छपरा गांव, महरोनी ब्लॉक, ललितपुर जिला। इस बार के सूखे ने किसानों का जीवन अत्यधिक संघर्षशील बना दिया है। कृषि क्षेत्रों में बिना पानी के खेत सूखी बंजर जमीन बन गयें हैं जहाँ फिर से खेती करने के लिए किसान को लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। इस सूखे में हर एक गांव अपनी दुखद कहानी कह रहा है।
इन दुःख भरे पन्नों में से एक पन्ना है आदिवासी इलाके के परिवारों का जहाँ जीवन की जरूरतों के लिए रोजाना कड़ा संघर्ष किया जा रहा है।
सहरिया आदिवासी जनजाति के लोग इस सूखे में अपने लिए भोजन तलाशने के लिए मीलों चल कर दाना-दाना बटोर रहे हैं और उन्हें यह नहीं मालूम कि कल उन्हें यह भी नसीब होगा या नहीं! यह जनजाति पूरी तरह से वनों पर निर्भर है। साल भर अलग-अलग काम करके यह अपना पेट पालते हैं। यह आदिवासी गर्मी के मौसम में महुआ पर और मानसून में जंगली जड़ीबूटी एकत्र कर अपने दिन व्यतीत करते हैं।
लेकिन इस बार बारिश न होने और भयंकर सूखा पड़ने के कारण यह परिवार मुसीबत में है। परिवार की महिलाएं मीलों चल कर सूखे खेतों में से अनाज के दाने बीनती हैं, सूखे पड़े अनाज के डंठलों के ढ़ेर में से एक-एक दाना निकाल रही हैं। शाम तक शायद मुट्ठी भर अनाज ही मिले पाए।
कभी-कभी इन महिलाओं को सूखे खेत में किसान भी उदास बैठा मिल जाता है जिसको यह महिलाएं जाते-जाते यह कह कर जाती है कि “तुम हो तो हम हैं, अगर तुम नहीं तो हम भी नहीं”। यह बात शायद कोई मंत्री, सांसद या सरकार न समझ सके लेकिन इस बात का मर्म, सूखी जमीन पर बैठा निराश किसान समझ लेता है।
यह महिलाएं प्रतिदिन सवेरा होने से पहले ही सूखे खेतों की ओर निकल जाती हैं। दिन भर में कई खेतों को पार कर मुट्ठी भर अनाज के लिए भटकती हैं।
इस आदिवासी समुदाय को मनरेगा के बारे में कोई जानकारी नहीं, न ही इन तक राशन का कुछ हिस्सा पहुँचता है खाने में इनके पास तेल कभी नही होता इसलिए प्याज या टमाटर की चटनी बना कर यह रोटी के साथ खा लेते हैं।
यह जीवन बेहद कठिन है और इस सूखे ने इसे और कठिन बना दिया है।
रिपोर्ट – प्रियंका सिंह
तस्वीरें- पवित्रा चन्द्रशेखर