गोबर गैस को बनाने के लिए की जाने वाली व्यवस्था को प्लांट कहा जाता है। एक टंकी में प्रतिदिन कम से कम तीस किलो गोबर डालकर पानी डालकर नम रखा जाता है। इससे दस आदमी का खाना और एक छोटा बल्ब जला लेते हैं। इस्तेमाल होने के बाद यह गोबर टंकी से बाहर निकलकर खेत में खाद के काम आता है।
जिला वाराणसी ब्लाक चोलापुर और काशी विद्यापीठ। यहां के गांवों में कई लोगों के घर में गोबर गैस प्लांट तो लग गया है, लेकिन उन्हें सरकारी मदद नहीं मिली है।
चोलापुर के गांव परानापट्टी की प्रभारानी ने मार्च 2013 में गोबर गैस प्लांट लगवाया था। गाय भैंस घर में हैं पर पंद्रह से सोलह हज़ार का खर्चा आया था। दिसंबर खत्म होने को है पर सरकार से कोई छूट नहीं मिली। यहां के जयशंकर, जयराम को भी फरवरी 2012 से अब तक कोई सरकारी मदद नहीं मिली। ब्लाक काशी विद्यापीठ के गांव भट्टी के मधुप किशोर और मूलराज किशोर के नाम से भी करीब दो-तीन महीना पहले गोबर गैस प्लांट लगा था, पर इन्हें भी रुपया नहीं मिला।
काशी विद्यापीठ के खंड विकास अधिकारी गजेंद्र कुमार तिवारी ने बताया कि इस योजना के तहत आठ हज़ार रुपए गोबर गैस प्लांट लगाने वाले व्यक्ति को मिलते हैं। हर ब्लाक के पास पांच बायोगैस प्लांट हर साल लगवाने का लक्ष्य होता है। बायोगैस लगवाने वाला जब अर्जी दे देता है, उसके बाद हम जिला स्तर पर इसे भेजते हैं। इसके बाद ही बजट मिलता है।
जिला बांदा। बबेरू ब्लाक के प्रभाकर नगर मोहल्ले में गोबर गैस का इस्तेमाल सालों से हो रहा था पर अब कहीं कहीं बंद पड़ा है। यहां के राम अवतार के घर में पच्चीस साल पहले बना गोबर गैस का प्रयोग आज भी हो रहा है। खाना और दूध पकाने और पानी गरम कर पाते हैं। बल्ब और पंखा नहीं प्रयोग कर पाते क्योंकि गोबर उतना नहीं जुगाड़ पाते जिससे ज़्यादा ऊर्जा बन सके। जहां पर रसोई गैस का एक सिलेण्डर साढ़े पांच सौ रूपए का खरीदना पड़ता है, वहां मुफ्त में रसोई चल पाती है।
बिहार के सीतामढ़ी जिले में कई ऐसे प्रखण्ड है जहां लोगों ने कई सालों पहले गोबर गैस प्लांट लगवाए थे। लेकिन आज इनमें से कई बंद पड़े हैं।
यहां के रामविलास महतो के घर में लगभग बीस साल पहले प्लांट लगा था। लेकिन अब बंद पड़ा है। उनका कहना है कि पहले लोगों के घर में जानवर होते थे, जिससे गोबर गैस के लिए गोबर मुफ्त मिलता था। लेकिन अब लोग जानवर पालने से बचते हैं। ऐसे में प्लांट के लिए गोबर कहां से आए?