खबर लहरिया Blog किशोरी श्रमिक- देश की श्रम व्यवस्था की एक महत्ववपूर्ण कड़ी

किशोरी श्रमिक- देश की श्रम व्यवस्था की एक महत्ववपूर्ण कड़ी

लॉकडाउन से पूरे देश में अचानक घोषणा से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदरू विभाग है जो की 92 प्रतिशत है। जिसमें एक अनदेखा समूह भी है जो किशोरी श्रमिकों का है जिनके बारे में बहुत कम सुनने और लेख पढ़ने को मिलते है और ना ही इनके बारे में  किसी का ध्यान जाता है।  

दक्षिणी राजस्थान में डुंगरपुर उदयपुर जिला एक आदिवासी बाहुल्य वाला क्षेत्र है। यहां स्थानीय स्तर पर काम नहीं मिलने से बड़ी संख्या में एकल पुरुष प्रवास को प्राथमिकता पर रखकर अकुशल काम करते नजर आते है। इस क्षेत्र से पुरुष प्रवास पर जाने के कारण घर की औरते और लड़कियाँ स्थानीय श्रम बाजार पर ज्यादा निर्भर दिखाई  देती है।(Census 2001) तेज़ी से छोटी होती भूमि धारण और कम होती कहती के चलते आदिवासी समुदाय मे वर्तमान में यह चलन काफी देखने को मिलता है जिसमें घर के सारे लोग कुछ कुछ काम करते है। जिसमें यदि पुरुष है तो उसका काम प्रवास पर जाना और मज़दूरी करना, मांपिताजी है तो खेती का काम करते है और घर में कोई किशोरी है तो लोकल बाजार में जाकर काम करना। हालांकि इन क्षेत्रों में परिवार की मूलभूत जरुरतों की पूर्ति तो हो जाती है।

लेकिन बड़े खर्च और सामाजिक जरुरतों की पूर्ति के लिए सभी का काम करना एक मज़बूरी है। आज के परिप्रेक्ष्य में देखे तो बाज़ार में हमे बड़ी संख्या में किशोरी श्रमिक काम करते नजर आती है। उनकी अलगअलग अपनी ज़रूरते है। जिन परिवारों में किशोरी, भाईबहन में बड़ी हैं तो उसके ऊपर घर की ज़िम्मेदारी ज्यादा होती हैं।  ऐसे में घर के काम के साथ श्रम बाजार मे जाकर कार्य करना भी अनिवार्य हो जाता हैं। ज्यादातर किशोरियां लोकल श्रम बाजार में अपने परिवार की जरुरतों की पूर्ति एवं स्वयं की आजादी के लिए आती हैं। जो कि साल 2017 के रिसर्च में हमें किशोरियों से बात करने से समझ आया।  

NCEUS 2007 के विश्लेषण के अनुसार 95% SC/ST समुदाय से आने वाली ग्रामीण महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम पर जाती हैं। साथ ही, रवि श्रीवास्तव जो एक लेबर विशेषज्ञ हैं, उन्होंने पाया है कि एकल महिलाएं और किशोरी श्रमिक ग्रामीण भारत में दैनिक मज़दूरी और निर्माण कार्य का एक बड़ा हिस्सा बनाती हैं। निर्माण कार्य भारत में महिलाओं और लड़कियों का तीसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है लेकिन इन निर्माण की साइटों पर महिलाओं के लिए कोई भी सुविधाजैसे टॉयलेट, क्रेच, पैड की व्यवस्था देखने के लिए नहीं मिलती है।  

ये किशोरियां है जिस उत्साह के साथ में हंसते हुए, अपने साथी किशोरी श्रमिक के साथ बाजार में काम करने रही है, वे कौन है, कहां से आती है, इनकी क्या उम्र होती है, इनके परिवारों की क्या ज़रूरत है, जो इन्हें इस बात के लिए मजबूर करती है कि वे घर से इतना दूर आकर काम करें, आदि सवालों के जवाब हमें सुनने को नहीं मिलते है। ऐसे  ही कुछ सवालों पर यह लेख रोशनी डालेगा और इन किशोरी श्रमिकों के जीवन को और करीब से समझने का प्रयास करेगा।  

किशोरी श्रमिक, एक परिचय – 

किशोरी श्रमिक या लोकल भाषा में कहें तो सोरियाँ, दक्षिणी राजस्थान में आदिवासी परिवारों से आती हैं। जो 13-14  साल की उम्र से ही श्रम बाजार में काम करना शुरू करती हैं। छोटी उम्र और अकुशल होने के कारण, यह लड़कियां  श्रम बाजार में सबसे निचले स्तर से काम करना शुरू करती हैं। इन्हें अक्सर निर्माण साइट पर कुली (सीमेंट/ रेती पास करते हुए) या दूसरे ज़मींदारों के खेत पर कटाई के काम में देखा जा सकता है। इन सभी कामों में यह वर्ग सबसे ज़्यादा अदृश्य, अकुशल और अतिवंचित रहता है। 

