बिहार में पलायन कोई नई बात नहीं। यहां सदियों से पलायन की स्थिति बनी हुई है। यहां के लोगों में टैलेंट, हुनर, कला और मेहनत करने का जज़्बा कूट-कूट कर भरा हुआ है लेकिन पेट के लिए उन्हें अपना घर छोड़ना ही पड़ता है। पलायन नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी के लिए तरसना पड़ेगा।
लोगों ने अपने पलायन को लेकर खबर लहरिया को बताया, जिंदगी जीने की चाह है तो पलायन करना ही होगा। अपने घर और परिवार से दूर जाना ही होगा तभी तो पेट भर खाने को मिलता है। परिवार की जरूरतें पूरी होती हैं। यहां पर रोज़गार की बहुत कमी है। कृषि से परिवार नहीं चल पाता।
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मंगली चौक के रहने वाले मनोज पासवान कहते हैं, काम की तलाश में मजदूरी करने के लिए हजारों लोग देश के अलग-अलग हिस्सों में पलायन कर दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए दिल्ली बम्बई गुजरात जैसे महानगरों में जाते हैं। उनके यहां पर कोई काम नहीं चलता। मनरेगा के तहत जो काम होता है वह भी नहीं होता। मुखिया से लोग कहते हैं तो वह कहते हैं कि काम ही आ रहा।
विजय कांत जोकि सिन्हा असंगठित क्षेत्र कामगार संगठन बिहार चैप्टर के कन्वेनर हैं, उन्होंने कहा – वह लोग चाहकर भी बिहार का पलायन नहीं रोक पाते। जो लोग पलायन करते हैं उनकी भी मंशा पलायन करने की नहीं है, लेकिन आर्थिक तंगी, परेशानियां और काम न मिलने की वजह से उन्हें जाना पड़ता है। यहां काम ही नहीं है जो पहले चीनी मिल थे, छोटे-छोटे इंडस्ट्री थी वह सब भी बंद हो गई हैं। वह इस मुद्दे को बार-बार उठाते रहते हैं और सरकार के सामने लाने की कोशिश करते रहते हैं कि यहां पर कुछ उद्योग कारखाने लगवाए जाएं। छोटे-छोटे ही सही मिले चलवाई जाएं ताकि यहां पर लोगों को थोड़ा बहुत रोज़गार मिल सके।
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