पूरी दुनिया में पत्रकारों, ब्लॉग लिखने वालों, समाज के बौद्धिक तबकों पर हमला किया जा रहा है। भारत में इन दिनों पत्रकारों पर हमला जैसे आम बात हो गई है। चाहे वह बस्तर में मालिनी सुब्रमण्यम हों या दिल्ली के पटियाला कोर्ट में पत्रकारों को पीटा जाना हो। पत्रकारों पर हमले में एक खास बात यह भी है कि ज़्यादातर हमलों में महिला पत्रकारों को सॉफ्ट टारगेट बनाया जा रहा है। कहा जाता है कि प्रेस पर हमला होना मतलब किसी देश में इमरजेंसी लागू होने जैसा होता है। ऐसा लगता है हमारा देश फिलहाल इस दौर से गुज़र रहा है।
इस पुरुष प्रधान समाज और पत्रकारिता के पेशे में औरतों को हर रोज़ अपने औरत होने के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़नी होती है। महिला पत्रकारों के साथ उनके ही दफ्तर में हो रहा भेद-भाव कोई नया मामला नहीं है। मीडिया हाउस में महिलाकर्मियों के लिंग के आधार पर उनका बीट तय किया जाता है। महिला पत्रकारों को बलात्कार कर दिए जाने की धमकी आम बात हो गई है।
रेत माफिया के खिलाफ बोलना, सत्ताधारी सरकार के खिलाफ बोलना, जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई के पक्ष में बोलना, समाज की बढ़ती हिंसक प्रवृतियों पर बोलना, इस लोकतान्त्रिक देश में क्या जुर्म या देशद्रोह है?
सबसे चिंता की बात है कि यह हमले कब एक सोशल मीडिया और फोन कॉल के जरिए दी जाने वाली धमकी से आगे बढ़ कर हत्या में बदल जाते हैं, यह पता भी ही नहीं चलता।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में भारत पत्रकारों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक देश था।
अगर हम आकड़ों पर बात करें तो भारत में अभी तक सबसे ज़्यादा इस तरह के हमले उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए हैं।
कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट के अनुसार भारत में महिला पत्रकारों पर हो रहे हमलों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है।
बिहार के समस्तीपुर जि़ले में एक पत्रकार के रूप में काम कर रही अमृता कहती हैं, ‘‘जब हम पर हमले होते हैं तो हमारे अपने पुरुष पत्रकार साथ नहीं देते हैं”।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार टी.के.राजलक्ष्मी का कहना है, ‘‘हमें संगठित होने की ज़रुरत है। इस नव-उदारवाद के दौर में दलित, आदिवासियों, समाज के दबे कुचले तबकों की आवाज़ दबाने की कोशिश में ये हमले हो रहे हैं और इनसे लड़ने के लिए हमें संगठित होने की जरुरत है।‘‘
यह न केवल पत्रकारों को बल्कि खुद समाज को भी सोचने की ज़रुरत है कि आखिर इन हमलों को क्यों किया जा रहा है? इस कठिन समय में यह एक ज़रुरी सवाल है।
महिला पत्रकारों के लिए यह इमरजेंसी का दौर है
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