पेरिस। पिछले हफ्ते पेरिस में करीब दो सौ देशों द्वारा तय पर्यावरण संधि को दुनिया भर में ऐतिहासिक संधि बताया जा रहा है। पिछले एक दशक की बहस को देखें तो लगता है कि वे लोग जो जलवायु परिवर्तन और इसके मानव निर्मित होने को नकारते रहे हैं, अब हार रहे हैं। भले ही अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार कह रहे हों कि वे जीतने पर पेरिस संधि को नहीं मानेंगे। भारी मात्रा में कार्बन छोड़ने वाले चीन और भारत ने अपना रवैया बदल लिया है। अधिकांश पश्चिमी देश अब अपनी जि़म्मेदारी स्वीकार करने की ओर बढ़ रहे हैं। पेरिस का घोषित लक्ष्य ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सदी के अंत तक धरती का तापमान दो से तीन डिग्री तक बढ़ सकता है। इसके गंभीर नतीजे होंगे। हम अभी ही अब तक के रिकॉर्ड बाढ़, तूफान और सूखे का सामना कर रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, समुद्रतट डूब रहे हैं। इसकी वजह से लोगों का विस्थापन हो रहा है।
पेरिस संधि जलवायु परिवर्तन को किस हद तक रोक पाएगी? दरअसल पेरिस में हुई संधि किसी पर कुछ करने की जि़म्मेदारी नहीं देती। किसी खास तारीख पर जीवाश्म ऊर्जा का इस्तेमाल बंद करना तय नहीं है। कोयला और तेल जलाने वाले देशों के लिए कोई सज़ा नहीं है, संधि पर दस्तखत करने वालों ने कार्बन उत्सर्जन में कमी करने, अपना लक्ष्य तय करने और अक्षय ऊर्जा (जिससे प्रदूषण नहीं फैलता) को बढ़ावा देने का संकल्प लिया है। लेकिन इसकी निगरानी कोई नहीं करेगा, किसी को संधि को नज़रअंदाज करने की सज़ा नहीं मिलेगी। हकीकत यह है कि पेरिस की पर्यावरण संधि विफलता नहीं है। यह सही दिशा में उठाया छोटा सा कदम है।