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मजदूरों का नहीं घपलेबाजों की मनमानी का मनरेगा

Manrega logoउत्तर प्रदेश में मनरेगा में खुलेआम मनमानी चल रही है। इसे जानने और समझने के लिए हमने कुछ जिलों में काम कर रही संस्थाओं और मजदूरों से बातचीत की। बातचीत के दौरान इसमें हो रहे घपले की कहानी सामने आई। एक तरफ तो लोगों को मजदूरी नहीं मिल रही तो दूसरी तरफ मजदूरों को लालच देकर मनरेगा के पैसों में बड़े स्तर पर हेराफेरी की जा रही है।
लखनऊ। लखनऊ के बंथरा के किसान नन्हे और अशरफी देवी चार महीने से मनरेगा की मजदूरी का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा काम तो फिर भी मिल जाता है मगर मजदूरी निकलवाना काम करने से ज्यादा कठिन है। उन्होंने बताया कि हमने नहर में काम किया था। लेकिन मजदूरी नहीं मिली। बैंक के चक्कर काट काटकर हम परेशान हो गए हैं। मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी में होने वाली देरी और घपलेबाजी के कारण ही लोग इसमें काम नहीं करना चाहते हैं।
उन्नाव में सोशलिस्ट पार्टी इंडिया नाम की संस्था में तीन साल से काम करने वाले अनिल कुमार ने बताया कि 2012 में उन्नाव में मनरेगा के तहत बोरिंग लगवानी थी। एक विकास खंड में पंद्रह बोरिंग लगनी थी। उन्नाव में कुल सोलह ब्लाक हैं। इस पूरे काम के लिए चौतीस  लाख बीस हजार का बज़ट आया। लेकिन यहां कोई काम नहीं हुआ।
मनरेगा के तहत हाल ही में ओम प्रकाश नाम के एक मजदूर के खाते में पैंसठ सौ रुपए आए। फिर उससे मिलने पंचायत मित्र मिथलेश आए। उन्होंने कहा कि तुम्हारे खाते में गलती से पैसा आ गया है। तुम दस्तखत कर दो हम निकाल लेंगे। मिथलेश ने यह भी कहा कि तुम्हारी पेंशन भी बनवा दी जाएगी। ओम प्रकाश ने हस्ताक्षर कर दिए। उसे इसके बदले पांच सौ रुपए और पेंशन बनवाने का लालच दिया गया। लेकिन ओम प्रकाश को शक हुआ था। उसने इंटरनेट में दिखवाया। पता चला कि उसके नाम से तीन सौ आठ दिन की मजदूर चढ़ी हुई है। हालांकि उसने काम नहीं किया था। यह घपला पूरे जि़ले में चल रहा है। लालच देकर झूठी मजदूरी बनवाकर पैसे निकाले जा रहे हैं। मजदूर भी सोचता है कि मुफ्त में पांच सौ रुपए मिल रहे हैं तो क्या बुरा है।
अनिल कुमार ने बताया कि मनरेगा का एक उद्देश्य पलायन रोकना भी था। मगर मजदूरी का न मिलना देरी से मिलना और इस तरह के घोटालों के कारण लोग पास के शहरों में जाकर काम करते हैं। मजदूरों को मजदूरी काम के बाद तुरंत मजदूरी चाहिए। रोज की दिहाड़ी से ही तो उनका घर चलता है। ऐसे में यह देरी उन्हें पलायन को मजबूर करती है।
इतने बजट में तो सौ नहीं पचास दिन की भी गारंटी नहीं ली जा सकती.
सुप्रीम कोर्ट की सलाहकार अरुणधति धुरु ने बताया कि मनरेगा में देर से मिलने वाली मजदूरी के कारण मजदूर इससे दूर हट गए हैं। मजदूर तो रोज कमाता है रोज खाता है। जब काम के बाद फौरन पैसा ही नहीं मिलेगा तो उसके काम का क्या मतलब। वह बचत के लिए थोड़े ही कमाता है। कानूनन पंद्रह दिन के भीतर मजदूरी का पैसा मिल जाना चाहिए। मगर नहीं मिलता। काम के बाद तीन महीने से लेकर एक साल तक पैसों का इंतजार करना पड़ता है।
केंद्र सरकार से पंचायत तक बजट पहुचंने में बहुत समय लगता है। इस बीच कई लोगों के हस्ताक्षर होते हैं इसे आगे बढ़ाने के लिए। इसमें बीडीओ समेत कई अधिकारियों की भूमिका होती है। बीच में पैसा भी यह लोग खाते हैं। यानी हर स्तर पर पैसा आगे बढ़ाने के लिए जितने अधिकारियों के हस्ताक्षर होते हैं उतना ही पैसा रिसता जाता है। मजदूरी की फर्जी निकासी भी हो रही है। हालांकि इसमें अब कमी आई है। दूसरी जगह मजदूरी के मुकाबले मनरेगा में मजदूरी कम होने के साथ पैसा भी देर से मिलता है। लोग ज्यादा मजदूरी और समय पर मिलने वाले पैसे के चक्कर में बाहर जाकर मजदूरी करते हैं। दरअसल बजट ही इतना कम होता है कि लोगों को आधी अधूरी ही मजदूरी मिल पाती है। इस साल पूरे भारत के लिए चैंतीस हजार करोड़ का बजट जारी किया गया। जबकि जरूरत इससे बहुत ज्यादा बजट की है। इन पैसों में सौ दिन तो क्या पचास दिन के काम की गारंटी भी सरकार नहीं दे सकती।