सुप्रीम कोर्ट ने मई की शुरुआत में आदेश जारी किया था कि राजनीतिक पार्टियों को सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल पार्टी या फिर पार्टी नेता के प्रचार के लिए नहीं करना चाहिए। इसमें अखबार, चैनल का तो साफ तौर पर जि़क्र था। इस आदेश में यह भी कहा गया था कि केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश की तस्वीर ही सरकारी इश्तहारों में इस्तेमाल हो सकती है। नेताओं ने इसका जमकर विरोध भी किया। लेकिन आदेश नहीं बदला।
अब राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरा रास्ता निकाल लिया है, प्रचार का। इसका सबसे पहला उदाहरण तमिलनाडु में देखने को मिला। जब जयललिता दोबारा मुख्यमंत्री बनीं। एक नामी अखबार के पहले पन्ने में इश्तहार दिया गया। इसमें लिखा था – गतिशाली और ऊर्जावान नेता, क्रांतिकारी नेता उम्मीद कर रही हैं कि उनके आने वाले चार साल अगले चुनाव में उनकी जीत निश्चित करेंगे। इसमें जयललिता की तस्वीर नहीं थी। मगर क्या इसमें जयललिता का प्रचार नहीं था? सुप्रीम कोर्ट के आदेश का क्या हुआ? तमिलनाडु सरकार आज जयललिता की वापसी का जश्न मना रही है। मगर जयललिता के प्रचार को अगर गैर कानूनी मानें तो फिर सवाल उठता है कि केंद्र सरकार के एक साल पूरे होने पर अखबारों, चैनलों में नरेंद्र मोदी की बड़ी-बड़ी फोटो लगाकर सरकार की उपलब्धियां गिनाना क्या कानूनी है।
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं मगर केंद्र सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए क्या वह भाजपा का प्रचार नहीं कर रहे। खुद भी सांसद हैं तो बनारस का ब्यौरा देते वक्त क्या वह बनारस का प्रचार नहीं कर रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के दायरे से प्रधानमंत्री को अलग रखना क्या सही है?