खबर लहरिया Blog भेड़ के बालों की खरीद पर रोक होने से निराश हैं किसान

भेड़ के बालों की खरीद पर रोक होने से निराश हैं किसान

सदियों से चली आ रही भेड़ पालने का चलन जाति आधारित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसे एक विशेष जाति (पाल) भेड़ों को पालने और भेड़ के ऊन को बेचने का व्यापर करतें हैं।

                                                                                                                भेड़ पालक की तस्वीर

बुंदेलखंड, भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहां ज्यादातर लोग कृषि और उससे जुड़े कामों पर निर्भर रहते हैं। इसके लिए किसान अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रजातियों के जानवरों को पालने का काम भी करते हैं। यह भी कृषि का ही एक अंग है। जिसमें गाय, भैंस पालन से लेकर बकरी पालन तक शामिल हैं। ऐसा ही एक जानवर है -भेड़। जिसे दूध भर के लिए नहीं बल्कि ऊन के लिए भी पाला जाता है।

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भेड़-पालन जाति आधारित परम्परा

सदियों से चली आ रही भेड़ पालने का चलन जाति आधारित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इसे एक विशेष जाति (पाल) भेड़ों को पालने और भेड़ के ऊन को बेचने का व्यापर करतें हैं। ये काम उनके पूर्वज भी करते आ रहें हैं इसलिए अब उनके लिए ये एक परम्परा जैसी ही है। पाल जाति के लोग एक पंथ दो काज के लिए पालते हैं। उनका मानना है कि भेड़ पालन से ग्रोथ बढ़ता है, दूध मिलता है और इसके साथ-साथ ऊन भी काफी मात्रा में मिलता ही है। उससे उनकी अच्छी कमाई भी होती थी पर आज लगभग 10 सालों से भेड़ पालकों का ऊन नहीं बिक रहा जिससे वह काफी निराश भी रहते हैं।

भेड़ पालन है जीविका का साधन

चित्रकूट जिले के बिहारा गांव के रहने वाले भेड़ पालक किसान दयाराम बताते हैं कि उनके पास लगभग 60 भेड़ है। भेड़ पालन उनका पुस्तैनी काम है। उनके पिता और बाबा भी करते थे। इसी से उनका परिवार चलता है। ये एक तरह की उनकी किसानी है क्योंकि इसमें भी काफी फायदा होता था उनका घर-परिवार भेड़ पालन के कमाई से ही चलता है। क्योंकि पहले इसमें डबल कमाई होती थी। लेकिन अब लगभग दस सालों से उतनी कमाई नहीं हो पा रही क्योंकि भेड़ का जो बाल वह लोग काट कर बेचते थे उसकी खरीददारी बंद हो गई है।

साल में तीन बार काटते हैं बाल

बिहारा गांव के ही रामचंद्र कहते हैं कि “भेड़ के बाल बहुत जल्दी बड़े हो जाते हैं, इसलिए साल में तीन बार भेड़ के बाल काटते हैं। अगर समय रहते भेड़ों के बाल नहीं काटे गये तो वह एक समय के बाद गिर जाते हैं। दूसरी बात देर से बाल काटने पर भेड़ों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। जिस वजह से भेड़ों के बाल काटकर उनको अब फेंकना पड़ता है। यही कारण है कि भेड़ पालकों को अब उतनी कमाई नहीं होती।

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नई पीढ़ी को नहीं पसंद ये काम

रामचंद्र ने कहा कि इस पुस्तैनी परंपरागत कार्य को छोड़कर  नई पीढ़ी ने अब मजदूरी करना शुरू कर दिया है। लेकिन वह लोग अपने जीवन का आधा से ज्यादा हिस्सा इसमें लगाने के बाद भी परिवार चलाने का दूसरा रास्ता नहीं दिख रहा है। इसलिए अपने इस पुस्तैनी काम को ही कर रहे हैं और उनके लड़के भी करते हैं। लेकिन नाती-पोता इस काम से दूर होकर बाहर शहरों में मजदूरी के लिए जाने लगे हैं।

