इससे सभी लोग भली भाँति परिचित हैं कि 5 जून को पर्यावरण दिवस है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम सच में एक शुद्ध पर्यावरण में रह रहे हैं ?
लेखन – रचना
हर साल 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। अखबारों में लेख छपते हैं, स्कूलों में भाषण होते हैं, सोशल मीडिया पर फोटो और पोस्ट लगाए जाते हैं। पेड़ लगाने की बात होती है, सफाई का संकल्प लिया जाता है। लेकिन क्या हम सच में पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं या ये दिन अब सिर्फ कैलेंडर की एक तारीख बनकर रह गया है? आज जब हम चारों ओर देखते हैं, तो साफ दिखाई देता है कि पर्यावरण संकट में है। पेड़ कट रहे हैं, जंगल उजड़ रहे हैं, जानवरों का बसेरा छीना जा रहा है, और हवा–पानी ज़हर बनता जा रहा है। क्या यही विकास है? और अगर यही विकास है, तो क्या यह सही दिशा में है ?
हसदेव जंगल, भारत के फेफड़े की कटाई
छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य भारत के सबसे पुराने और घने जंगलों में से एक है। यह न केवल जैव विविधता से भरपूर है, बल्कि यहां लाखों पेड़ हैं जो पूरे भारत के लिए ऑक्सीजन का काम करते हैं, इसलिए इसे भारत का “फेफड़ा” भी कहा जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हसदेव जंगल में लगातार पेड़ों की कटाई हो रही है। कोयला खनन के नाम पर इस क्षेत्र को उजाड़ा जा रहा है। स्थानीय आदिवासी, किसान और पर्यावरण कार्यकर्ता बार–बार विरोध करते हैं, धरना देते हैं, पदयात्रा करते हैं। लेकिन उनकी आवाज़ को अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। छत्तीसगढ़ के पाँचवी अनुसूचित क्षेत्र, हसदेव में ग्रामसभा ने खनन की सहमति नहीं दी बावजूद इसके आदिवासियों की जमीन छीनी जा रही है । अदानी की विकास योजना तेजी से आदिवासियों का सब कुछ छीन रही है । क्या हम सच में विकास कर रहे हैं, या प्रकृति की कीमत पर विनाश?
हैदराबाद विश्वविद्यालय का मामला
एक और ताज़ा उदाहरण है हैदराबाद विश्वविद्यालय का। यहाँ विकास के नाम पर सैकड़ों पेड़ काटे जा रहे थे। जब छात्रों ने विरोध किया, तब कहीं जाकर कोर्ट ने मामले पर स्टे लगाया। सोचिए, अगर छात्र न बोलते नहीं लड़ते तो इतने सारे पेड़ चुपचाप काट दिए जाते। उसी विरोध प्रदर्शन को करने पर छात्राओं के ऊपर लाठी भी बरसाया गया। इससे यह भी साफ होता है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूकता और संघर्ष की कितनी ज़रूरत है। अगर हम चुप रहेंगे, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा – न पेड़, न जंगल, न शुद्ध हवा। यह भी एक सवाल है कि विश्वविद्यालय जैसे जगहों का जंगल काट देने का मकसद क्या है ?
जंगल की कीमत पर कारखाने और फैक्ट्रियाँ
देश के अलग–अलग हिस्सों में विकास के नाम पर जंगल काटे जा रहे हैं। नए शहर बसाए जा रहे हैं, राजमार्ग बन रहे हैं, फैक्ट्रियाँ और खदानें खोली जा रही हैं। इसके बदले में पेड़ काटे जाते हैं, नदियों का रुख मोड़ा जाता है, और जंगलों को बंजर ज़मीन में बदल दिया जाता है। इन फैक्ट्रियों और कारखानों से निकलने वाला धुआँ, केमिकल और गंदगी हमारे पर्यावरण को लगातार ज़हरीला बना रहा है। गाँवों और शहरों में प्रदूषण से जुड़ी बीमारियाँ तेजी से बढ़ रही हैं। बच्चे सांस की बीमारियों से ग्रसित हैं, जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। बड़े- बड़े नदी और डेम के पानी को सिर्फ़ बड़े कारख़ाने और फैक्ट्रियां के लिए दी जाती हैं। अब इसमें कोई शक नहीं कि पर्यावरण दूषित ना हो।
जानवरों का क्या ?
