते हैं। ऐसे में एक थाने से दूसरे थाने जाने में बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार हो जाता है। अगर परिवार को पता होता तो शायद इतना समय नहीं लगता और बच्ची बच जाती। अगर लोगों को जानकारी होगी तो पुलिस वाले भी ढंग से काम करेंगे। 

यहां सवाल यह भी है कि अगर परिवार को पता है और थाने में उन्हें कहा जा रहा है कि वह अपने थाने क्षेत्र में ही जाकर रिपोर्ट दर्ज़ करवाए तो ऐसे में क्या? आज तक या ये कहें अभी तक कई लोग सिर्फ यही जानते हैं कि मामलों की रिपोर्ट सिर्फ उनके थाना क्षेत्र में ही लिखी जायेगी फिर सही जानकारी लोगों तक पहुँचाना किसका काम है? 

376 का अपराध – अगर इस धारा के बारे में बच्चों की किताबों में डाल दिया जाए तो उन्हें यह जानकारी रहेगी कि इस धारा के अंतर्गत रेप करना अपराध है, ज़बरदस्ती करना अपराध है और इसके लिए सख्त सज़ा है। यौनिक हिंसा, रेप से जुड़े मामलों को नुकड़ नाटकों के ज़रिये बताना ज़रूरी है कि इसके बाद महिला की ज़िंदगी कैसे होती है, उस पर क्या गुज़रती है, इसके बारे में सबको पता होना चाहिए। हर एक व्यक्ति को, अपराधी को भी, अगर वह ऐसा कुछ करता है तो उसका क्या परिणाम है। लोगों को यह बताना ज़रूरी है कि जिंदगियां एक की नहीं दोनों की खराब होती है। अपराध करने वाले की भी और जिसके साथ हुई है उसकी भी। इसलिए इन चीज़ों के बारे में पता होना ज़रूरी है। 

अगर शहरों में ऐसा कुछ हो रहा है तो उसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से सम्पर्क करिये। गांवो में अगर यहां तक पहुँच नहीं है तो आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को इसे बारे में बताइये। अगर महिला को आर्थिक रूप से मदद चाहिए या जॉब भी चाहिए तो वह यह उन्हें कह सकती है कि उन्हें यह सब चीज़ें उपलब्ध कराई जाए। 

वहीं खबर लहरिया की रिपोर्टिंग के अनुसार, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को भी इस बारे में जानकारी नहीं होती कि उनके कार्य में यह चीज़ें भी शामिल हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की पहुँच हर घर तक होती है। अगर महिलाओं को इसकी जानकारी होती, तो उनके साथ होने वाली हिंसाओं को लेकर वह मदद मांग पातीं लेकिन उन्हें कभी इस तरह की जानकारी दी ही नहीं गई। ऐसे में न वह मदद मांग पाती हैं और न ही हिंसा के बारे में कभी किसी को बता पाती हैं। 

शोभा का कहना है….. हमें अपने अधिकारों के बारे में पता होना चाहिए। हमें अपनी existence पर एक कीमत का टैग लगाना ज़रूरी है। आपके हक़ के साथ-साथ इस बात को समझना ज़रूरी है कि राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह आपका ध्यान रखे। राज्य वहां वह भूमिका निभाए। बेचारा होने से नहीं होगा। आपको हिम्मत अंदर से लानी होगी और हिम्मत लाना ज़रूरी है। 

हिम्मत का पर्यायवाची है ‘बिलकिस’

खबर लहरिया की प्रबंध सम्पादक मीरा देवी से बातचीत में शोभा गुप्ता ने कहा, इस पूरे मामले में मेरा कोई ख़ास रोल नहीं है। मैनें बस इसमें एक एडवोकेट के तौर पर भूमिका निभाई। तारीफ इसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं की है जिन्होंने उसका हाथ पकड़ा और छोड़ा नहीं,तारीफ इसमें बिलकिस की खुद की है।

अगर दुनिया भी आस-पास आकर खड़ी हो जाए न, हिम्मत आपको खुद बटोरनी पड़ती है। 

बिलकिस के सामने उसकी माँ, भाई,बहन,काका,काकी सबको निर्मम तरीके से मार दिया गया। उसकी पहली बच्ची को उसके सामने मार दिया गया। वह उस समय गर्भवती है। ऐसे में जब उसे रात में होश आता है और वह देखती है कि वह पूरे जंगल में अकेली है। 

