मध्यप्रदेश में 1952 से अब तक 15 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। 71 साल में 40 साल 1952 के पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई और उसे 232 सदस्यों वाली विधानसभा में 194 सीटों पर जीत मिली। 1962 में संख्या परिसीमन के बाद विधानसभा चुनाव में सीटों की 288 हो गई।
मध्यप्रदेश, भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, जो देश के 9.38% क्षेत्र में बसा हुआ है। यहां कुल 55 जिले हैं। यहां पर 5 करोड़ 60 लाख 60 हजार 925 मतदाता हैं। कुल 5.6 करोड़ मतदाताओं में 2.88 करोड़ पुरुष और 2.72 करोड़ महिला मतदाता हैं। मध्यप्रदेश में 1952 से अब तक 15 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं और अब 16वां चुनाव होने जा रहा है। यहां पर 17 नवम्बर को मतदान और 3 दिसम्बर को मतगणना होगी। इस चुनाव भी हमने जंगलों के बीच बसे गांवों से कवरेज किया।
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पन्ना मतलब हीरा, टाइगर और प्राकृतिक स्वर्ग
मध्य प्रदेश का पन्ना जिला, इस जिले का नाम आते ही दिमाग में बहुत सुंदर सी छवि बनती है। गाना भी मुंह से निकल जाता है कि पन्ना की तमन्ना है कि हीरा मुझे मिल जाए.…यहां पर हीरा के साथ-साथ अपार खनिज संपदा है। लोग यहां की खदानों में राजा और रंक बनते हैं। मतलब हीरा मिला तो राजा और नहीं मिला तो जमीन खरीदने में लगा पैसा भी पानी में बहाने जैसा होता है लेकिन अपना भाग्य सब आज़माना चाहते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। यहां टाइगर रिजर्व भी है जहां पर तमाम जंगली जानवर निवास करते हैं। देश और विदेश से पर्यटकों का जमावड़ा सदाबहार है। यहां की घाटियों से साधन गुजरने पर जन्नत में होने का आनंद आता है।
छतरपुर मतलब आकाशवाणी रेडियो स्टेशन
अब पन्ना के बगल से लगे छतरपुर जिले की तमाम खूबियों के बारे में जानें। बुंदेलखंड का यह क्षेत्र आकाशवाणी रेडियो केंद्र के लिए मशहूर है। यहां पर बुंदेली गीतों का कल्चर मशहूर है। खजुराहों दुनिया भर में मशहूर एक पर्यटक स्थल है। यहां पर भी जंगलों की अपार सम्पदा है। केन और बेतवा नदियों का गठजोड़ है। इन जंगलों और नदियों के बीच आदिवासी समुदाय का सदियों से बसेरा है। शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध खाना पान अच्छे जीवन जीने का एहसास दिलाता है। वह अपनी जिंदगी में बहुत खुशहाल और समृद्ध और स्वाभिमानी भी हैं।
आदिवासियों का न विस्थापन और न ही विकास
आप कह रहे होंगे कि इसमें स्वाभिमानी की बात कहां से और कैसे आ गई। इसलिए क्योंकि यहां पर दस साल के रिपोर्टिंग अनुभव से मैं यह कह सकती हूं कि उनको नहीं चाहिए सरकार की किसी भी योजना का लाभ। अब अगर केन बेतवा लिंक परियोजना की बात की जाए तो केंद्र सरकार इसकी आड़ में 23 ऐसे गांवों को विस्थापित करने की बात बीसों साल से करती चली आ रही है। यह गांव ऐसे हैं जो घनघोर जंगल में अपार प्राकृतिक सौंदर्य और संपदा के बीच बसे हैं। अब आये दिन वन विभाग इनको नोटिस भेजता है, धमकाता है कि यहां की ज़मीन छोड़ो। कैसे छोड़ दें? वह मांग कर रहे हैं कि सरकार उनको कहीं अच्छी ज़मीन, खेत और मुआवजा दे तब तो जाएं। कुछ कह रहे थे कि सरकार कहती तो है मुआवजा देगी लेकिन उनके मनमुताबिक नहीं दे रही।
