ज़िला महोबा। बरसात शुरू होते ही खजूर का नाम सुनकर छुहारा की याद आने लगती है। इसे गांव देहात में खड़े ऊंचे ऊंचे पेड़ों में लगे पीले पीले गुच्छे देखने में जितने अच्छे लगते हैं उतने ही खाने में भी स्वादिष्ट होते हैं। पुरानी कहावत है, बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर। भले ही इस पेड़ से छाया न मिले और फल भी दूर हों लेकिन दूर वाले फलों को भी बच्चे अपनी शरारत भरे तरीकों से इकट्ठा कर लेते हैं। खजूर का फल मई में बरसात शुरू होते ही होने लगता है। जून-जुलाई में यह पककर तैयार हो जाता है। पकने के बाद बिल्कुल खाने में यह छुहारे की तरह लगता है। इसलिये इसे देहाती छुहारा भी कहा जाता है। ईसा और अनामिका बताती है कि जब भी आंधी या बारिस होती है और खजूर खाने को हमारा मन होता है तो हम खेलने के बहाने घर से निकल आते हैं। और झाड़ियो में गिरे फलो को इकट्ठा कर मजे से खाते हैं।
बच्चों को लिए खास है खजूर
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