गुज़रे हफ्ते, झारखंड के चतरा जिले में इंद्रदेव यादव और बिहार के सीवान में हिन्दुस्तान के ब्यूरो चीफ राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई। इन दोनों घटनाओं ने दोनों सूबों के पत्रकारों को हिला के रख दिया है।
यही नहीं, इन घटनाओं ने राजीनीतिक पार्टियों को एक-दूसरे पर हमला बोलने का मौका दे दिया है। खासकर सीवान की घटना पर क्योंकि करीब दो दशक पहले सीवान में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे माले के युवा नेता चंद्रशेखर की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। हाल के वर्षों में तेजाब हत्याकांड को लेकर भी सीवान में विधि-व्यवस्था को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या किन कारणों से हुई है, तथाकथित तेजतर्रार बिहार पुलिस अब तक अनभिज्ञ है। वहीं दावों का दौर भी जारी है। सबसे बड़ा सवाल पत्रकारों की सुरक्षा का है। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष कानून नहीं है।
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की रिपोर्ट बताती है कि पिछले 25 सालों में भारत में जिन पत्रकारों की हत्या हुई है, उनकी हत्या में 47 फीसदी नेता, 11 फीसदी सरकारी अधिकारी और 18 फीसदी अपराधी सरगना के लोग शामिल थे।
इस बात पर यकीनन गौर करना होगा कि विशेष कानून नहीं होने के कारण भारत में पत्रकारों की हत्या करने वालों को सजा नहीं मिलती।
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पिछले 25 सालों में पत्रकारों की हत्या के 96 फीसदी मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिल पाई।
यानी हत्यारे बरी कर दिए गए इसकी वजह है पत्रकारों के हत्यारे ऊंची पहुंच और रसूखदार लोग होते हैं। इन सबसे बेखबर सरकार, इन घटनाओं में चुनावी मुद्दे तलाश रही है।