जंगल सिर्फ पेड़ों का घर नहीं होता। वहाँ हज़ारों तरह के जानवर, पक्षी, कीड़े और जीव-जंतु रहते हैं। जब जंगल उजड़ता है, तो उन जानवरों का घर भी छिन जाता है। ऐसे में वे इंसानी बस्तियों की ओर आ जाते हैं कभी बाघ दिखता है, कभी तेंदुआ, तो कभी हाथी खेतों में बस्ती में घुस आते है। और फिर हम कहते हैं कि ये जानवर खतरनाक हो गए हैं। असल में, हमने उनका घर छीना है, उनकी ज़िंदगी को संकट में डाला है। क्या जंगल और उसके जीव-जंतु पर्यावरण का हिस्सा नहीं हैं? जब हम पेड़ काटते हैं, तो केवल लकड़ी, फल,फल, जड़ी बूटियाँ नहीं काटते हम एक पूरा पारिस्थितिक तंत्र नष्ट कर देते हैं।
पेड़ लगाना बनाम पौधे लगाना
सरकारी आंकड़ों में अक्सर लिखा होता है कि इतने लाख पेड़ लगाए गए। लेकिन हकीकत यह है कि वे पेड़ नहीं बल्कि छोटे-छोटे पौधे होते हैं जिन्हें बड़ा होने में कई साल लग जाते हैं, वह भी तब जब सही देखभाल हो। ज़्यादातर पौधे तो सूख जाते हैं या जानवर खा जाते हैं, क्योंकि उनके लिए ना कोई सुरक्षा होती है और ना ही नियमित देखरेख। इसके विपरीत, जो पुराने पेड़ काटे जाते हैं वे दशकों, यहाँ तक कि सदियों में विकसित हुए होते हैं। एक विशाल पीपल या बरगद का पेड़ जिस तरह का पर्यावरण संतुलन बनाए रखता है, उसे एक छोटा पौधा अगले 20-30 साल में भी नहीं दे सकता। लेकिन ये बात कहां जंगल उजाड़ने वालों को समझ आती है। एक ओर लाखों में पेड़ काटते दिखाई देते हैं और दूसरी ओर बड़े बड़े पोस्टर में पौधे लगाते दिखते हैं उस पौधे का आगे क्या होता है कोई पता नहीं।
देश में प्लास्टिक का उपयोग, क्या कहते हैं इस साल आँकड़े?
यह दिन यह सोचने का भी अवसर देता है कि हम अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए क्या कदम उठा सकते हैं, विशेषकर प्लास्टिक प्रदूषण के संदर्भ में जो इस साल के पर्यावरण दिवस का विषय है। भारत में प्लास्टिक का उपयोग लगातार बढ़ रहा है। 5 जून 2025 टाइम्स ऑफ़ इंडिया के रिपोर्ट के अनुसार , बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अशोक कुमार घोष ने कहा कि भारत में हर व्यक्ति सालभर में औसतन 11 किलो प्लास्टिक का उपयोग करता है।
दूसरी तरफ, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत सालाना 34 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। इसमें से लगभग 60% कचरा पुनर्चक्रित हालांकि, यह आंकड़ा चिंताजनक है क्योंकि यह प्रदूषण की गंभीरता को दर्शाता है। यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रही तो 2050 तक प्लास्टिक उद्योग विश्व की कुल तेल खपत का 20% हिस्सा हो सकता है, क्योंकि घोष के अनुसार 99% से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन तेल, प्राकृतिक गैस और कोयले से प्राप्त रसायनों से होता है – जो सभी गैर-नवीकरणीय संसाधन हैं। भारत में उत्पन्न प्लास्टिक कचरे का 43% हिस्सा एकल उपयोग वाले प्लास्टिक का होता है – जैसे कि थैलियाँ, स्ट्रॉ, डिस्पोजेबल प्लेट्स आदि। भारत वैश्विक प्लास्टिक कचरे का लगभग 20 प्रतिशत उत्पन्न करता है, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक बनाता है । इसके अलावा, भारत में लगभग 65 प्रतिशत प्लास्टिक कचरे का उचित प्रबंधन नहीं होता, जिससे यह पर्यावरण में फैलता है और जल, वायु तथा मृदा को प्रदूषित करता है ।
पर्यावरण और विकास, क्या ये एक दूसरे के दुश्मन हैं?
