खबर लहरिया न्यूज़ नेटवर्क महिला पत्रकारों का एक समूह है । खबर लहरिया की पत्रकार का आंखों देखा हाल। इस पत्रकार ने पहली बार चुनावों को इतने करीब से देखा।
पिछले चैदह सालों में करीब तीन बार पंचायत के चुनाव देख चुकी हूं। देखे तो इससे पहले भी हैं। मगर इन चैदह सालों में हर चुनावए हर बदलाव को करीब से देखने की कोशिश की। एक बार फिर उत्तर प्रदेश में प्रधान पद के चुनाव का नामांकन शुरू हो गया है। औरतों के लिए सरकार ने तैंतिस प्रतिशत आरक्षण तय किया है। इसलिए इन सीटों पर कम से कम औरतें ही उम्मीदवारी के लिए खड़ी हैं। यह देखना कुछ सुकून देता है कि औरतें गांव की राजनीति और बदलाव का हिस्सा बनती दिखाई देती हैं। मगर नामांकन से लेकर चुनाव प्रचार और फिर उसके बाद मीटिंगों और फील्ड में यह औरतें कम ही नजर आती हैं। प्रधानों के लिए होने वाली कई सरकारी मीटिंगों में पुरुष ही दिखते हैं। तो सवाल उठता है कि यह औरतें कहां चली जाती हैं। यह औरतें कहीं नहीं जातीं। बल्कि इन्हें पीछे जाने को मजबूर कर दिया जाता है। कुछ धारणाए सामाजिक सोच और कुछ दबाव इन्हें घरों की चाहरदीवारी के भीतर धकेलने में कामयाब हो जाती है।
नामंकन के वक्त से ही पुरुष आगे आगे और औरतें पीछे पीछे दिखाई पड़ना शुरू हो गई हैं। रही बात बदलाव की तो कुछ खास देखने को नही मिले हैं। विकास की बात करें तो दलित बस्तियों के हालात जस के तस हैं। महिला प्रधान की बात करें तो उनको प्रधानी के नाम पर कठपुतली की तरह नचाया जाता है। पूरा काम पति या उसका बेटा या फिर पूर्व प्रधान ही करता है। महिला प्रधान से जवाबदेही मागने पर वह सिर्फ इतना ही जवाब देती है कि उसको नही पता की क्या काम हुआ है। वह घर में रहती हैं। उसे कुछ भी नहीं बताया जाता है? कितना बजट आया है? कहां पर खर्च होना है? कहां पर क्या विकास होगा? हर योजना पुरुष ही बनाता है। अंगूठा लगाने .साइन करना है सभी महिला प्रधान के पास चेक आती हैं। क्योकि बिना उनके साइन के आगें का काम नहीं होगा। बाकी और कुछ जानने का अधिकार उसको नही दिया जाता है। अगर महिला चाहती भी हैं कि वह आगे आय तो उसे आने भी नहीं दिया जाता है ऐसा बिल्कुल नही हैं कि महिला प्रधानी चला नही सकती है पर पुरुष उनको मौका नही देते हैं। सरकार को चाहिए कि वह महिला प्रधानों के लिए प्रशिक्षण का इंतजाम करे। उन्हें सलाह मशविरा देने की व्यवस्था की जाए। मगर ऐसा कुछ भी नहीं होता।
कई बार वी डी ओ ब्लाक में महिला प्रधानों के पतियों के साथ ही मीटिंग कर लेते हैं। यहां तक कि मीटिंग की हाजिरी भी महिला प्रधानों के नाम से लग जाती है। जब सरकारी अधिकारियों को नियमों की चिंता नहीं है तो फिर गांव के पुरुषों को भला किसका डर ?
यू.पी. की हलचल – सत्ता की असल भागीदार बनें औरतें
पिछला लेख