नई दिल्ली। पश्चिमी दिल्ली की शकूर बस्ती में शनिवार को रेलवे पुलिस द्वारा अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई में 500 झुग्गियों को गिरा दिया गया। लगभग 8 हज़ार लोगों को बेघर कर दिया। यहां रहने वाले लोगों का आरोप है कि बिना कोई पूर्व आश्रय और नोटिस दिए उनके घरों को तोड़ दिया गया, जिसके चलते वे ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं। रेलवे की सफाई है कि जिस ज़मीन पर झुग्गियां हैं, वहां नया यात्री टर्मिनल बनना है। लोगों को 9 महीने से लगातार नोटिस दिए जा रहे हैं, लेकिन किसी ने भी ज़मीन खाली नहीं की। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हैं कि ऐसी कोई भी कार्रवाई करने से पहले झुग्गी में रहने वालों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाए और उनके पुनर्वास की योजना बनाने के बाद ही उन्हें हटाया जाए लेकिन शायद ही कभी ऐसा किया जाता हो।
आश्चर्य नहीं कि अफरातफरी में छह माह की एक बच्ची की मौत हो गई। रेलवे इस मौत से भी पल्ला झाड़ रही है लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि मौत झुग्गियों को गिराने के दौरान ही हुई।
इस घटना पर राजनीति भी तेज़ हो गई है। रेलवे और दिल्ली पुलिस सफाई दे रहे हैं, दिल्ली सरकार ने जांच के आदेश दे दिये हैं। कांग्रेस तथा अन्य पार्टियां गरीबों की हमदर्द बनने का ढोंग कर रही हैं, बिना यह सोचे कि जब वे सत्ता में थीं तब क्या इस तरह की घटनाएं नहीं होती थीं? सवाल है कि क्या ज़मीन का स्वामित्व किसी भी व्यक्ति या संस्था को यह अधिकार देता है कि वह जब चाहे उस पर रहने वाले को बेदखल कर दे? क्या विकास के नाम पर लोगों से उनके जीवनयापन का अधिकार छीना जा सकता है? भारतीय लोकतंत्र को इन सवालों के जवाब ढूंढने होंगे। इन सवालों का संबंध किसी एक राजनीतिक दल से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है।