विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर, मानसिक स्वास्थ्य के राष्ट्रीय संस्थान और न्यूरोसाइंसेस भारत की राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-2016) का विमोचन किया गया। इस सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में 20 में से 1 व्यक्ति अवसाद से ग्रस्त हैं और पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या कहीं ज्यादा है। खास कर उन महिलाओं में यह अवसाद देखने को मिलता है जो माँ बन जाती हैं। इस अवसाद को प्रसवोत्तर अवसाद (पी पी डी) कहा जाता है, मगर अफ़सोस की बात यह है कि इस स्वास्थ्य समस्या को भारत के प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रमों में रोकथाम अथवा उपचार के लिए शामिल नहीं किया गया है।
शिशु जन्म के पहले सप्ताह में यदि माँ मनोभावों में उतार-चढ़ाव, थकावट या बेचैनी या फिर रुआंसी सी महसूस करें, तो इसे प्रसवोत्तर निराशा या अवसाद कहा जाता है। प्रसवोत्तर अवसाद आमतौर पर बच्चे के जन्म के कुछ ही हफ्तों बाद प्रकट होता है। एक बच्चे के जन्म के समय बच्चे के लिए उत्साह और खुशी और भय आदि का होना मां के लिए कई तरफ की भावनाएं पैदा करता है। यही नहीं, इसमें कुछ शारीरिक परिवर्तन भी जुडें होतें हैं। इस तरह के मामलों में मां कभी गंभीर रहती हैं या अत्यधिक रोने लगती हैं। कई बार उन्हें लगता है कि वह बच्चे का ठीक से ख्याल नहीं रख पा रही हैं जैसे उसके भाव, भूख, सोना और गीले होने का अनुमान नहीं लगा पाती हैं तो परेशान होने लगती हैं।
असल में हमारे देश में, भावनात्मक कठिनाइयों का सामना करने के लिए किसी भी तरह का कोई इलाज नहीं है। अक्सर माओं को पी डी पी के चलते सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है और इसमें परिवार भी उनका साथ नहीं देता है।
कई भारतीय परिवारों में पुराने तरीकों से प्रसव कराने का चलन आज भी मौजूद है। यह भी इसका एक बड़ा कारण हो सकता है। भारत के उत्तरी और पश्चिमी हिस्सों में कई क्षेत्रों में, प्रसव के बाद 40 दिनों के दौरान माँ और बच्चे को परिवार से समुदाय से अलग रखा जाता है। हालांकि यह उन्हें संक्रमण से बचाने के लिए किया जा सकता है लेकिन यह कारण माँ को अलगाव, अकेला और कमजोर बनाता है।
साभार: द वायर