पिछले साल अक्टूबर और नवंबर में उत्तराखंड के पौड़ी, टेहरी, जोशीमठ और चमोली ज़िलों में तेंदुओं से भी ज़्यादा भालुओं ने हमले किये। शुरू-शुरू में इसका कारण प्राकृतिक आवास खो जाना और खाने की कमी बताई गयी। जबकि उत्तराखंड के वन अधिकारीयों द्वारा ध्यान से देखने पर चौंका देने वाले तथ्य सामने आये हैं, सामान्य रूप से भालू शीतनिद्रा में नहीं जा रहे थे, जैसे वे पहले जाते थे। इसलिए वे ज़्यादा आक्रामक होते जा रहे थे।
उत्तराखंड के मुख्य वन्यजीव संरक्षक, डी वी एस खाती कहते हैं, “हिमालय में पाये जाने वाले भूरे भालू, जो सामान्य रूप से सर्दियों में हाइबरनेशन या शीतनिद्रा में जाते हैं, लकिन ऐसा वे लम्बे समय तक नहीं जा रहे हैं। कुछ तो कई महीने जगे रहते हैं, तो कुछ पूरे सर्दी में जगे रहते हैं। इस के बहुत सारे कारण हैं, जिसमें मौसम में परिवर्तन प्रमुख कारण है।”
शीतनिद्रा क्या है?
शीतनिद्रा जानवरों में ऐसी स्थिति है जो नींद से अलग है। इसमें उनके शरीर की ज़रूरी क्रियाएँ जैसे, सांस लेना, दिल की धड़कन आदि धीमी पड़ जाती है। इस स्थिति में जानवर कुछ दिनों से कुछ महीनों तक इस स्थिति में रह सकते हैं। ऐसा करके वे अपने आपको जानलेवा सर्दी से बचा पाते हैं। ऐसे मौसम में जब ठण्ड बहुत ज़्यादा होती है और खाना कम तो वे शीतनिद्रा ( जिसे अंग्रेज़ी में हाइबरनेशन कहा जाता है ) में चले जाते हैं।
भालू, गिलहरी, कछुए, चमगादड़ और सांप ये कुछ जानवर हैं जो सीतनिद्रा में जाते हैं। भालू सर्दियों में शीतनिद्रा में तभी जाते हैं जब वे ठन्डे इलाकों में होते हैं। इस बीच लगभग छह महीने तक वे कुछ खाते-पीते नहीं और न ही मल मूत्र करते हैं। इसके अलावा इस प्रकिया में भी मादा भालू बच्चों को जन्म देती हैं और दूध पिलाती हैं।
मौजूद हालात :
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) के वैज्ञानिक एस सत्या कुमार, कश्मीरी भालू पर किये गए अपने एक अध्ययन के मुताबिक कहते हैं, ” कश्मीर में एशियाई भालू जो नवंबर से मार्च तक शीतनिद्रा में जाते थे, अब मुश्किल से ही जा पाते हैं। अगर कम सर्दी होती है तो भालू जंगलों में घूमना और उसके आस- पास के इन्सानी इलाकों में खाना ढूंढ़ना ज़्यादा पसंद करते हैं।”
जलवायु परिवर्तन के कारण जानवरों को शीतनिद्रा या हाइबरनेशन में भारी बदलाव का सामना करना पड़ रहा है। चाहे वे दक्षिणी अफ्रीका के जलथलचर हों, या फिर भारत के रेंगने वाले जीव ( रेप्टाइल्स ) से ले कर कोलोराडो के स्तनधारी जीव या आर्कटिक के ध्रुवीय भालू हों, सब के सब इस से प्रभावित हैं। ( फोटो 3 के अनुसार ) आक्रामक व्यवहार, बच्चे न पैदा करने की समस्याओं और यहां तक कि उनके शरीर के खाना पचने की क्षमता में हो रहे परिवर्तन पर भी इसका महत्वपूर्ण प्रभाव है। इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इन परिवर्तनों के करण जीव अपने समुदाय के भीतर दुसरे जानवरों को बुरी तरीके से प्रभावित कर सकती है| और इसकी वजह से ये पूरी जीवन चक्र को बिगाड़ सकती है|
कई खोजों से यह पता चलता है कि शीतनिद्रा या हाइबरनेशन में बदलाव हो रहा है, जबकि भारत में इस पर शोध का अभाव है। उत्तराखंड के जंगलों के मुख्य संरक्षक धनंजय मोहन बताते हैं, ”अभी तक हम जलवायु परिवर्तन के कारण हो रहे शीतनिद्रा या हाइबरनेशन पैटर्न में परिवर्तन के आंकड़े एकत्र नहीं कर पाये हैं, जिससे इस समस्या का एक नक्शा खिंचा जा सके।”
इनसे सहमति जताते हुए जेएसआई के प्रभारी निदेशक कैलाश चंद्र कहते है कि “हमने इस दिशा में शोध शुरू ही किया है।”
इस साल अक्टूबर में, भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई) ने जम्मू एवं कश्मीर,हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड,मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, असम और पश्चिम बंगाल जैसे 12 राज्यों में वन्य जीवन पर मौसम बदलाव के प्रभाव को समझने और इसके विभिन्न जानवर जाती पर हो रहे प्रभाव से निपटने के लिए एक जांच कराया है | 2016 के मध्य में इस अध्ययन के निष्कर्षों को जारी करने की उम्मीद हैं।
लेख और फोटो (3) साभार: डाउन टू एअर्थ