जब भी कोई पेड़ काटे जाने की बात होती है या किसी परियोजना का विरोध होता है, तो सरकार और कंपनियाँ कहती हैं कि यह “विकास” के लिए ज़रूरी है। लेकिन क्या विकास का मतलब यह है कि हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारें? सच्चा विकास वही है जिसमें पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था, तीनों का संतुलन बना रहे। आज बहुत से देश जैसे कि कोस्टा रिका, स्वीडन, और भूटान पर्यावरण अनुकूल विकास कर रहे हैं। वहाँ साफ हवा, हरे – भरे जंगल और खुशहाल नागरिक हैं। हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? और इसका जिम्मेदार कौन हैं ? आउटलूक के एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में विकास कार्यों की आड़ में 1 करोड़, 9 लाख 75 हजार 844 पेड़ काट दिए गए। यह जानकारी सरकार की तरफ से दी गई है। इन पेड़ों को काटने की इजाजत केंद्र/राज्य सरकारें दे चुकी हैं यानी एक तरह से देखा जाए तो देश में हर साल लगभग 22 लाख पेड़ काटे जा रहे हैं और वह भी विकास के नाम पर काटे जा रहे हैं। पिछले दो तीन वर्षों से पेड़ काटने का कोई भी डेटा उबलब्ध है, तो सम्भावना है कि 22 लाख से अधिक पेड़ काटे गयें हों।
पर्यावरण दिवस कोई त्योहार नहीं, यह एक चेतावनी है
अगर अब भी नहीं जागे नहीं बोले तो बहुत देर हो जाएगी। हसदेव जैसे जंगल अगर आज कट रहे हैं, तो कल गंगा और यमुना जैसी नदियाँ भी सूख जाएँगी। जानवर अगर आज मारे जा रहे हैं, तो कल हमारी बारी भी आ सकती है। तो सोचिए और समझिए कि, इस पर्यावरण दिवस पर सिर्फ पौधे न लगाएँ, बल्कि संकल्प लें कि हम प्रकृति के प्रहरी बनेंगे। विकास ज़रूरी है, लेकिन प्रकृति की कीमत पर नहीं।
यह दिन हमें केवल यह याद दिलाने के लिए नहीं है कि पर्यावरण महत्वपूर्ण है, बल्कि यह एक चेतावनी है कि अगर हमने अब भी नहीं सोचा, तो बहुत जल्द साँस लेने लायक हवा, पीने लायक पानी और जीने लायक ज़मीन तक नहीं बचेगी।
हमें समझना होगा कि पर्यावरण की रक्षा कोई एक दिन का काम नहीं, बल्कि यह जीवन की एक सतत प्रक्रिया है। हर दिन, हर पल हमें ऐसे निर्णय लेने होंगे जो प्रकृति के अनुकूल हों। हमें यह भी समझना होगा कि पर्यावरण और जल, जंगल की लड़ाई अब सिर्फ आदिवासियों या पर्यावरणविदों की नहीं रही यह हर उस इंसान की लड़ाई है जो जीवन को आगे बढ़ते देखना चाहता है। समय है कि अब सिर्फ “पर्यावरण बचाओ” का नारा न दें, बल्कि उसे जीना शुरू करें।
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