आदिवासी बस्तियों में कुपोषण के कारण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की बड़ी संख्या में हो रही मौतों पर माननीय बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र की भाजपा की गठबंधन सरकार को फटकारते हुए कहा “यह भयावह है सरकार को व्यथित होना चाहिए।” न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति संदेश पाटील की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर कड़े शब्दों में टिप्पणी की।
महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल मेलघाट क्षेत्र में जून महीने से अब तक कुपोषण के कारण 65 बच्चों की मौत हो चुकी है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने अमरावती के मेलघाट में कुपोषण से 65 बच्चों की मौत पर चिंता जताई और राज्य सरकार की लापरवाही की आलोचना की। न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और संदीप पाटिल की पीठ ने कहा कि जून 2025 से अब तक क्षेत्र में शून्य से छह महीने की ऊम्र के 65 बच्चों ने जान गंवा दी। यह क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य है और वर्षों से कुपोषण की समस्या से जूझ रहा है। अदालत ने स्थिति को भयावह बताते हुए कहा कि सरकार को चिंतित होना चाहिए।
न्यायालय ने इस आदिवासी क्षेत्र में कुपोषण के कारण बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं की बढ़ती मृत्यु दर पर गहरी चिंता व्यक्त की है। न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति संदेश पाटिल की खंडपीठ ने सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर कड़े शब्दों में टिप्पणी की। “न्यायालय 2006 से इस समस्या पर आदेश दे रहा है। हालांकि सरकार कागज पर सब कुछ व्यवस्थित होने का दावा करती है लेकिन जमीन पर स्थिति अलग है। इससे पता चलता है कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर कितनी गंभीर है आपका रवैया बेहद गैर-जिम्मेदार है।”
निमोनिया है कुपोषण नहीं
हालांकि राज्य सरकार ने दावा किया कि ये मौतें निमोनिया के कारण हुईं, कुपोषण के कारण नहीं। इस पर अदालत ने पूछा ‘क्या क्षेत्र में एक मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल बनाने के 2001 के अदालती आदेश का वास्तव में पालन किया गया है?’ सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। राज्य सरकार को आड़े हाथों लेते हुए अदालत ने कहा ‘यह इस मुद्दे पर आपकी गंभीरता को दर्शाता है। आपका रवैया बेहद लापरवाह है और कई बातों पर आपको जवाब देने की ज़रूरत है। राज्य द्वारा प्रस्तुत किए गए दस्तावेज़ों में उसके प्रयासों को दर्शाया गया था जिसे लेकर अदालत ने कहा ‘कागज़ पर तो सब कुछ ठीक दिखता है लेकिन वास्तविकता से कोसों दूर।
2021 में एक याचिका पर सुनवाई
सितंबर 2021 में एक याचिका की सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाईकोर्ट ने चिंता जताई कि आदिवासी समुदायों के लिए बनाई गई कई कल्याणकारी योजनाएँ सिर्फ कागज़ों पर ही सीमित रह गई हैं। अदालत ने राज्य सरकार से पूछा कि आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण से हो रही बच्चों की मौतों को रोकने के लिए वह क्या कर रही है।
याचिकाकर्ताओं ने बताया कि अगस्त से सितंबर के बीच कुपोषण और डॉक्टरों की कमी के कारण 40 बच्चों की मौत हुई थी जबकि 24 बच्चे मृत पैदा हुए। इस पर अदालत ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर इतनी बड़ी संख्या में बच्चे मर रहे हैं तो इन योजनाओं का क्या उपयोग है? हम जानना चाहते हैं कि बच्चों की मौतें क्यों हो रही हैं और सरकार इस स्थिति को सुधारने के लिए क्या कदम उठा रही है।
आदिवासी क्षेत्रों में पदस्थ डॉक्टरों को दें अधिक वेतन
सुनवाई के दौरान अदालत ने सुझाव दिया कि आदिवासी क्षेत्रों में जो डॉक्टरों अस्पताल में तैनात हैं उनको अधिक वेतन या प्रोत्साहन भत्ता दिया जाना चाहिए ताकि वे मुश्किल हालातों में सेवाएँ देने को प्रेरित हो।
दिसंबर 2021 में अदालत ने सरकार को दिया था निर्देश
एक दूसरी सुनवाई में अदालत ने महाराष्ट्र सरकार से साफ कहा था कि आदिवासी इलाकों में कुपोषण और इलाज की कमी की वजह से एक भी मौत नहीं होनी चाहिए।
दिसंबर 2021 में अदालत ने सरकार को निर्देश दिया कि वह आदिवासी क्षेत्रों में होने वाली कुपोषण-जनित मौतों को रोकने के लिए एक ठोस योजना बनाए। अदालत ने यह भी जोर देकर कहा कि जब बात आदिवासी समुदाय के स्वास्थ्य की हो, तो उन्हें पूरी तरह मुख्यधारा की सेवाओं और सुविधाओं से जोड़ा जाना चाहिए।
मेलघाट और अन्य आदिवासी क्षेत्रों में लगातार हो रही बच्चों की मौतें महाराष्ट्र में कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविक स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। बॉम्बे हाईकोर्ट के बार-बार दिए गए निर्देशों, चेतावनियों और फटकारों के बावजूद जमीनी हालात में आवश्यक सुधार दिखाई नहीं देता। सरकार के दावों और कागज़ी योजनाओं के विपरीत आदिवासी बस्तियों में बच्चों, गर्भवती महिलाओं और माताओं की मौतों का बढ़ता आंकड़ा बताता है कि प्रशासनिक कार्यवाही अभी भी अधूरी, कमजोर और असंगठित है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि जब 2006 से लेकर 2021 और अब 2025 तक हाईकोर्ट लगातार आदेश दे रहा है चेतावनी दे रहा है और समाधान सुझा रहा है तो फिर आदिवासी बच्चों की मौतों का यह सिलसिला आखिर क्यों नहीं रुक रहा?
क्या योजनाएँ केवल कागज़ों पर ही चलती रहेंगी और जमीनी स्तर पर बदलाव कभी नहीं आएगा?
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