मणिपुर विधानसभा चुनाव में मानवाधिकार कार्यकर्ता और पीपुल्स रिसर्जेजेंस एंड जस्टिस अलायंस (पीआरएजेए) की उम्मीदवार इरोम शर्मिला चुनाव हार गई हैं। शर्मिला ने मणिपुर से सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम, 1958 (अफ्सपा) हटाने को लेकर अपना 16 वर्षों का अनशन पिछले साल समाप्त करते हुए राजनीति में प्रवेश किया था। उस वक्त शर्मिला ने कहा था कि वह संवैधानिक माध्यम से इस कानून को राज्य से हटवाएंगी। इसके बाद उन्होंने अपनी पीआरएजेए पार्टी बनाई। लेकिन इरोम को मणिपुर की थोबल सीट से सिर्फ 90 वोट ही मिल पाए। चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों में वे आखिरी नंबर पर रहीं। जाहिर है, जमानत भी जब्त हो गई। अभी तीन दिन बाद ही यानी 14 मार्च को 45 साल की हो रहीं इरोम को उनके अपने लोगों से जन्मदिन का यह तोहफा मिलना किसी सदमे से कम नहीं रहा होगा। चुनाव नतीजों के तुरंत बाद उन्होंने अपनी पीड़ा जताई, “मैं जैसी हूं, उस तरह लोगों ने मुझे स्वीकार नहीं किया। मैं खुद को ठगा हुआ महसूस करती हूं। मैं अब राजनीति से बुरी तरह थक चुकी हूं। इसलिए अगले कुछ दिन तक आश्रम में रहकर आराम करना चाहती हूं।” लग रहा है कि अपने आगे के संघर्ष में वे एक बार फिर अकेली रह गई हैं। इरोम ने राजनीति में बड़ी उम्मीदों से कदम रखा था। पीआरजेए (पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस) नाम से पार्टी बनाई। लेकिन राज्य की 60 सीटों वाली विधानसभा के लिए उनकी पार्टी से चुनाव लड़ने को सिर्फ दो और लोग राजी हुए। यानी इरोम के समेत कुल तीन। इन लोगों ने सामूहिक चंदे जैसे साफ-सुथरे तरीकों से बमुश्किल साढ़े चार-पांच लाख रुपए जमा किए। लेकिन उनकी यह ईमानदार कोशिश, भाजपा-कांग्रेस के भारी-भरकम संसाधनों के बीच जैसे दम तोड़ गई। दो चरणों में राज्य के 86 फीसद मतदाता वोटिंग के लिए निकले। लेकिन उनका बड़ा हिस्सा दो बड़ी पार्टियों के बीच ही बंट गया। इरोम और उनके साथियों की ईमानदारी, उनका त्याग, उन्हें अपनी तरफ नहीं खींच सका।