रिपोर्ट बताती है कि इस छंटनी ने समिति के समक्ष गवाही देने वाले 40 (80%) पत्रकारों को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया है। वहीं, इससे 40 (80%) पत्रकारों के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पर भी असर पड़ा है। 30 (60%) पत्रकारों ने अवसाद की सूचना दी और 27 (54%) ने सामाजिक अलगाव का अनुभव किया। खासतौर पर वरिष्ठ पत्रकार भावनात्मक रूप से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। यह व्यक्तिगत सुनवाई में भी देखा गया कि कई वरिष्ठ पत्रकारों ने भावनात्मक रूप से अपने अंदर दुःख का अनुभव किया और उनकी आंखों से आंसू तक आ गए।
कोविड-19 के दौरान नौकरी से निकाले गए अधिकांश पत्रकारों को उन्हें अपना पद छोड़ने के लिए डराया-धमकाया गया था, जिसनें तकरीबन 2500 पत्रकारों को बेरोज़गार कर दिया। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट ने इस बारे में बताया और यह भी कहा कि उन्हें इस्तीफ़ा देने व अपनी इच्छा से नौकरी छोड़ने के लिए उनके समाचार संगठनों द्वारा उन पर दबाव बनाया गया था।
रिपोर्ट का टाइटल “कोविड-19 अवधि के दौरान मीडिया समूहों द्वारा पत्रकारों की छंटनी पर रिपोर्ट”/ “Report on retrenchment of journalists by media groups during the Covid-19 period” रहा। यह रिपोर्ट,महामारी के दौरान पत्रकारों की छंटनी के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए सितंबर 2023 में गठित एक उप-समिति द्वारा तैयार की गई थी।
यह रिपोर्ट अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, बंगाली भाषाओं के 17 समाचार संगठनों और 12 पत्रकार संघों और संघों के कुल 51 पत्रकारों के बयान के आधार पर तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, बंगाली भाषाओं के 17 समाचार संगठनों, 12 पत्रकार संघों और संघों के कुल 51 पत्रकारों के बयान के आधार पर बनाई गई थी।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उपसमिति द्वारा दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के प्रेस क्लबों में सार्वजनिक सुनवाई के दौरान गवाही इकट्ठी की गई थी। अंग्रेजी भाषा के समाचार मीडिया के पत्रकार जो नई दिल्ली और मुंबई में स्थित है, समिति के सामने गवाही देने वालों में से अधिकांश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्व पीसीआई सदस्य बलविंदर सिंह जम्मू और स्वतंत्र पत्रकार सिरिल सैम ने पाया कि लगभग 2,300-2,500 लोगों की छँटनी हुई है। हालांकि, वास्तविक आंकड़े ज़्यादा होने की संभावना है क्योंकि उनका इकठ्ठा किया गया डाटा बड़े पैमाने पर अंग्रेजी भाषा वाली मीडिया तक ही सीमित है।
न्यूज़्लॉन्ड्री ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, जहां पत्रकारों को एक तरफ “आवश्यक कार्यकर्ता” घोषित किया गया था, इसे सही साबित करने के लिए कुछ खासा काम नहीं किया गया। रिपोर्ट में अधिकारियों व समाचार संगठनों द्वारा की गई गंभीर खामियों के बारे में भी इशारा किया गया।
सरकार ने मार्च 2020 मीडिया को आवश्यक सेवा घोषित किया था। रिपोर्ट ने यह भी बताया कि श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक निर्देश प्राकशित करते हुए सभी नियोक्ताओं से कर्मचारियों की सेवाओं को समाप्त न करने या उनके वेतन को कम न करने के लिए कहा गया था। रिपोर्ट ने कहा, अधिकांश मीडिया कंपनी ने इस निर्देश को नज़रअंदाज़ कर दिया।
