इस साल, मेरे पापा पंचायती राज चुनाव में प्रधान पद के लिए पहली बार खडे़ हुए – चित्रकूट जिले के कर्वी ब्लाक के ग्राम पंचायत कसहाई से, जहाँ से तीस उम्मीदवार खडे़ हुए थे। खबर लहरिया के साथ मैंने चुनाव के हर स्तर की खबरों के बारे में लिखा है। इस बार यह सुझाव आया कि क्यों न तुम अपने पापा का इंटरव्यू करो। बहुत कम दलित लेखन है जो दलितों के द्वारा है और राजनीति में भी दलितों की भागीदारी बहुत कम है। यह एक ऐसा मौका था जहाँ प्रधान पद के लिए खडे़ एक दलित उम्मीदवार को एक दलित पत्रकार ने इंटरव्यू किया, जो उनकी बेटी है – ऐसे इंटरव्यू में उस समुदाय और उस परिवार की सदस्य होने के नाते उम्मीदवार के सन्दर्भ के बारे में एक गहरी समझ थी और साथ में एक पत्रकार होने के नाते पंचायत चुनाव पर रिपोर्टिंग करने का अनुभव भी था।
मैं अपने पापा को इस तरह से मिलने और बात करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी। अपने व्यक्तिगत और प्रोफेशनल जिन्दगी में बहुत खींचातानी झेलती हूँ, पर यह एक लक्ष्मण रेखा थी जिसे पार करने के लिए मैं अभी भी तैयार नहीं थी। तू तो एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार है, न? फिर पापा का इंटरव्यू करने से क्यों डर रही है? जैसे तुम अन्य उम्मीदवार और मंत्री का इंटरव्यू करती हो, वैसे ही तो पापा का करना है। उनको अपना पापा का दर्जा न देकर एक नए उम्मीदवार की नजर से देखना है। पत्रकारिता में घर परिवार हो या सगे सम्बन्धी, तुम्हें तो सब के बारे में लिखना चहिए। मन में इस उथल पुथल के साथ मैंने इस चुनौती को स्वीकारा और अपने पापा को इंटरव्यू करने पहुंची। टेंशन का कारण यह भी था, कि परिवार में जब प्रधानी की बात उठी तो मैंने काफी विरोध किया। पहले मैंने अपनी मम्मी को खड़ा करवाने से मना किया, क्योंकि वो बिलकुल पढ़ी नहीं थी। और फिर पापा के लडने के बारे भी इतनी खुश नहीं थी। मुझे मालूम था की राजनीति में शरीफ लोगों का उतरना कितना मुश्किल है। पापा के बोलने पर भी मैं नामांकन में नहीं पहुंची थी। आखिर घर के सभी लोग प्रचार में जुड़ गए और हम सबने आर्थिक रूप से भी जितना हो सका, उतना सहयोग किया। नामांकन के तुरंत बाद उनका इंटरव्यू करने मैं अपने गाँव पहुँच गई।
चैंसठ साल के मेरे पापा अनपढ हैं पर बहुत ही समझदार और सुलझे हुए हैं। उन्होंने बचपन से खेती किसानी का काम किया है। उनके दो बेटे और चार बेटियां हैं। पापा बेटों से ज्यादा बेटियों को चाहते है। मैं सबसे बड़ी बेटी हूं – जल्दी शादी करके, स्कूल छोड़कर, मैं अब एक स्थापित पत्रकार हूँ। एक और बहन चित्रकूट में टीचर है और बाकी पढ़ रहें हैं। चुनाव प्रचार के खर्च में हमने ही पापा का सहयोग किया। मेरे पापा अपने ससुराल में रहते हैं, मतलब मेरे मम्मी के मायके में । इसलिए लोग उनको महिमान कह कर बुलाते हैं। लोग उनका नाम नहीं जानते हैं। मेरे पापा का गांव बघवारा है तो कुछ लागे उनको बघवरहा भी कह कर बुलाते हैं। पापा ने भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी और बसपा में काफी काम किया है इसलिए बहुत से लोग उनको नेताजी भी कह कर बुलाते हैं। वैसे उनका असली नाम है माधौ प्रसाद वर्मा।
सवाल– आपके मन में चुनाव लड़ने का विचार कैसे आया?
जवाब- मैं अपने गांव का विकास करवाना चाह रहा हूं। आजकल बहुत सारे हमारे गांव के नवयुवक है जो बेरोजगार घूम रहे हैं। उनके लिए कहीं पर कोई रोजगार नहीं है। नरेगा जैसे काम को नवयुवक नहीं करना चाहते हैं। मैं उनके लिए कुछ करना चाहता हूं। गांव में बहुत सारी जगहें फालतू पड़ी रहती हैं जैसे पंचायत भवन, बारात घर या ग्राम सभा की जमीन जिसका मैं सही उपयोग करना चाहता हूं। अगर यहां पर छोटे छोटे कारखने खुल जाएं तो नवयुवक लड़के और लड़कियां कुछ कर सकते हैं। बाकी और जो भी विकास होते हैं जैसे नाली खड़न्जा कालोनी और भी कई तरह के विकास है जो कराऊंगा।
सवाल– आप ही इस उम्र में क्यों चुनाव में खडे हुए? अपने बेटों को क्यों नहीं खड़ा किया है? आपके बेटे तो पढ़े लिखे हैं।
जवाब- बात पढ़े लिखे या अनपढ़ की नहीं होती है। बात होती है परचित और अपरचित की। बेटे पढे लिखे जरूर हैं पर अभी इस क्षेत्र के बारे में यह लोग कुछ नहीं जानते हंै। लोग भी इनको नहीं जानते हंै। बच्चों को राजनीति का कोई अनुभव भी नहीं है।
सवाल – आपका किस तरह की राजनीति का अनुभव है?
