अपनी भाषा किसे नहीं प्यारी होती है? बचपन से बड़े होने तक हमारी भाषा का साथ बना रहता है। अपनी बात कहने का ज़रिया ही नहीं, भाषा हर समुदाय की पहचान एक खास हिस्सा बन जाती है। 21 फरवरी को पंद्रहवां अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ मनाया गया।
एक सौ नब्बे से ज़्यादा देशों के संगठन ‘संयुक्त राष्ट्र’ ने भाषाओं की विविधता मनाने के लिए 1999 में इस दिन की घोषणा की थी। इस साल का विषय था – शिक्षा में अलग-अलग भाषाओं को शामिल करने का महत्व।
भारत में कहते हैं – ‘कोस-कोस में पानी, दो कोस में बाणी।’ मतलब हर दो कोस पर लोगों की बोली बदलती रहती है। चित्रकूट और बांदा में बुंदेली बोलते हैं तो वहीं महोबा और हमीरपुर में बुंदेली ही के बोल बदल जाते हैं। भाषाओं की इतनी विविधता होने के बावजूद, क्या स्कूलों में कोई भी किताब बुंदेली भाषा की पढ़ाई जाती है? इन भाषाओं को जीवित कैसे रख सकते हैं फिर?
एक तरह से ये दिवस, जिसके बारे में शायद ही लोग जानते हैं, भाषाओं का और उन्हें बोलने का, उनमें लिखने की आज़ादी का प्रतीक है।
21 फरवरी 1952 बांगला भाषा के लिए लड़ी गई लड़ाई का ऐतिहासिक दिन है। उस समय बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था और बांगला भाषा बोलने वालों को अलग नज़रों से देखा जाता था। 1947 में सरकार ने उर्दू को पूरे देश की मातृभाषा घोषित कर दिया। 1952 में लाखों छात्र-छात्राओं ने इसके विरोध में धरने-प्रदर्शन किए। कई विरोधी शहीद भी हुए। दो साल बाद 1954 में बांग्लादेश में बांगला भाषा को देश की दूसरी भाषा का दर्जा दिया गया। आज भी 21 फरवरी को बांग्लादेश में राष्ट्र छुट्टी के रूप में मनाया जाता है।
चीन में औरतों की रहस्य भरी भाषा नू-शू को बोलने, पढ़ने और समझने वाली आखिरी महिला यैंग हुआन्यी 2004 में अट्ठान्बे साल की उम्र में चल बसीं। नू-शू औरतों की बनाई हुई गुप्त भाषा थी जिसके ज़रिए एक पुरुषवादी समाज में अनपढ़ औरतें एक दूसरे से अपने मन की बात बांट सकती थीं। आज इस भाषा के बचाव के लिए कई लोग कोशिशों में लगे हुए हैं। इस भाषा की प्राचीन चीन के पुरुषवादी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका है।