कोविड के समय पत्रकारों ने सामने से अग्रिम मोर्चे पर होकर काम किया था जिसे पूरी दुनिया ने देखा और आज भी देख सकती है। उन्हें केंद्र सरकार द्वारा “आवश्यक कर्मचारियों” के रूप में भी वर्गीकृत किया गया था लेकिन इसने में मीडिया कंपनियों और संगठनों को पत्रकारों की छंटनी करने से नहीं रोका।
कई मीडिया रिपोर्ट्स ने लिखा कि समाचार मीडिया को ‘आवश्यक कर्मियों’ की श्रेणी में शामिल करने का तर्क यह बताना था कि समाचार और सूचना का प्रसार विशेष रूप से संकट के समय के दौरान बहुत ज़रूरी है। वह भी तब जब लोग दैनिक आधार पर बदलती महामारी की स्थिति से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हों। सूचना के अनौपचारिक माध्यमों से फैली अफ़वाहें लोगों की समझ पर पर्दा डाल रही हो।
केंद्र सरकार के इस निर्देश के प्रति सम्मान व असर बहुत कम दिखा। पत्रकारों को उनकी इच्छा के खिलाफ नौकरी से निकाल दिया गया, उनकी छंटनी की।
बता दें,व्यक्तिगत बयानों और ऑनलाइन प्रस्तुतियों के आधार पर तैयार की गई रिपोर्ट को पीसीआई ने 5 अगस्त को अपनाया था। इसके साथ ही सितंबर 2023 में गठित उप-समिति में गुरबीर सिंह, प्रजनंदा चौधरी, पी. साईनाथ, स्नेहाशीष सूर, एल.सी. गुप्ता और सिरिल सैम शामिल थे।
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75% पत्रकारों को बिना नोटिस के निकाला गया बाहर
समिति के सामने गवाही देने वाले पत्रकारों में से सिर्फ 25 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें कंपनी से अपना पद छोड़ने के लिए औपचारिक ईमेल मिला था। वहीं 75 प्रतिशत पत्रकार ऐसे थे जिन्होंने बताया कि उन्हें बस मौखिक तौर पर बताया गया था।
समिति के सामने व्यक्तिगत सुनवाई में, 80 प्रतिशत पत्रकारों ने दावा किया कि उन्हें “इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया” और उन्हें वेतन कटौती और छंटनी के बारे में कोई पहले से सूचना या औपचारिक जानकारी नहीं मिली थी।
तकरीबन 80 प्रतिशत पत्रकार जिन्हें उनके संगठनों द्वारा निकाला गया, वे तीन प्रमुख प्रकाशकों का हिस्सा थे – 10 बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (Bennett Coleman & co. Ltd) से, 14 हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया से व 8 द हिन्दू पब्लिशिंग ग्रुप से।
पत्रकारों के अनुभव
कविता अय्यर (Kavitha Iyer) जोकि वर्तमान में एक स्वतन्त्र पत्रकार के रूप में काम कर रही हैं, उन्हें इंडियन एक्सप्रेस में 18 साल काम करने के बाद 27 जुलाई 2020 को हटा दिया गया था। वह मुंबई ब्यूरो के पद पर काम कर रही थीं। उन्हें एक बैठक में सूचित किया गया कि उन्हें “इस्तीफ़ा देना होगा” या कार्यमुक्ति पत्र स्वीकार करना होगा या फिर उन्हें बाहर कर दिया जाएगा।
रिपोर्ट में उनके सहकर्मियों को भेजे गए एक ईमेल का भी हवाला दिया गया जिसमें 2020 में अय्यर की अनुमति से सिरिल सैम ने ‘कोविड-19 महामारी के दौरान समाचार मीडिया संगठनों द्वारा छंटनी’ पर अपने शोध के हिस्से के रूप में उसे प्रकाशित किया था।
