बचपन में खट्टा-मीठा चूरन 1 रूपये का चार पैकेट मिलता था। कोई पैकेट काला होता था तो कोई लाल और खाने में उसका स्वाद आहा! ज़बरदस्त। पहले स्कूल जाते हर बच्चे के हाथों में चूरन का पैकेट दिखता था।
वो खट्टा-मीठा चूरन जिसे खाने से चीभ रंग-बिरंगी हो जाती है। फिर वो लाल-नीली-काली-पीली जीभ बाहर निकालकर हम अपने दोस्तों को दिखाते, चिढ़ाते कि किसकी जीभ कितनी रंगीन और एक-दूसरे के साथ मज़ाक करते। वो दिन, दोस्त और हंसी के रंगीन चूरन, आज भी यादों में मुस्कुराते हैं।
चलिए चलते हैं फिर उन दिनों में अपने आज के साथ। यह 2024 का साल है और मैं आपको ले जा रही हूँ 1980 के दशक से जुड़े उस व्यक्ति की कहानी के पास, जो हमारे बचपन को हमारे कल के साथ जोड़े हुए हैं। वह व्यक्ति हैं, वाराणसी जिले के मनोज आग्रही।
वाराणसी के रामघाट पर रहने वाले मनोज आग्रही तकरीबन 30 सालों से अपने ठेले पर हर किसी के बचपन की यादों को लेकर चल रहे हैं। कहते हैं,
“मैं जब तक रहूंगा तब तक बेचता रहूँगा ये चूरन, बचपन की यादों के साथ।”
बचपन में खट्टा-मीठा चूरन 1 रूपये का चार पैकेट मिलता था। कोई पैकेट काला होता था तो कोई लाल और खाने में उसका स्वाद आहा! ज़बरदस्त। पहले स्कूल जाते हर बच्चे के हाथों में चूरन का पैकेट दिखता था। चूरन जैसे ही जीभ को छूता, पूरा तन-बदन खिल उठता। आँखों से लेकर चेहरे तक स्वाद का रंग दिखता।
मनोज कहते, पहले मैं खूब चूरन बनाता और बेचता था। प्लास्टिक की पुड़िया होती थी, एक रूपये के चार पैकेट मिलते थे। कहते, स्कूल के सामने तो काफी बिक जाता था।
आज पहले की तरह हर स्कूल के सामने लगने वाले, बचपन को याद दिलाते ठेले कहीं पीछे छूट गए हैं और हम आगे बढ़ निकले हैं।
मनोज कहते हैं,
“आज वही पुड़िया, बचपन की यादें लेकर मैं ठेले पर 1980 से बेच रहा हूँ। अब तो वह पुड़िया नहीं है लेकिन फिर भी कागज़ों में करके देते हैं।”
जो चटपटे चूरन हैं, उसे बनाने में स्वाद भी अलग होता था। वह कई प्रकार के चूरन बनाते हैं जो दिखने में लाल और काले दिखाई देते हैं जिसे खाने के बाद बच्चे कहते हैं,”जीभ जल गई”, जिसे “जीभ जरवा” भी कहा जाता था।
मनोज, 15 साल की उम्र से खट्टे-मीठे चूरन बनाने का काम कर रहे हैं। आज उनकी उम्र लगभग 80 साल के आस-पास हो चुकी है। पहले वे चूरन घूमकर भी बेचा करते थे। आज वह स्कूल के बगल में ठेला लगाकर बेचते हैं।
कहते,“मेरी ज़िंदगी इस चूरन के बीच बीत गई।”
चूरन बनाने की चीज़ों के बारे में बताते हुए कहते हैं, काला नमक, ज़ीरा, नींबू , इमली और जवाहर लगभग 5 से 7 चीज़ों को मिलाकर यह बनता है। वह रोज़ एक किलो चूरन बेचने के लिए ले लेते हैं। दर्शन करने आये व्यक्ति इसे लेकर खाते हैं। बच्चा या बूढ़ा जो भी इसे लेता है, यही कहता है कि ‘यह चीज़ तो हम बचपन खाये थे।’
उनकी जो भी आमदनी है, वह इसी काम से होती है। कहते,
‘मैं लगातार बचपन की यादों के नाम से यह चूरन बेचता हूँ।’
सुबह 10 बजे से शाम 7 बजे तक वह ठेला लगाते हैं और बहुत अच्छा बिक जाता है।
गाज़ीपुर की प्रियंका कहतीं, जब भी वह यहां आती हैं चूरन लेकर जाती हैं क्योंकि खाने में उसका स्वाद काफी अच्छा होता है। देखते ही मुंह में पानी आ जाता है। बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं। जब बच्चे पूछते हैं, तो हम बताते हैं कि यह हम लोगों के बचपन की कुछ यादें हैं।
यह 2024 है और बचपन की यादें आज से कहीं ज़्यादा दूर, पर दिल के उतने ही ज़्यादा पास। कोई आज भी बचपन है, कोई उसे याद ही नहीं कर पाया। ये आर्टिकल आपके बचपन की यादों के नाम।
इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला देवी द्वारा की गई है।
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