बांदा| 15 अक्टूबर को हर साल महिला किसान दिवस मनया जाता है.लेकिन वह सिर्फ खेतों में काम करने से किसान मान ली जाती हैं| खेती पति या पुरुष के नाम पर होती है| अगर महिला के नाम खेती होती भी है तो पति या पिता के ना होने पर या फिर परिवार वाले रजिस्ट्री में कम पैसा खर्च होने के लालच में महिला के नाम जमीन करवाते हैं|
क्योकिं सरकार से एक यहीं छुट है की अगर कोई जमीन खरीदी जाती है और उसकी रजिस्ट्री बैनामा महिला के नाम होता है तो उसमें कम पैसा लगता है और छूट मिलती है,तो आखिरकार सरकार ने क्यों नहीं सोचा की महिलाएं भी जमीन में बराबर की भागीदार हो. कहां गई सरकार की महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना आखिरकार इस परियोजना के तहत महिला किसानों को सशक्त बनाने के लिए कुछ कार्य हो रहे हैं या सिर्फ यह योजना हवा हवाई में चल रही है धरातल में इसका कोई रोल नहीं है|
दूसरी बात किसानों का जो यूनियन बना है वह इस महिला किसान दिवस के लिए और सरकार से चलने वाली योजनाओं पर क्यों नहीं महिला किसानों को जागरूक कर पा रहा क्यों उनकी भागीदारी इस काम में नहीं दिख रही| कहीं ऐसा तो नहीं की पुरुष सत्ता के चलते उनके अंदर यह डर सता रहा हो कि अगर महिलाएं जमीन में बराबर की भागीदारी और किसानी का दर्जा पा लेगीं तो पूरी कमान महिलाओं के हाथ में ही हो जाएगी और उनकी सत्ता छिन जाएगी|
अगर हम अपनी रिपोर्टीग के अनुभव की बात करें तो बांदा जिले के बल्लान और नौगवां गांव में लगभग 10 महिलाओं से बात की| इनमें से सिर्फ 3 महिलाओं के नाम ही खेती थी वह भी तब जब उनके पति खत्म हो चुके थे| जबकि महिलाएं ही कृषि कार्य ज्यादतर संभालती हैं| लेकिन खेती की जमीन को गिनी चुनी महिलाएं ही अपना कह सकती हैं| क्योंकि काम के लिए तो वह महिला किसान हैं|
लेकिन खेती नाम होने के लिए नहीं| महिला किसान दिवस का उद्देश्य है.कृषि कार्य में महिलाओं की भागीदारी को बढावा देना| लेकिन क्या सिर्फ महिला किसान दिवस बना लेने से ही देश की महिला किसानों को उनके अधिकार मिल सकते हैं? अधिकारों की मांग तो दूर की बात अभी तक बहुत सी महिलाओं को किसान होने का दर्जा भी नहीं मिला है|
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जब हमने इस मामले पर महिलाओं से उनके नाम पर खेती क्यों नहीं होती ये सवाल किया तो वह बोल नहीं पाईं| इस सवाल ने उन्हें ये सोचने के लिए मजबूर कर दिया की आखिकार वह किस तरह की महिला किसान है| जब जमीन उनके नाम ही नहीं है और महिला किसान दिवस का तो मतलब ही नहीं समझ पाईं| क्योंकि खेती का अधिकार काम करने के बावजूद भी ज्यादातर जमीन में पुरुषों का हक होता है|
इस मामले को लेकर जब हमने नौगवां गांव की अमना से बात की तो उसका कहना था कि उसके पास पांच बीघे जमीन है,जिसमें से ढाई बीघे की वह पति के खत्म हो जाने के बाद खुद मालकिन है और ढाई बीघे सास के नाम है| खेती किसानी का पूरा का वह खुद करती है. ट्रेक्टर से जोताई बोवाई कराती है| इसके बाद खेत की रखवाली से लेकर कटाई बिनाई और मडवाई वह खुद करती है| अपने निर्णय लेने के हकदार है पर खेती में इतनी पैदावार नहीं होती की अच्छे से परिवार पल सके न ही महिला किसान होने के नाते उसे किसी तरह का किसानी से संबंधित लाभ मिलता है|
राशन कार्ड और जॉब कार्ड तो आम बात है और हर किसी के पास होता है| ईस लिए मजदूरी करके भी पेट पालती है| किसान चन्द्रकली बताती है की वह किसानी का पूरा काम करती है| फसल कि रखवाली के लिए रात भर जंगल के बीच खेतों में रहती है. जोताई बोवाई सब पति के साथ मिलकर कराती है|
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लेकिन जमीन उसके पति के नाम है उसको भी किसी तरह की योजनाओं का लाभ नहीं मिलता बैंक में खाता तो खुला है पर इतनी आय ही नहीं है की खाते में पैसा डाल सके| अपने किसी जरुरत के लिए उसने पायल बनवा कर रखी थी. जिसको वह बचत कह सके वो भी खेती के काम और लडके की बीमारी के कारण गिरवीं रख दी तो डूब गई| अब उसके पास कुछ नहीं है|
अगर उन्हें भी अपने हक अधिकार के बारे में जानकारी हो और जमीन नाम हो तो जरुर ले सकती हैं पर उनको योजनाओं के बारे में जानकारी ही नहीं है| अब सवाल ये उठता है की बड़े स्तर पर 15 अक्टूबर को महिला किसान दिवस मनाया जाता है और सरकार महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना जैसी योजना खासकर महिला किसानों के लिए लागू कीए है, तो कहां पर है |
धरातल में जमीनी स्तर पर इसके तहत क्या चल रहा है या सिर्फ नाम के लिए योजना चलाई जा रही है इसके साथ ही और भी किसानों के लिए योजनाएं चलाई जा रहे हैं चाहे वह किसान सम्मान निधि योजना खाता हो या फिर किसान बीमा योजना और क्रेडिट कार्ड लेकिन इन सब योजनाओं से कोसों दूर रह जाती हैं महिला के साथ तो क्या ऐसे में उनकी आय बढ़ पाएगी और अपने आपको वह एक अच्छा महसूस कर पाएंगे क्या इसके लिए उनका अधिकार नहीं है जो उन को जागरूक किया जा सके और वह इन योजनाओं से परिचित रहे |
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