अय्यर ने अपने एक ईमेल में लिखा कि अगर उन्हें इसकी जानकारी पहले से भी होती, तो भी वह नाखुश ही होतीं। उन्होंने आगे कहा कि दुःख की बात ये है कि हम सभी अब इंसान कम और वायरस ज़्यादा हो गए हैं।
3 अगस्त, 2020 को समाचार संगठनों को लिंक्डइन पर एक खुले पत्र में आशीष रुखैयार (Ashish Rukhaiyar) ने लिखा, जिन्हें उसी साल जून में द हिंदू से निकाल दिया गया था, बताया कि पत्रकारों को फोन पर बर्खास्त किया गया, कुछ को कार्यालय बुलाकर तो कुछ लोगों को उसी समय अपना इस्तीफा सौंपने के लिए कहा गया।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि पत्रकारों को धमकी दी गई थी कि अगर वह अपना इस्तीफ़ा नहीं देते तो उन्हें भुगतान से वंचित कर दिया जाएगा, जिसके वे कानूनी रूप से हकदार हैं।
बता दें, समिति के सामने गवाही देने वालों 80 प्रतिशत पत्रकारों ने बताया कि वे इस छंटनी से आर्थिक रूप से प्रभावित हुए हैं। इसके अलावा, अन्य 34 पत्रकारों ने कहा कि उन्हें पारिवारिक बचत का सहारा लेना पड़ा, जबकि 17 को कर्ज़ लेने और 12 पत्रकारों को अपना घर बदलना पड़ा।
बेनेट कोलमैन कंपनी के मुंबई मिरर (Bennett Coleman’s Mumbai Mirror) में काम करने वाले फोटोग्राफर दीपक तुर्भेकर (Deepak Turbhekar) को जनवरी 2021 में एचआर द्वारा एक वॉट्सऐप कॉल पर इस्तीफा देने के लिए कहा गया था। अगर वह इस्तीफ़ा नहीं देते तो उन्हें बर्खास्त करने की भी धमकी दी गई थी। संगठन को अपने जीवन के 16 साल देने के बाद उन्हें सिर्फ एक महीने का ही वेतन दिया गया।
रिपोर्ट में उनके हवाले से समिति को बताया गया, “मैंने पहले इस्तीफ़ा देने की बात को नजरअंदाज कर दिया और बाद में कुछ हफ्तों तक मुझे व्हाट्सएप कॉल पर कई बार परेशान किया गया।”
नौकरी से ज़बरदस्ती निकाले जाने के बाद दीपक को मुंबई में अपने घर का कर्ज़ चुकाने के लिए भविष्य निधि बचत का इस्तेमाल करना पड़ा। यहां तक अपनी बड़ी बेटी की पढ़ाई के लिए उनकी पत्नी को गहने तक बेचने पड़े।
उन्होंने उपसमिति के सामने कहा, ‘मेरे पास फोटोग्राफी के लिए उपकरण खरीदने तक के पैसे नहीं हैं। मैं अब न्यूज फोटोग्राफी नहीं कर रहा हूं क्योंकि इसमें स्थायित्व नहीं है। स्वतंत्र फोटोग्राफरों को प्रति फोटो 100-125 रुपये के बीच भुगतान किया जाता है. मुझे इसमें भविष्य के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती।’
मुंबई मिरर में ही काम करने वाली श्रुति गणपत्ये ने उप-समिति को बताया कि वह उन तीन लोगों में से एक थीं जिन्होंने संगठन द्वारा ज़बरदस्ती इस्तीफ़ा लेने को लेकर विरोध किया था। बताया कि उस समय छंटनी के मुआवज़े के रूप में पिछले दो महीनों के लिए मूल वेतन की पेशकश की गई थी।
श्रुति ने बताया, ‘मुंबई मिरर में अपनी नौकरी खोने वाले अनुमानित 100 कर्मचारियों में से मेरे साथ सिर्फ 3 लोगों ने इस्तीफा देने से मना किया था और आखिर में हमें बर्खास्त कर दिया गया। मैंने अधिक मुआवज़े के लिए ईमेल लिखा। हालांकि, कंपनी की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।’
वित्तीय तौर पर चुनौती महसूस करने के आलावा पत्रकारों ने यह भी बताया कि नौकरी से बाहर निकाले जाने के कारण उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी काफी असर पड़ा है।
