उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में साल 2012 के दशहरा और दुर्गा पूजा से जुड़ी यादें बहुत कड़वी हैं। 24 अक्टूबर मूर्ति विसर्जन के समय फैजाबाद के चौक में अचानक हिंसा शुरू हो गई। लेकिन जिस तरह से दंगाईयों ने पेट्रोल और डीजल फेंक-फेंककर दुकानें जलाईं। उससे साफ है कि भीड़़ में कुछ लोग पूरी तैयारी के साथ आए थे। हिंसा के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया गया जिसमें दो मौतें हुईं। सैकड़ों दुकानें खाक हो गईं। कई घर भी जलाए़ गए। इनमें से कुछ को मुआवजा मिला पर ज्यादातर को नहीं। दो घंटे बाद घटनास्थल पर पुलिस का पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि इस हिंसा को कहीं न कहीं राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण मिला था।
आजादी के बाद 6 दिसंबर 1992 का अयोध्या कांड देश में हिंदू मुसलमानों के बीच हुई हिंसा का सबसे बड़ा उदाहरण है। उस समय केंद्र में भाजपा की एनडीए सरकार थी। कुछ हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या को हिंदुओं का धार्मिक स्थल बताते हुए वहां की बाबरी मस्जिद गिरा दी थी। मुसलमानों और हिंदुओं के बीच पूरे देश में दंगे भड़क गए थे। बीस साल पहले की इस घटना ने फैजाबाद के अयोध्या शहर को ‘सांप्रदायिक तौर से एक संवेदनशील’ इलाका बना दिया। यहां के कई लोगों को 2012 के दंगों ने 1992 की याद दिला दी।
दोनों ही घटनाओं को और इस बार यू.पी. सरकार की सुस्ती को करीब से देखें तो लगता है कि फैजाबाद में बीस साल बाद इस तरह से दो समुदायों के बीच की हिंसा को सांप्रदायिक रुख देने में राजनीति करने वालों का हाथ है। ‘बांटो और राज करो’ – यही सोच आज की राजनीति और फैजाबाद की इस घटना के पीछे का कारण मालूम पड़ती है।