जवाब-मैं सन 1962 से 1980 तक भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में रहा हूं इसमें हम लोगों ने अलग अलग तरह की लड़ाई लड़ी है। मैं बांदा, लखनऊ, इलाहाबाद और दिल्ली तक गया हूं। कई बार हम लोग जेल भी गये हैं। उस पार्टी में काम करके अनुभव हुआ कि ऊंची मानी जानेवाली जाति के लोग दलितों को किसी भी भूमिका में आगे नहीं बढ़ने दे रहे है। हम लोग अपने आप को दबा हुआ महसूस करने लगे फिर मैंने 1992-93 से बहुजन समाज पार्टी में जुड कर काम किया है।
सवाल – बसपा पार्टी में जुड़ने का खास क्या अनुभव था?
जवाब- अन्य पार्टी में जब मुझे दबाव महसूस होने लगा और सही दिशा निर्देश नहीं मिला तो मैं बसपा में जुड़ गया। हमें लगा कि बसपा में बाबा साहब ने जो कहा है कि पढो लिखो संघर्ष करो, संगठित रहो और आगे बढा़े – वह अच्छा लगा और हम लोग उसी के डोर में बंध गये। देखते ही देखते काफी परिर्वतन आया है। बसपा ने एक रास्ता दिखाया, जिसकी वजह से मैंने अपने बच्चों को पढाया है। आगे बढ़ाया है। अब अगर प्रधानी जीत जाता हूं तो ऐसा विकास कराऊंगा कि आस पास के गांव और देश में मेरा नाम रोशन हो।
सवाल – सुनने में आ रहा है कि अब बसपा में भी बदलाव आ रहें हैं, और कई और दलित पार्टी बन रही हैं?
जवाब – इस राजनीति में बसपा का एक इतिहास है, कोई उसको बदल नहीं सकता। बसपा ने एक रास्ता दिखाया। फिर भी, अब पैसों की राजनीती हो गयी है। बहन जी ठुकरा रही हैं। अंबेडकर का हाथ हमेशा आगे का रास्ता दिखाता है, और यह कहते हैं कि अगर हम आगे नहीं बढ़ सकते, तो कम से कम लोगों को पीछे की ओर न धकेलें।
सवाल-आपके के गांव में क्या क्या विकास के काम हैं जो अभी भी पूरे नहीें है?
जवाब- गांव में काफी हद तक विकास है। लेकिन वह विकास ज्यादातर बड़ी जाति की बस्तियों में है। दलित जातियों की बस्तियों के हालात अभी भी वैसे के वैसे हैं। रास्ता नहीं है। नालियां नहीं बनी है। दरवाजों में गन्दा पानी भरा रहता है। गरीबों के पास रहने के लिए मकान नहीं है। उनको कालोनी नहीं दी गई है। बहुत से लोग पेंशन के पात्र हैं पर उनको पेंशन नहीं मिल रही है । नरेगा में बढ़ चढ़ के धांधली हो रही है। गरीबों के पास गरीबी रेखा का राशनकार्ड नहीं है। अगर अच्छे और ईमानदार प्रधान को जनता चुनती है तो इन समस्याओं से निपटा जा सकता है।
अब चुनाव हो गए हैं पर पापा की विजय नहीं हुई है। पापा 50- 100 वोट से हारे हैं। सुनने में आ रहा था कि नेताजी के चुनाव चिन्ह पंख में ठप्पा मारेंगे, और यह भी कि वोट पड़ने के एक दिन पहले रात में नोटों की बौछार करके वोटरों को खरीद लिया गया। एक और उम्मीदवार जिनका नाम रामसजीवन वर्मा है, जीत उनकी हुई। भविष्य में अगर पापा खुद न लड़ सके तो ऐसे उम्मीदवार को वो खड़ा करना चाहते हैं जो सही मायने में विकास कर सके।
पापा के हारने का मुझे अफसोस है। उस परिवार की सदस्य होने की वजह से उनकी हार का अफसोस है। लेकिन एक पत्रकार की नजर से भी मुझे लगा कि विकास की उन्होंने एक अलग परिभाषा बताई, जो मैंने अन्य किसी उम्मीदवार के इंटरव्यू में नहीं सुनी। जहां सभी प्रधान पद के उम्मीदवार विकास में नाली -खड़ंजे और सड़क की बात करते हैं, वहीं पापा ने नवयुवकों को सही दिशा दिखाने की बात की। एक किसान होने के नाते शिक्षा का महत्त्व उन्होंने समझा और अपनी बेटियों को पढ़ते रहने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया। प्रधान बनने पर शिक्षा का यही महत्त्व वो पंचायत की अन्य लड़कियों को अपने अनुभव से बताते।