रिपोर्ट बताती है कि इस छंटनी ने समिति के समक्ष गवाही देने वाले 40 (80%) पत्रकारों को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया है। वहीं, इससे 40 (80%) पत्रकारों के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पर भी असर पड़ा है। 30 (60%) पत्रकारों ने अवसाद की सूचना दी और 27 (54%) ने सामाजिक अलगाव का अनुभव किया। खासतौर पर वरिष्ठ पत्रकार भावनात्मक रूप से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। यह व्यक्तिगत सुनवाई में भी देखा गया कि कई वरिष्ठ पत्रकारों ने भावनात्मक रूप से अपने अंदर दुःख का अनुभव किया और उनकी आंखों से आंसू तक आ गए।
द वायर हिंदी की रिपोर्ट ने नेटवर्क ऑफ विमेन इन मीडिया, इंडिया, द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के बारे में लिखा। रिपोर्ट के अनुसार, इस अवधि के दौरान भारत के 626 पत्रकारों की काम के दौरान मृत्यु हो गई, क्योंकि कोरोना संक्रमण ने न्यूज़ रूम और पत्रकारों को बेहद ज़्यादा प्रभावित किया था।
रिपोर्ट ने अपनी सिफ़ारिशों में यह भी बताया कि अगर पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा नहीं है तो उसी समय प्रेस की आज़ादी से समझौता हो जाता है।
पत्रकार व साथी यूनियन ने सरकार के सामने रखी ज़रूरी मांगे
समिति के सामने पेश हुए पत्रकारों और उनकी यूनियनों ने इस बात पर प्रकाश डाला कि लिखित कॉन्ट्रेक्ट, स्वास्थ्य बीमा, ग्रेच्युटी भुगतान जैसी सामान्य रोजगार शर्तें मीडिया उद्योग में मौजूद नहीं हैं।
इस संबंध में, समिति ने अपनी सिफारिशों में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और कानून एवं न्याय मंत्रालय से पत्रकारों के लिए कुछ अनिवार्य खंडों के साथ एक मॉडल अनुबंध शुरू करने का आग्रह किया है। इसमें सेवा का न्यूनतम कार्यकाल ( 7-10 वर्ष), साथ ही पीएफ, ग्रेच्युटी, ईएसआई देने का प्रावधान, छुट्टी का प्रावधान, वेतन में वार्षिक वृद्धि आदि के भी प्रावधान निर्धारित करने के लिए कहा गया है।
पैनल ने सिफारिश की कि पत्रकारों को प्राकृतिक आपदाओं या वैश्विक महामारी जैसी घटनाओं के खिलाफ बीमा प्रदान किया जाए, लंबित श्रम विवादों को फास्ट ट्रैक किया जाए, मुआवजे और लाभों तक आसान पहुंच प्रदान की जाए जो सरकार से “मान्यता प्राप्त” नहीं होने वाले पत्रकारों को नहीं दिए जाते हैं। साथ ही पत्रकारों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कदम उठाने की भी बात की गई।
यहां पत्रकारों को उनके अधिकारों को लेकर जागरूक करने और एक चेकलिस्ट की आवश्यकता को भी रेखांकित किया जो उन्हें रोजगार कॉन्ट्रेक्ट में आम तौर पर भ्रामक धाराओं की पहचान करने में मदद कर सके।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, बड़ी संख्या में पत्रकारों और यूनियनों ने श्रम आयुक्तों और अदालतों के सामने शिकायत पत्र के साथ-साथ कानूनी कार्यवाही भी दायर की थी, लेकिन इस पर कुछ खासी प्रतिक्रिया अभी तक देखने को नहीं मिली।
देश में जब एक पत्रकार के सुरक्षा के अधिकारों की बात की जाती है तो वह उसे कहीं भी प्राप्त नहीं है। न उसके औपचारिक रोज़गार में और न दैनिक जीवन में जो उसके रोज़गार से हमेशा जुड़ा हुआ रहता है।
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