आजीविका ब्यूरो द्वारा उदयपुर जिले के सलूम्बर ब्लॉक में की गयी रिसर्च – ” सोरियां कई काम करें” 2017 में  अलगअलग टूल का इस्तेमाल करके हमने इनके बारे में जाना तो पता चला की ये किशोरियां ज्यादातर जरुरतमंद  परिवारों से संबंध रखती है। यहां जरुरतमंद से तातपर्य है कि एकल महिला आधारित परिवार, घर के मुख्य सदस्य का गंभीर रुप से बीमार होना, जिनके पास अनाज उगाने के लिए पर्याप्त जमींन नहीं है या जमींन है तो पानी की  उपलब्धता नहीं है एवं क़र्ज़ के चक्र में लम्बे समय से जूझ रहे परिवार से होती है। ये सभी मजबूरियां किशोरी श्रमिकों को श्रम बाजार में जल्द धकेलने पर विवश करती है। इसी तरह से इन्हें 14 वर्ष की उम्र में ही श्रम बाजार में काम के लिए आना पड़ता है। इसी कारण पढ़ाई से इनका संबंध बीच में ही छूट जाता है। 

सलूम्बर के श्रम बाजार और किशोरी श्रमिकों में एक अनोखा संबंध देखने को मिलता है। ज़रूरतमंद परिवारों से  आने के कारण और अकुशल काम के कारण यह किशोरियां न्यूनतम मज़दूरी से कई गुना कम पैसों पर काम करती हैं। एक तरफ जहां श्रम बाजार इन किशोरियों से कम रेट पर ज़्यादा काम निकलवाता है, वहीं साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि इनके पास ना तो अपना कौशल बढ़ाने के अवसर हों और ना ही आगे बढ़ने के।  

आजीविका ब्यूरो की 2017 की स्टडी में पाया गया कि दोनों ही किशोर और किशोरी श्रमिक लगभग एक ही उम्र में  श्रम बाजार में आते हैं, लेकिन शुरुआत से ही वेतन में करीब 100 रूपए का अंतर रहता है। साथ में यह भी पाया  गया कि काम करने के पांच साल के बाद भी किशोर लड़के, मज़दूर या बेलदार बन जाते हैं और किशोरी श्रमिक फिर भी अकुशल किशोरियों की तरह जानी जाती हैं। इसके साथ ही दोनों के वेतन में अंतर बढ़तेबढ़ते 40% तक  पहुंच जाता है।

स्थानीय श्रम बाजार में किशोरियों की पहचान कुली से होती है। उनसे जैसा चाहे वैसा काम करवायें और जितना चाहें उतना काम करवाएं, ये कभी बोलेंगी नहीं। जब किशोरी श्रमिक  ठेकेदार से अपनी मज़दूरी के पैसे मांगती हैं तो वह आगे से आगे तारीख देकर बात को टाल देते है एवं उनको समय पर मज़दूरी नही देते हैं। एक बार काम की मज़दूरी लेने के लिए उनको एक महीने या उससे भी ज्यादा समय तक कारीगर या ठेकेदार के पास जाना पड़ता है।  इस कारण उनको ना चाहते हुए भी उस ठेकेदार के पास ही काम करना पड़ता हैं। 

श्रम बाज़ार के नाके में किशोरी श्रमिक का चयन और श्रम का बंटवारा – 

An important link in the country's labor system

बाजार में ही एक और बाजार है, जिसे लोग नाका के नाम से जानते है। ये खास तौर से श्रमिक मज़दूरों, मज़दूर और किशोरी श्रमिक के काम पाने का स्थान है। इस नाका में सभी तरह के लोग मज़दूर कारीगर, कुशल अर्धकुशल काम की तलाश में यहां आते है। यहां रोज सुबह आसपास के गांवो से बड़ी तादात में श्रमिक आकार अपने शारीरिक श्रम, स्किल और अपनी ताकत को बेचने का मोलभाव करते हुए नज़र आते है। 

दूसरी ओर महिलाएं और किशोरी श्रमिक भी इसी तरह से अपने काम के लिए इंतजार करती है। लेकिन इनके चुनाव के समय इनके स्किल,अनुभव, शारीरिक श्रम और ताकत अप्रधान बन जाता है और उनकी चहरे की सुंदरता और शारीरिक सुंदरता एक मुख्य मानदंड बन जाते हैं। अध्ययन के दौरान जब ठेकेदार, कारीगरों से बात की गयी तो यह पाया गया कि किशोर और किशोरियों को काम पर रखने के मानदंड काफी अलगअलग हैं। राजू भाई जो एक ठेकेदार का काम करते है, वो बताते हैं कि जिस लड़की के साथ सेटिंग जमानी होती है और जो तैयार होकर घूमती है, उसे ही लोग अक्सर काम पर रखते हैं।  

