जिला चित्रकूट। जिले के अधिकतर गांवों में दिन के समय औरतें नहीं दिखाई देतीं। लेकिन जहां तहां पुरुष जुआं खेलते और शराब पीते दिखाई देते हैं। यहां की औरतें सुबह पांच बजे घर से निकल जाती हैं। शाम होने के बाद ही गांव लौटती हैं। अपना घर चलाने के लिए औरतें रोजाना करीब सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर तय करके लकड़ी काटने और बेचने का काम करती हैं। इस ही कमाई से इनके घर का खर्च चलता है। कमाई के साथ इन्हें घर के दूसरे काम भी करने पड़ते हैं। अगर ये महिलाएं ये काम न करें तो इनके परिवार का पालन पोषण नहीं हो सकता है।
गांव मारकुण्डी। यहां की रंची और मीरा का कहना है कि हम जब से शादी करके ससुराल आए हैं तब ही से लकड़ी बेचने का काम करते हैं। सुबह जंगल जाकर लकड़ी काटते हैं, पचास साठ किलो का गट्ठा बनाते हैं। ट्रेन से कर्वी, बांदा, अतर्रा, सतना, कटनी और इलाहाबाद तक इसे बेचने जाते हैं। एक गट्ठा लगभग डेढ़ सौ रुपए में बिकता है।
गांव छेरिया। यहां की ऊषा और रमदइया का कहना है कि जब ट्रेन लेट होती है तो हमें स्टेषन में इंतजार करना पड़ता है। इसका फायदा स्टेषन मास्टर और पुलिस उठाती है। ट्रेन में चढ़ने देने के बदले लकड़ी का एक एक गट्ठा मांगते हैं। जंगल के गार्ड भी हम से पैसा मांगते हंै। कई महिलाओं का कहना है कि हम छोटे छोटे बच्चे छोड़ कर दिन भर जंगल और ट्रेन में धक्के खाते हैं।
गांव टिकरिया और जमुनिहाई। यहां की बिट्टी, फूला, ललिता भी इस ही काम में लगी हैं। उन्होंने बताया कि जब हम लोग ट्रेन में लकड़ी लेकर चढ़ते हैं तो लोग हमारी हंसी भी उड़ाते हैं। हमारे पहनावे पर हंसते हैं क्योंकि हम साड़ी को कांछ लेते हैं। टी.टी. ट्रेन से गिराने की धमकी देते हैं और कभी तो धक्कामुक्की पर उतर आते हैं क्योंकि हम लोग टिकट के बिना चढ़ते हैं। अगर टिकट लेंगे तो रोज 150-200 रुपया तो इसी में खर्च हो जाएगा, फिर हम खाएंगे क्या? लेकिन फिर भी पुलिस, टी.टी. और जंगल के कर्मचारियों को रोज़ाना बीस से तीस रुपए घूस देनी पड़ती है।
क्या है विभाग का कहना ?
वन विभाग के बड़े बाबू का कहना है कि यह लोग जंगल की हरी लकड़ी काटती हैं। इसलिए हम लोग मना करते हैं पर इन लोगों को हमारी बात समझ नहीं आती है।
इस मामले में ए.डी.एम. केशवदास का कहना है कि बुन्देलखण्ड इलाके में बेरोजगारी तो है ही पर यहां के मर्द भी कामचोर हैं। इसलिए यहां औरतों को ही काम करना पड़ता है।