सरकार इन गांवों को विस्थापन की आड़ में कोई विकास भी नहीं करा रही। सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सरकारी योजनाएं नाममात्र के लिए पहुंच पाई हैं। जिन आंकड़ों और योजनाओं के बल पर सरकार चुनाव लड़ती है जैसे उज्जवला योजना के आंकड़े प्रस्तुत करने में माहिर केन्द्र और राज्य की सरकारें अभी यह तक नहीं जानती हैं कि पन्ना जिले के मझौली गांव में एक भी कनेक्शन उज्जवला योजना के नहीं हैं।
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना
मुख्य मार्ग से गांव को जोड़ने वाली ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ जाने कौन-से दुनिया में खोई हुई है। लोग हर रोज पैदल, साइकिल या फिर मोटरसाइकिल से दस से पंद्रह किलोमीटर यात्रा करते हैं। हम रिपोर्टिंग के लिए जा रहे थे तभी रास्ते इन पैदल चलते बुजुर्गों समेत बच्चे और गोद लिए बच्चों सहित महिलाएं दिखीं। कई ऐसे लोगों को हमने अपने साधन में जगह दी लेकिन यह तो एक बार का ही सफर था परन्तु दिल को ठंडक पहुंच रही थी कि चलो एक ही बार सही। जब हम पन्ना जिले के जरधोआ गांव रिपोर्टिंग को जा रहे थे तो रास्ते में करीब 65 वर्षीय बुजुर्ग महिला पैदल जाते हुए दिख गईं। सीमेंट वाली बोरी से बने झोले में कुछ सामान सिर में रखे नंगे पांव चली जा रही थीं। हमने गाड़ी रोकी तो उनके मुंह पर मुस्कान दौड़ गईं। बोलीं, बेटा! मुझे भी बैठा लो। गाड़ी में करीब आधे पौन घण्टे हम बतियाते ही गए। वह बोलीं कि वह अस्पताल जा रही हैं पन्ना, वहाँ पर उनकी बहू को बच्चा हुआ है। जब प्रसव पीड़ा उठी तो आशा को बुलाया। वह दूसरे केस में व्यस्त थी तो दाई को बुलाए। वह बोली कि मामला गम्भीर है,पन्ना ले जाना पड़ेगा। गांव में तो अस्पताल है नहीं। अब साधन कहां से मिले। गांव में एक जन के पास ऑटो है तो उसको बुक किया। पैसा नहीं था तो कुछ अनाज देकर गाड़ी के साथ भेजा है ताकि अनाज बेचकर पैसे भर सकें। हमने पूछा कि एम्बुलेंस क्यों नहीं आई। उन्होंने बोला कि जंगल के गांवों में एम्बुलेंस कैसे आएगी जब सड़क ही नहीं है। सुना तो बहुत है कि एम्बुलेंस की सुवीधा सरकार फ्री में देती है लेकिन कभी देखने को नहीं मिलीं। यह महिला मुख्य सड़क पर उतर गईं और हम दूसरे गांव की तरफ बढ़ गए।
महिलाओं ने योजनाओं की खोली पोल
जब हम दूसरे गांव घुसे तो बहुत सारी महिलाएं झुंड में खड़ी थीं और हमें देख हैरान भी थी थोड़ी-सी। पूछ पड़ी कि हम कौन हैं, कहां से आये हैं। हमने परिचय तो दिया लेकिन हम समझ गए कि उनको पत्रकार मतलब नहीं समझ आया। हमने उनके हाल-चाल लेने से शुरुआत की। इस बस्ती में खासकर वंशकार लोग रह रहे हैं। तभी एक महिला गुस्सा दिखाते हुए बोली कि उनको तो मामा ने पैसे दिए नहीं हैं। उसे क्यों नहीं दिए मैंने क्या उनको वोट नहीं किया। उसको मिला, इसको मिला तो मुझे क्यों नहीं। हम समझने की कोशिश कर रहे थे तभी पीछे से आवाज़ आई। अरे! काहें परेशान हो सब थोड़ी न मामा की लाडली बहन बन जाएंगी। तुरंत समझ गए हम यह लोग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लाडली बहना योजना की बात कर रही हैं जिसमें हज़ार रुपये प्रति महीना मिलने की सुवीधा है और इस चुनाव बढ़ाने की बात भी चल रही है। तभी पता चला कि मामला कुछ और ही है।