किशोरियां ये भी कहती हैकदी काम बल्ले नाका माते खड़ा रा ठेकेदार भी आवा तो हाउ सोरिया ने देके और  बीजा मनक भी बुरी नजर देखें। काम का इंतजार करते समय आसपास से गुजरने वाले आम लोगो की बुरी नजरे भी मन को बुरी तरह से कचोटती है। वहीं ठेकेदार भी मज़दूरी करने के लिए भी खूबसूरत किशोरियों का पहले  चुनाव करता है। 

ऐसे में देखा जाए तो वह महिला, किशोरियां जो कोई श्रृंगार नहीं करती है और ना नखरे करती है उनको नाके पर काम के लिए राह तकनी पड़ती है। शायद कोई जाए काम दे दे, उसी इंतज़ार में कई बार खड़ा ही रहना पड़ता है। कई बार इस वजह से घर को वापस भी जाना पड़ता है। बोझा उठाने के लिए भी किशोरियों की सुंदरता जरूरी हो जाती है। 

श्रम बाजार एक तरफ इन लड़कियों के शारीरिक श्रम को निचोड़ता है और साथ ही उनकी लैंगिगकता का वस्तुनिकरण कर उसका भी मूल्य तय करता है। वहीं जब यह लड़कियां अपने काम की मज़दूरी के लिए मोल भाव करती हैं और सही वेतन की मांग करती हैं तो उनकी इसी सुंदरता और शारीरिक बनावट को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है। इन किशोरियों कोकमज़ोर‘, ‘बेवकूफऔरध्यान से काम ना करने वालीबताकर कम मज़दूरी दी जाती है। राजू ठेकेदार बताते हैं किआदमी ज़्यादा वज़न उठाता है और दिमाग और होशियारी से काम करता है, इसलिए लड़कियों को 150-200 रूपए तक देते हैं और आदमी बेलदार को 200- 250 रूपए तक की मज़दूरी मिलती है  

कार्यस्थल पर श्रम के बंटवारे की बात करें तो यह किशोरियां सबसे अकुशल या अर्धकुशल काम तो करती हैं जिसका उन्हें पूरा पैसा नहीं मिलता है। साथ ही साइट पर अवलोकन के दौरान पाया गया कि लड़कियां और महिलाएं बाकी लोगों की तुलना में साइट पर जल्दी पहुंचती हैं और सबसे देर में निकलती हैं। उनके काम के दायरे से बाहर के 

काम जैसेसाइट की साफ़ सफाई, औज़ारों को धोना, चाय बनाना, पानी लाना, जो वैसे भी स्त्री के काम की तरह देखे  जाते हैं। सब उन्हीं के ज़िम्मे आते हैं। इस काम के ना तो उनको पैसे मिलते हैं और ना ही कोई श्रेय। इसके साथ ही यह भी पाया गया कि यह किशोरियां पुरुषों की तरह बारबार बीड़ी या मसाला खाने के लिए ब्रेक भी नहीं लेती हैं  और ज़्यादा लंबे समय तक काम करती हैं।  

कार्यस्थल, आजादी, यौन उत्पीड़न

अध्ययन के दौरान किशोरी श्रमिकों से बात करके यह भी पाया गया कि श्रम बाजार इनके लिए सिर्फ उत्पीड़न ही नहीं, लेकिन आज़ादी के कई अवसर भी लाता है। काम पर जाने के लिए घर से निकलना, नए लोगों से मिलना और  जीप पर बैठकर सहेलियों के साथ गाना गाना, कुछ ऐसे ही अनुभव हैं जो किशोरियां बताती है कि उनको काम पर  जाने के लिए प्रेरित करते हैं। साथ ही कमाया गया पैसा, उनको स्वतंत्र भी बनाता है। कई किशोरियों ने बताया कि उन्हें अपनी मज़दूरी घर पर देनी पड़ती है, लेकिन फिर भी वह अपने खर्च के लिए कुछ पैसा बचा लेती हैं।

एक तरफ जहां पैसा कमाने और बाहर जाने की आज़ादी है, वहीं दूसरी तरफ हिंसा का खतरा भी साथ- साथ चलता  रहता है।  

कार्यस्थल पर अवलोकन के दौरान और समूह चर्चा में पाया गया कि ठेकेदार, कारीगर और पुरुष सहकर्मी कई बार मज़ाकमज़ाक में किशोरियों को छूने, ताने मारने और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आते हैं। साथ ही काम पर आनेजाने के रास्ते में भी ऐसे कई खतरे रहते हैं जिससे उन्हें शारीरिक और यौनिक हिंसा का  खतरा रहता है।  

