हाल ही में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना के बहाने सेना पर खूब चर्चा हुई। कुछ लोगों ने सेना के कुछ जवानों द्वारा यौन हिंसा जैसे अपराधों में भी लिप्त होने की बात कही तो उन्हें देशविरोधी कहा गया।
यह सही है कि हमारे जवान लगातार जान की बाजी लगाकर मिसाल कायम करते हैं। प्राकृतिक आपदाओं के वक्त उनकी भूमिका किसी देवदूत से कम नहीं होती। इसके लिए पूरा देश सेना को बहुत सम्मान की निगाह से देखता है। लेकिन क्या इन दो बातों की कोई तुलना हो सकती है? क्या महिलाओं के प्रति या निर्दोष जनता के प्रति अपराध को भी इसलिए न कहा जाए कि अपराध करने वाला जिस समुदाय से ताल्लुक रखता है, वह बाकी समाज के लिए बहुत अच्छा है?
सेना के जवानों के द्वारा यौन हिंसा की घटनाएं तो बुरी हैं ही, उनका विरोध करने पर किसी को देशद्रोही कह देना और बुरा है।
हाल ही में बस्तर में कुछ आदिवासी महिलाओं ने अर्धसैनिक बल के जवानों पर बलात्कार के आरोप लगाए। एक अन्य मामले में जवानों पर महिलाओं के स्तन निचोड़कर उनका कौमार्य परीक्षण करने का आरोप लगा।
दिसंबर 2015 में हाबड़ा एक्सप्रेस में सफर कर रही एक नाबालिग लड़की को शराब पिलाकर तीन जवानों ने सामूहिक बलात्कार किया था, इनमें से दो को गिरफ्तार भी किया गया था।
मणिपुर का मनोरमा कांड किसे नहीं याद होगा जिसमें मनोरमा के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी गई थी। इस घटना के बाद गुस्साई महिलाओं ने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। जवानों के खाते में कश्मीर घाटी के गांव कुनन पोशपोरा की घटना भी दर्ज है, जहां गांव की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की बात सामने आई थी।
ऐसी कुछ घटनाओं से सेना की बहादुरी और कुर्बानी की अहमियत तो कम नहीं होती, लेकिन इन घटनाओं की तीखी निंदा होनी चाहिए। किसी महिला की अस्मिता पर हमला करने वाला कितना ही महान क्यों न हो, उसकी महानता उसका अपराध नहीं ढ़क सकती। महिलाओं के प्रति अपराध करने वाले हर अपराधी को सिर्फ अपराधी समझा जाना चाहिए, भले ही देश के लिए उसका योगदान बहुत महान क्यों न हो।