असल में रक्षाबंधन पर मुख्यमंत्री ने अपनी फोटो छपी कैलेंडर बंटवा कर उसमें टीका और फूल माला चढ़ाकर राखी बंधवाई थी। बदले में उनके जनधन योजना के तहत खोले गए बैंक अकाउंट में ढाई-ढाई सौ रुपये भेजा था। एक महिला और बोलती है कि लाडली बहना होने का मतलब उनको वोट देना। शायद तुमने न दिया हो तो गुस्सा नहीं होंगे मामा जी। थोड़ा चिढ़ते हुए भी बोली कि ज़्यादा ढाई सौ रुपये के चक्कर में न रहो क्योंकि जितने पैसे नहीं मिलते उससे ज़्यादा खर्च हो जाते हैं। किराया-भाड़ा लगाकर जाओ। बैंक वाले ऊपर से परेशान करते हैं। घण्टों लाइन में लगे रहो। जितना मिलना नहीं उससे ज़्यादा खर्च हो जाता है। क्या फायदा तुम्हें नहीं मिले तो गुस्सा न हो। अपने सगे भाई और मामा में और शिवराज सिंह मामा और भाई में बहुत फर्क है। ढाई सौ रुपये के बदले वोट चाहते हैं पांच साल राज करने के लिए। हमारी आंखे फटी रह गईं कि कितनी समझ है इन महिलाओं में और सरकार उनके दिल से भावात्मक खेल, खेलती रहती है।
आगे बढ़ने के लिए जैसे ही आगे बढ़े कि पुरुष और कुछ युवक हमारी आईडी का नाम पढ़कर बातें कर रहे थे। कुछ हमारे चैनल को सोशल मीडिया और गूगल सर्च कर रहे थे। चुनाव की चकल्लस इनसे भी करना चाहा तो पता चला कि कुछ मामा के चहीते हैं तो कोई विरोधी भी। एक बोला उन्हें शिक्षा और जॉब चाहिए तो दूसरा बोला अब कैसे लेते हो जॉब, पकौड़ा तलने की जॉब प्रधानमंत्री जाने कब के दे चुके हैं। इसीलिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बोला था कि जॉब तो बहुत हैं लेकिन यूथ ही जॉब लेने के काबिल नहीं हैं।
किसानों, महिलाओं, यूथ, दलित,मुस्लिम, आदिवासी सबकी एक ही आवाज थी कि पार्टियां जीतकर सरकार बनाती हैं। जब चुनाव होता है तभी उनको उनके गांवों की याद क्यों आती है? जनता सब याद रखेगी।
मध्यप्रदेश में 1952 से अब तक 15 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। 71 साल में 40 साल 1952 के पहले चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई और उसे 232 सदस्यों वाली विधानसभा में 194 सीटों पर जीत मिली। 1962 में संख्या परिसीमन के बाद विधानसभा चुनाव में सीटों की 288 हो गई। इस चुनाव में भी कांग्रेस को एकतरफा जीत मिली। 1967 के 296 सदस्यों वाली विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को 167 और जनसंघ को 78 सीटें मिलीं यानी सत्ता में रहने वाली पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। 1972 में भी कांग्रेस को पूर्ण बहुमत ही मिला। कांग्रेस का शासन रहा और बीजेपी करीब 21 वर्षों तक शासन में रही। 1977 से 1980 के बीच तीन साल तक जनता पार्टी का शासन रहा। आपातकाल के बाद पूरे देश में कांग्रेस विरोधी लहर चल पड़ी। 1977 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता से पहली बार बाहर हुई।
इस लेख को मीरा देवी द्वारा लिखा गया है।
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