घरेलू हिंसा कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने महिला से उत्पीड़न या हिंसा करने वाले ससुराल पक्ष के सभी आरोपी रिश्तेदारों के खिलाफ उम्र और लिंग का लिहाज किए बगैर मुकदमा चलाने का आदेश दिया है। इसके लिए शीर्ष न्यायालय ने अधिनियम से ‘व्यस्क पुरुष’ शब्दों को हटाने का आदेश दिया है। लेकिन, जहां परिवार के सभी सदस्य कानून के दायरे में आते हैं, वहीं इससे ये खतरा बन जाता है कि सजा भुगतने वाले लोगों में महिलाओं की संख्या ज़्यादा होगी! वहीँ दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने एक और आदेश जारी किया है जिसमें हिन्दू कानून के मुताबिक, अगर कोई महिला अपने पति को बूढ़े मां-बाप से अलग रहने को मजबूर करती है तो उसे उसका पति तलाक दे सकता है। लेकिन यह एक तरफा सोच है क्योंकि शादी के बाद महिला के लिए अपने माँ-बाप का घर छोड़ देना ‘स्वाभाविक’ है जबकि पति का अपने माँ-बाप से अलग रहना भारतीय सभ्यता के खिलाफ है। कानून में महिला और पुरुष के लिए दोहरे मानक नहीं होने चाहिए।
सिर्फ यही नहीं, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी मुख्य कारण के बिना लंबे समय तक पति को सेक्स के लिए मना करना तलाक का आधार बनता है। लेकिन यहाँ सोचने वाली बात यह है कि क्या इसी सवाल को अदालत में रख कर पत्नी भी पति से तलाक ले सकती है? सुप्रीम कोर्ट का यह दोहरा मापदंड है जो महिलाओं के हितों का हनन करता है और हम इसकी आलोचना करते हैं।
महिलाओं के हितों का हनन करती सुप्रीम कोर्ट!
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