एक समय पर इतना था भेड़ो के बालों का दाम

भेड़ पालकों कहना है कि एक समय था जब बाल लेने के लिए ग्राहक बड़ी संख्या में आते थे। 35 रुपये प्रति किलो की दर से बालों को खरीदते थे। अब बाल खरीदने वाले नहीं आ रहे हैं और कभी कोई खरीदने आ गया तो बाल की कीमत गिराकर बात करता है। 35 रुपये किलो की दर से बिकने वाले भेड़ों की बाल को 10 रुपये किलो का भी मूल्य नहीं मिल रहा है।

भेड़ के बालों से बनती थी ये वस्तु

सुकुर्वा प्रसाद कहते हैं कि “भेड़ के बाल से कंबल और गर्म कपड़े बनते हैं। इस लिए कपड़ा कारोबारी व्यापारी भेड़ के बालों को एक समय था जब वह उनके घर में भेड़ के बाल को खरीद कर ले जाते थे? लेकिन अब दासियों साल हो रही है उनके भेड़ के उन कि बिक्री नहीं हो रही है।”

बहुत ही गर्म होता है भेड़ का बाल

दयाराम आगे बताते हैं कि “भेड़ का बाल बहुत ही गर्म होता है। इस लिए ग्राहकों द्वारा व्यापारियों से संपर्क करके उनके घरों से बाल खरीद कर बाहर भेजा जाता था और फिर फैक्ट्रियों में उन बालों से तरह तरह के कंबल बनते थे। वहीं कंबल बाजारों से लोग खरीद कर ठंड काटते थे। पहले तो भेड़ पालकों को भेड़ पालने में भी रुचि होती थी, लेकिन जब से बालों की खरीदा बंद हुई। तब से भेड़ पालने के रुचि भी खत्म हो रही है, क्योंकि भेड़ पालन बहुत ही मेहनत का काम है। भेड़ों को बारिश के अलावा अन्य सीजन में बांध नहीं सकते क्योंकि उनके अंदर बहुत गर्मी होती है। इस लिए जंगल-जंगल घुमाना पड़ता है और खुद भी परिवार से दूर रहना पड़ता है।”

भेड़ो के बाल खरीदने की लगती थी लम्बी लाइन

इस तरह फतेहपुर जिले के भेड़ पालकों का कहना है कि “एक समय था जब बाल लेने के लिए ग्राहक बड़ी संख्या में उनके दरवाजे पर आते थे और 30 से 35 रुपये प्रति किलो तक के रेट में उनसे बालों को खरीदते थे। अब बाल खरीदने वाले नहीं आ रहे हैं और कभी-कभार आ भी गया तो बालों की कीमत 5 रुपये किलो के हिसाब से देता है। जिसमें उनके बाल काटने के समय तक कि कीमत नहीं होती क्योंकि एक भेड़ का बाल काटने में लगभग आधा घंटा लगता है। भेड़ के बालों का मूल्य दिन प्रतिदिन गिरने से उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो रहे हैं क्योंकि भेड़ों के खान-पान के साथ- साथ उनका खुद का परिवार भी लगा है।

भेड़ों के पालन और उनके बालों से बने उनका काम अब कम होता दिख रहा है। सरकार भी बालों की खरीद पर रोक लगा रही है। सरकार से भेड़ पालकों की मांग है कि उनकी जीविका का एक यही रास्ता था अब वो भी बंद हो गया है तो और वो क्या करें।

बड़े बड़े मॉल और विदेशों में न जाने कितने जानवरों की खाल से कई चीजें बनती है और महंगी बिकती है। गांव-घर के लोगों के पास इतना न पैसा है और न ही उनके कामों को सही दाम मिल पाता है। उनके पास इतना साधन नहीं है कि वे अपने इस व्यापर को ऊँचे स्तर तक पहुंचा सके।

इस खबर की रिपोर्टिंग गीता देवी द्वारा की गई है। 

 

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