जन सूचना अधिकार की दसवीं वर्ष गांठ इस साल मनाई जा रही है। वैसे तो कानून सबके लिए बहुत ही सकारात्मक साबित हो सकता है लेकिन इस कानून के अंदर के ढांचे पर जो लोग हैं वही सूचना न देकर सूचना मांगने वाले को भ्रम में डाल देते हैं। आइए मिलते हैं कुछ ऐसे लोगों से जिन्होंनेइस पर जमीनी स्तर में काम किया है।
आशीश सागर दीक्षित बांदा जिले के रहने वाले हैं। इनका कहना है, “30 सितंबर 2009 से मैं जन सूचना अधिकार के तहत काम कर रहा हूं। 2008 की बात है कि मैंने पहली बार जन सूचना अधिकार के तहत एक व्यक्ति का वेतन दिलवाने में इसका प्रयोग किया। जहां छह महीने से वेतन नहीं मिल रही थी वहां एक दिन में काम हो गया। इसके प्रति मेरी रूचि बढ़ी और मैंने पूरा कानून पढ़ा, दूसरी कामयाबी सत्तर लोगों को वेतन दिलाने में मिली। इस तरह से मुझे इसके प्रति रूची हुई। और एक के बाद एक सूचना मांगता रहा और मिलती गई। अब तक मैंने एक हजार सूचनाएं लगभग मांगी हैं। जिसमें अस्सी प्रतिशत जानकारी मिली है। कुछ दिन के बाद लगने लगा कि संतोषजनक जानकारी नहीं मिल पा रही है। कभी भी समय पर जानकारी नहीं मिलती है। जो सूचनाएं राज्य और केन्द्र स्तर की हैं वह समय के रहते मिल जाती हैं लेकिन लोकल स्तर की सूचनाएं बहुत देर से मिलती हैं। पूरी सही भी नहीं होतीं। जैसे कि 14 अगस्त 2015 को मैने पी.डब्लू.डी. प्रान्तीय खण्ड से सूचना मांगी। 22 नवम्बर 2015 तक कोई सूचना नहीं दी गई। मैंने कमिश्नर के यहां सूचना की अपील की। तब जाकर अभी प्रक्रिया शुरू हुई है।
सैयद अली मंजर पेशे से वकील हैं। इनका कहना है-जन सूचना अधिकार कानून जनता के हित में बहुत अच्छा है। क्योंकि हम लोग लंबित पड़े मामले को जब अधिकारियों द्वारा बहुत खींचा जाता है। हम इसका प्रयोग करके मामलों को जल्दी निपटा देते हैं। तीन साल के अंदर लगभग बारह सूचनाएं मांगी हैं तो लगभग दस सूचनाएं मिली तो हैं लेकिन समय से नहीं दी र्गइं। समय से नहीं मिली तो वह हमारे किसी काम की नहीं रह जाती हैं। बांदा चेयरमैन के कार्यकाल में नगर पालिका के कार्य को हर साल तीस-तीस करोड़ रूपए विकास कार्य के लिए आए हैं। मैंने उन रूपयों के उपयोग के बारे में सूचना 21 जुलाई 2015 को नगर पालिका से मांगा कि यह धन कहां और कितना लगाया गया लेकिन आज तक सूचना नहीं दी गई। इस कानून में जो प्राविधान हैं सरकार उनको फालो नहीं कर रही है।
सूचना का अधिकार कानून के दस साल
पिछला लेख