वो वहां अकेले पहाड़ी के ऊपर चली जाती है और इंतज़ार करती है। दिन होने का इंतज़ार करती है। लाशों पर से कपड़े उठाती है क्योंकि उसके पास कपड़े नहीं थे। कपड़े सारे तार-तार हो गए थे। पास के एक गांव में जाती है,कपड़े मांगती है और लौटकर आती है। जब उसे रिलीफ़ कैंप में ले जाते हैं तो वह हर व्यक्ति को पूरी बात बताती है। वह ऐसा क्यों बताती है? क्योंकि उसके अंदर था कुछ ऐसा जो यह कहता था कि इसमें न्याय होना ज़रूरी है और फिर कितनी भी मुश्किलें आए…… उन्होंने 17 बार घर बदले, इस दौरान। ..जब तक ट्रायल चली। उनके पास कोई स्थायी वेतन का स्त्रोत नहीं था, बच्चों की शिक्षा नहीं पूरी हो पा रही थी पर वो फिर भी लड़ रही थी। 

बिलकिस को याद करना है तो बिलकिस के साथ हुए अन्याय को याद करने से ज़्यादा यह ज़रूरी है कि बिलकिस ने क्या हिम्मत दिखाई। 

बिलकिस का नाम मेरे अनुसार पर्यायवाची है ‘हिम्मत’ का। अगर आपको बोलना है कि आप बहुत हिम्मती है तो आप बोल दीजिये कि आप तो बिलकिस हैं। वो हिम्मत जो उसने दिखाई है, वो हिम्मत जिसको उसने जीया है,

“बिलकिस का नाम इसलिए याद रखा जाना चाहिए और इसलिए इतिहास में दर्ज़ होना चाहिए कि कैसे एक इस किस्म के अन्याय के खिलाफ जब आपके साथ सरकारी तंत्र नहीं खड़ा था तो भी आपने उस लड़ाई को लड़ा।”

बिलकिस का नाम पूरे इतिहास में दर्ज़ होना चाहिए, जश्न मनाया जाना चाहिए, हिम्मत के पर्यायवाची के रूप में कि कोई इस किस्म की हिम्मत दिखाकर जीत सकता है। बिलकिस के नाम के साथ सुप्रीम कोर्ट का भी नाम जुड़ना चाहिए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस के मामले में न्याय को लेकर जो भरोसा है, उसे हमेशा ऊंचाई पर रखा। जब-जब बिलकिस आई, दोनों हाथों से जो रिलीव (आराम) दिया जा सकता था वो दिया। तो बिलकिस की हिम्मत इसलिए बनी रही क्योंकि उसे सुप्रीम कोर्ट से हमेशा वो साथ मिलता रहा जो एक नागरिक के तौर पर हम सब चाहते हैं कि हमें मिले। इसलिए….. 

लड़ाई ज़ारी रखिये, 

“ज़िंदा रहने के लिए,ज़िंदा होना ज़रूरी है और ज़िंदा होने का मतलब यह नहीं है जब कोई काम सिर उठाकर न किया जाए। इसके लिए ज़रूरी है हिम्मत रखिये, लड़ाई लड़िये और ऐसे ज़िंदगी जीए कि लोग बोलें कि वाह! क्या ज़िंदगी है।”

और यह लड़ाई सबके साथ लड़ी जाएगी। वहां से भी जहां से कोई आवाज़ नहीं उठा रहा। उन ग्रामीण क्षेत्रों,कस्बों, मजरों से भी जिनके नाम कहीं दर्ज़ नहीं है। आवाज़ उठती रहेगी, जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं, मीडिया, नारीवादी संगठनों ने बिलकिस के केस में किया। ज़रूरी है कि यह साथ ग्रामीण क्षेत्रों से सामने आने वाली हिंसाओं में भी हो। तभी बिलकिस की इस हिम्मत और न्याय की लड़ाई ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच उन्हें भी आगे आकर आवाज़ उठाने का हौसला देगी, क्योंकि यह लड़ाई साथ लड़ी जानी है, सबके साथ !!

 

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