चित्रकूट जिले से पिछले दस सालों में लाखों की संख्या में लोग पलायन कर चुके हैं। जिसका मुख्य कारण, जिले में लगातार पड़ता सूखा है। जिले में न तो किसान खेतों में फसल पैदा कर पा रहे हैं और न इस बढ़ती महंगाई से लड़ पा रहे हैं। हताश हो कर आखिर में सभी पलायन की ओर बढ़ चले हैं।
जनगणना 2011 के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ आंकलित की गई है। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ों के देखने पर स्पष्ट परिलक्षित होता है कि भारतीय ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है।
वर्ष 2006 में खबर लहरिया ने चित्रकूट जिले में पलायन का सर्वेक्षण किया था। चौबीस गावों के इस सर्वे में अधिकतर गावों में पलायन देखने को मिला था, जहां हर परिवार का एक सदस्य बाहर कमाने के लिए जाता था। इस साल खबर लहरिया की टीम ने उन गांवों का दौरा किया, यह जानने के लिए कि दस साल बाद यहां पलायन की क्या स्थिति थी। जहां परिवार के एक सदस्य गांव छोड़कर जा रहे थे, आज पूरे-का-पूरा गांव पलायन कर रहा है।
सूखे बुंदेलखंड से 62 लाख किसानों ने किया पलायन!
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर एवं किसान नेताओं के अनुसार दो साल पहले केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पलायन पर एक चौंकाने वाली रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को पेश की थी, जिस पर आज तक कोई काम नहीं हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, यूपी बुंदेलखंड के जिलों से पलायन के आंकड़े कुछ ऐसे है।
जिला बांदा से 7 लाख 37 हज़ार लोग
चित्रकूट से 3 लाख 44 हज़ार
महोबा से 2 लाख 97 हज़ार
हमीरपुर से 4 लाख 17 हज़ार
जालौन से 5 लाख 38 हज़ार
झांसी से 5 लाख 58 हज़ार
ललितपुर से 3 लाख 81 हज़ार
चित्रकूट जिले के रामनगर, पहाड़ी और मऊ ब्लॉक से ज्यादातर लोग पलायन कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि लोगों के पास जमीनें बहुत कम हैं या हैं ही नहीं। मनरेगा भी यहां नदारत है और बेरोजगारों के लिए सरकार भी कोई कदम नहीं उठा रही है।
सरधुवा गांव के राजीव ने बताया कि हमारा गांव जिले का सबसे बड़ा गांव है। यहां दलित और पिछड़े जाति के लोग अधिक रहते हैं। इस दस हजार आबादी वाले गांव में से ढाई हजार लोग पलायन कर चुके हैं। गांव में सिर्फ बुजुर्ग पीछे रह गए हैं।
इन इलाकों में रह रहे कोल आदिवासियों की हालत बेहद खस्ता है। इन आदिवासियों के पास खुद की ज़मीन बहुत कम है, शायद दस में से एक के पास, एक या दो बीघा जमीन है और वो भी बीच जंगल में हैं जहां पर पत्थर होने के कारण कुछ भी पैदा नहीं होता। यही हाल दलितों का है। दलितों के पास तो खुद की जमीन भी नहीं है। मजदूरी ही इनका मुख्य काम है।
यह लोग गांव से निकल कर कानपुर,लखनऊ, इलाहाबाद, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में कमाने जाते हैं। मानिकपुर ब्लॉक के टिकरिया गांव से एक हजार कोल जाति के लोग पलायन कर गये हैं। दिल्ली जैसे बड़े शहर में यह लोग मजदूरी और मिस्त्रीगिरी का काम कर रहे हैं।
छिवलहा गांव के रामललन कोल ने बताया कि उनके घर से चार लोग कमाने गये हैं। जिसमें से दो कानपुर में दो शंकरगढ़ जा कर काम कर रहे हैं। गांव के अधिकतर किसानों ने बैंक से कर्जा ले रखा है। कुल पच्चीस लोगों को छोड़ कर सभी कर्जे में डूबे हुए हैं। सभी छोटे किसान हैं।
डोड़ामाफी गांव तो पूरा गांव खाली है केवल एक ही परिवार बचा है।
पाठा क्षेत्र के लगभग हर गांव से लोग पलायन कर चुके हैं। कुछ लोग ही बचे हैं जो सूखे की मार को अब तक झेल रहे हैं। उनका कहना था कि इन तीन सालों में पड़े इस सूखे ने सब कुछ तबाह कर दिया है। न जन रहे, न जानवर और न अब जीवन बचा है।
कर्वी से भी लगभग सौ लोगों ने अब तक पलायन किया है। सूखे के कारण गांव के स्कूल जाने वाले बच्चे भी काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं। इससे न सिर्फ उनकी पढ़ाई खत्म हो रही है बल्कि उनका बचपन भी खत्म होता जा रहा है।
लोगों का कहना था कि दिल्ली और पंजाब वह लोग जा रहे हैं, जिन्हें कोई ठेकेदार काम के लिए ले जाता है। फिर वो किसी भी कम्पनी में काम हो या ईंट भट्टे का काम हो या चूनेगारे का। इसके अलावा जिन लोगों के रिश्तेदार बाहर होते हैं वह भी लोगों को काम के लिए बुला लिया करते हैं। सूरत में भी कुछ इसी तरह के लोग अधिकतर काम के लिए जा रहे हैं।
रिपोर्ट – खबर लहरिया ब्यूरो