कई बार किशोरियों के साथ यौनिक रिश्ता बनाने के लिए ठेकेदार कारीगर कुछ लालच देकर उन्हें आकर्षित करते हैं एवं हाथ पकड़कर ज़बरदस्ती करते है। ठेकेदार ने कोई छोरी हाउ लागे तो पटावा वास्ते वणे काम नी करावे, पया  आले या कोई चीज दे लाली, पाउडर कई ने कई देता रे।पया आले, मस्ती करे, हाथ पकड़ लेपूर्व किशोरी श्रमिक।

किशोरियों के साथ में किसी भी प्रकार की यौनिक हिंसा होने पर परिवार उनको ही गलत मानकर उनकी आजादी छीन ली जाती है। कार्यस्थल पर होने वाली घटना के बारे में किशोरी अगर घर पर अपने परिवार को बताती है, तो अगले दिन से उसे काम पर नही जाने दिया जाता हैं। ऐसे में इनके लिए किसी भी तरह की उत्पीड़न इनके परिवार की जरूरतों के आगे छोटी लगने लगती है। इसलिए इनकी प्राथमिकता परिवार काम की जरूरत ज्यादा जरूरी हो जाती है। काम  की जगह पर कोई गलत हो रहा हो तो भी साथी श्रमिक और किशोरियां स्वयं इन सभी उत्पीड़न को आत्मसात कर लेती है और ना साथी श्रमिक इसका विरोध करते है और ना  ही किशोरियां विरोध कर पाती है। इसके विपरीत जो किशोरियां काम के लिए आती है, उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। 

संगठित हो या असंगठित क्षेत्र महिला सुरक्षित काम कर पाएं, इसके लिए सरकार के द्वारा अलगअलग कानून बनाये गये हैं। लेकिन इनकी वास्तविकता को देखा जाए तो धरातल पर कुछ भी नही हैं। कानून का क्रियान्वयन सही से नहीं होने के कारण इन तमाम तरह के कानून किताबों में ही रह जाते हैं। 

लॉकडाउन के बाद से किशोरी श्रमिकों के जीवन में एक बहुत महत्वपूर्ण बदलाव आया है। स्कूल की अनियमितता अब पूरी तरह से स्कूल से समाप्ति में बदल गयी है। जो काम पहले आसानी से निर्माण कार्य में मिल जाता था वो

अब कम हो गया है। जिसके चलते किशोरियों को कटाई जैसे अदृश्य कामों की तरफ मोड़ करना पड़ रहा है, जहां पर कोई नियम कानून लागू नहीं होते हैं और ना ही वेतन समय पर मिलता है। जो काम 13-14 साल से शुरू होता था, उसकी उम्र अब बढ़कर 10-11 साल पर आती दिख रही है। घर के अंदर का अवैतनिक काम अब पहले की तुलना में 10 गुना ज़्यादा बढ़ा है जो कि घर की महिलाओं और किशोरियों के कन्धों पर ही आकर गिरा है। भले ही देश में लगे लॉकडाउन से प्रवासी पुरुषों के जीवन पर भारी असर पड़ा था लेकिन इन परिवारों की नियमित आय चलाने वाली किशोरी श्रमिकों पर जो असर पड़ा है, वह काफी हद तक सीमित और अनसुना ही रहा है।  

कुछ महत्वपूर्ण सुझाव – 

  • अतिवंचित परिवारों से आने वाली किशोरियों पर परिवार को चलाने की ज़िम्मेदारी है, यदि सरकार ऐसे कुछ विशेष परिवारों के लिए सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करें और यदि संभव हो सके तो ऐसे परिवारों के लिए कुछ विशेष व्यवस्था करें।
  • सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि श्रम बाजार में जो वर्तमान व्यवस्था है उसे सही से क्रियान्वयन करें। जिसमें श्रम कानूनों का सही पालन हो एवं अच्छी लेबर प्रेजक्टस को बढ़ावा देकर श्रमिकों के शिक्षण को बेहतर बनाऐ।
  • सरकार को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए ताकि अच्छी शिक्षा मिलने से इनका स्तर बढ़ेगा। जो उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक और सिद्ध हो पायेगा।

इस अध्ययन में 26 किशोरी श्रमिकों और ठेकेदारों का साक्षात्कार लिया गया था। समूह चर्चा के माध्यम से सामने आए परिणाम को सत्यापित किया गया है। इस अध्ययन के मुख्य जांचकर्ता थेविकास पाठक,पायल गांधी, प्रीमा धुर्वे, परशराम लोहार और कमलेश शर्मा।

 अध्ययन के परिणाम के प्रस्तुतीकरण को देखने के लिए यहां जाएं। अध्ययन बारे में और पढ़ने के लिए यहां पढ़ें 

दृष्टि अग्रवाल, परशराम लोहार एवं कल्पना जैन 

आजीविका ब्यूरो