भारत एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है जहां सभी धर्मों के लोगों को बराबर के अधिकार हैं। मगर आजकल खाने के चुनाव को लेकर देश की सरकार और कट्टरवादी सोच के लोग तानाशाह और सांप्रदायिक रवैया अपना रहे हैं।
क्या खाना है, क्या नहीं-यह कौन तय करेगा? क्या सरकार या फिर कोई खास समुदाय इसे तय कर सकता है? महाराष्ट्र और राजस्थान में एक समुदाय के खास त्योहार के समय मांस बिक्री पर पाबंदी लगाने पर खूब हंगामा हुआ। सवाल उठा कि क्या सरकारों के पास इस तरह की पाबंदी लगाने का हक है? दूसरी तरफ देश की सरकार गाय के मांस पर पाबंदी के लिए जिस तरह से अभियान छेड़े हुए है वह भी सवालों के घेरे में है। गाय के मांस को धर्म और संस्कृति से जोड़कर इस पर रोक लगाने की पूरी कोशिश की जा रही है।
इस तरह के अभियान का असर कितना ज़हरीला हो सकता है इसका अंदाज़ा दिल्ली के करीब स्थित दादरी इलाके में हुई घटना से लगाया जा सकता है। यहां एक व्यक्ति को भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। शक था कि इस व्यक्ति के घर में गाय का मांस खाया गया था। नाराज़ लोगों को इस बात का शक भी था कि यह परिवार गाय के मांस का धंधा भी करता है। एक खास समुदाय के लोगों ने पंचायत की। मंदिर से इस व्यक्ति पर हमला करने की घोषणा हुई। आखिरकार इस व्यक्ति की जान ले ली गई। पुलिस ने मंदिर के पुजारी समेत छह लोगों को हिरासत में लिया। मगर प्रधान समेत गांव के ज़्यादातर लोगों ने पुजारी के पकड़े जाने का विरोध किया। मरने वाला व्यक्ति मुस्लिम समुदाय का है। यह बेहद गंभीर मसला है।
धर्म, संप्रदाय और संस्कृति का सहारा लेकर कपड़ों पर तो पाबंदी लगाने की कोशिशें पहले से चल ही रही हैं। मगर अब यह पाबंदी रसोई तक पहुंच गई है।
निजी हक पर नहीं, पाबंदी कट्टरता पर लगे
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