भारत सड़क दुर्घटनाओं के मामलों में दुनिया में पहले स्थान पर है। 400 लोगों की मृत्यु एक दिन में यानी 17 लोगों की मृत्यु हर एक घंटे में सड़क हादसे की वजह से होती है।
इन मामलों में से कई में, दुर्घटना पीड़ितों को उनके सबसे जरूरी समय में कोई भी आपातकालीन चिकित्सा नहीं मिली। सेव लाइफ फाउंडेशन, एनजीओ द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि लोग 88% कानूनी अड़चनों और पुलिस द्वारा सताय जाने के डर की वजह से मदद नहीं करते। जबकि अन्य देशों में इस तरह की मदद को कानूनन माना जाता है। वहीँ भारत में इस तरह का कोई कानून नहीं है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2016 में, निर्देश जारी किया था कि सड़क दुर्घटना के दौरान घायल की मदद करने वाले को परेशान नहीं किया जायेगा।
ऐसे में इन चार युवकों से मिलें जो दुर्घटना से पीड़ित लोगो की सहायता करने से पीछे नहीं हटे, उनकी आप बीती वे खुद बतातें हैं।
दीपिका भार्गव, पुणे
सितम्बर 21, मैं खाना खा कर लौट रही थी तभी मैंने सड़क पर कुछ लोगों की भीड़ देखी। मैंने अपनी कार साइड लगा कर वहां देखने गई। वहां एक लड़की बस से टकराने के कारण लगभग बेहोशी की हालत में थी उसे बहुत चोटें भी आई हुई थी। दो लड़के उसे बस के नीचे से निकालने की कोशिश कर रहे थे और बाकी खड़े हो कर देख रहे थे। मैंने बिना समय गंवाए 102 पर फ़ोन कर एम्बुलेंस को बुलाया और पास के क्लीनिक से भी किसी को आपतकाल चिकित्सा देने को कहा, लेकिन वहां स्टाफ की कमी होने के कारण कोई न आ सका। मैंने बिना देर किये लड़की को अपनी कार में बैठा लिया और हॉस्पिटल ले गई। वहां के डॉ ने बड़े ही अच्छे व्यवहार के साथ मेरी बात सुनी और इलाज शुरू किया। बाद में पता चला कि वहां 40 मिनट के बाद एम्बुलेंस पहुंची थी। अब आप सोच सकते हैं कि अगर मैं ऐसा न करती तो क्या होता!
नवीन मित्तल, सेवलाइफ फाउंडेशन से जुड़े और सहायक प्रोफेसर: जुलाई 2015, मैं अपने परिवार के साथ एक शादी के लिए जा रहा था। तभी मैंने एक व्यक्ति को पुल के पास खून से लथ-पथ देखा। बिना समय बर्बाद किये मैंने उसे उठाया और नजदीकी अस्पताल ले गया। घायल, एक 26 वर्षीय सीए छात्र था। उसके सर पर गंभीर चोट आई थी लेकिन जल्द अस्पताल आने की वजह से वो बच गया था। एक ऐसी ही दूसरी घटना में मेरी मदद सेवलाइफ ने भी की, जिसकी वजह से एक महिला की जान बच सकी।
सृजित रवीन्द्रन, सीईओ ऑफ़ मालक स्पाइस रेस्टोरेंट, पुणे: 21 जनवरी 2016, मैं होल्कर पुल पुणे में था। शाम 7:15 बजे मैंने वहां भीड़ को एक बुजुर्ग आदमी को सड़क पर घेरे देखा। उन्हें कोई बाइक सवार टक्कर मार कर भाग गया था, लोग देख रहे थे लेकिन मैंने किसी का इंतजार किये उन्हें अपनी कार में बैठा कर पास के छावनी अस्पताल में ले गया। अस्पताल के अधिकारियों ने केवल एक ही एम्बुलेंस प्रदान की हुई थी जिसकी वजह से घायल व्यक्ति को अस्पताल तक ले जाना मुमकिन नही था। मैंने उन्हें जल्द मुख्य अस्पताल लेजाने का निर्णय लिया लेकिन वहां भी डॉ। ने उनके बहते खून को देखते हुए भी इलाज के बारे में नहीं सोचा। वह लोग पहले पुलिस कार्यवाही चाहते थे लेकिन मुझे घायल की चिंता हो रही थी। समय बीतता जा रहा था और न वहां पुलिस थी और न ही डॉक्टर। मैं हार कर घायल को सीटी स्केन के लिए जल्द ले गया और वहां गुस्सा भी किया ताकि कोई तो घायल का बहता खून पौंछ सके। इस व्यवहार के बाद डॉ। ने उन्हें ट्रुमा आईसीयू में लिया। उसकी हालत गंभीर थी और अस्पताल का यह रवैया देख कर मुझे डर था कि कहीं व्यक्ति की जान ही न चली जाये।
राजीव नारायण, दिल्ली: मैं घायल की मदद करते हुए सबसे पहले 100 पुलिस और फिर 102 एम्बुलेंस के लिए डायल करता हूँ। एक बार, एक बाइकर को सरोजिनी नगर, दिल्ली में एक ट्रक ने टक्कर मार दी थी और वो भाग गया था। मैं उसे तुरंत पास के एक निजी अस्पताल में ले गया। लेकिन अस्पताल में मुझे जोर देकर कहा गया कि मैं घायल को एम्स ले जाऊं लो। इन्ही सब में लगभग 30 मिनट बर्बाद हो गये थे जो घायल के लिए बेहद जरुरी थे। हार कर मैंने अस्पताल प्रशासन के साथ लड़ाई लड़ी और घायल के लिए प्राथमिक चिकित्सा ली।
इन सबसे यह सीख मिलती है कि जो लोग मदद करना भी चाहते हैं उनका साथ पुलिस और अस्पताल प्रशासन नहीं देता जिसके कारण लोग मदद नहीं करना चाहते। यहीं पर लोगों को यह भी समझना होगा कि घायल व्यक्ति को दुर्घटना के बाद पानी पीने को न दिया जाये क्योंकि यह उनकी जान के लिए खतरा बन जाता है। सबसे जरुरी है कि मदद करने वाले लोगों से तुम यहाँ क्यों हो? कैसे यह दुर्घटना हुई? और क्या आपने इस व्यक्ति को मारा? जैसे सवाल नहीं किये जाने चाहिये वरना लोग कभी भी मदद के लिए आगे नहीं आयेंगे। हमें यह समझना होगा कि समाज में इस समझ को बढ़ाना है कि जब कोई व्यक्ति मौत के लिए लड़ रहा है तब उसे सबसे पहले बचाने का प्रयास हो न कि कार्यवाहीं करने में समय व्यर्थ करें।
साभार: यूथ की आवाज़