संसद में पक्ष हो विपक्ष हो। हंगामा हो, बहस हो और विरोध हो। मगर इन सबका नतीजा निकलना चाहिए। इन दिनों संसद में चल रहे मानसून सत्र में सबकुछ हो रहा है मगर नतीजा कुछ भी नहीं निकल रहा। विपक्ष पक्ष को झुकाने पर अड़ा है तो पक्ष भी अकड़ा है। कांग्रेस या दूसरी पार्टियां जब भी मौजूदा सरकार की किसी असफलता को गिनाती हैं तो सरकार के लोग तुरंत कह देते हैं कि कांग्रेस अपना राजकाल याद करे। तो क्या मान लें कि संसद अब अखाड़े का मैदान है, जहां दो लोग या पार्टियां एक दूसरे को चित करने में लगी हैं।
इस बार संसद सत्र में विपक्षी पार्टियों ने सरकार का विरोध किया, काली पट्टी बांधकर नारेबाजी की। संसद के आंगन पर लगी गांधी जी की मूर्ति के सामने प्रदर्शन किया तो सरकार के सांसदों ने भी जवाब में कुछ ऐसा ही किया। करीब पंद्रह दिन में एक भी विधेयक नहीं पास हो पाया। जबकि कई जरूरी विधेयकों पर इस बार चर्चा होनी थी। कांग्रेस के पच्चीस सांसद हंगामा करने के कारण बर्खास्त हो गए।
यह बात नई नहीं है मगर एक बार इसे याद करना जरूरी है कि संसद में बैठे लोग हैं कौन? यह लोग जन प्रतिनिधि हैं जिन्हें जनता वोट देकर वहां पहुंचाती है, इस उम्मीद के साथ कि यह लोग वहां जनहित के मुद्दे उठाएंगे, कानून बनाएंगे, समस्याओं का समाधान खोजेंगे। मगर संसद हंगामे की भेंट चढ़ गई। हंगामा जरूरी है। मगर बेनतीजा हंगामा जनता के साथ धोखा है, मतदान का अपमान है, लोकतंत्र का मजाक है। ऐसे में लोकतंत्र और राजनीति पर कविताएं लिखने वाले मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की एक लाईन याद आती है। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, कोशिश है कि सूरत बदलनी चाहिए। मगर इस बार मानसून संसद सत्र में दोनों पक्षों ने कोशिश सूरत बदलने की नहीं बल्कि एक दूसरे को हराने की हुई।